चिट्ठी नाम की ‘चीज़’ हमारे हाथों से फिसलती जा रही है- ठीक वैसे ही जैसे रेत हाथों की उंगलियों से फिसल जाती है. पता ही नहीं चलता कब मुट्ठी खाली हो जाती है. संचार-क्रांति के इस युग में चिट्ठियां बीते ज़माने की चीज़ बनती जा रही हैं. आज एक-दूसरे से जुड़ने के नये-नये उपकरण हमारे पास हैं. था कोई ज़माना जब कालिदास ने मेघदूत के माध्यम से यक्ष का संदेश उसकी प्रियतमा तक पहुंचाया था, अब ज़माना एसएमएस का है, ट्विटर का है. पलक झपकते ही संदेश दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच जाता है. मुट्ठी में है दुनिया अब. अमेरिका में बैठा कोई बेटा अब भारत के किसी गांव में रह रहे पिता से ऐसे बात कर सकता है, जैसे सामने बैठा हो. विज्ञान का यह खेल किसी करिश्मे से कम नहीं है. सदियों की कल्पनाओं को साकार होते देख रहे हैं हम. पर इस ‘मिलन’ में वह ऊष्मा है क्या, जो पांच पैसे के पोस्टकार्ड को हाथ में लेकर महसूस की जाती थी? हो सकता है, संवेदनाओं की इस मीठी छुअन के अहसास का हाथों से फिसलना मेरी पीढ़ी को ही हो. अगली पीढ़ी ने उस ‘छुअन’ को कभी महसूसा ही नहीं है, तो उसे इसका अभाव खलेगा भी कैसे? खले भले ही नहीं, पर वंचित तो वह रहेगी इस अनुभव से.
कुलपति उवाच
के.एम. मुनशी
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अपने पत्रों में प्रतिबिम्बित सम्पादक
डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव
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पत्र-साहित्य
राजी सेठ
गालिब कविता न भी करते तो
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अर्श मलसियानी
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चाऊ एन लाइ और जवाहरलाल नेहरू के पत्र
जवाहरलाल नेहरू
दुनिया के छह सर्वाधिक पढ़े गये पत्र
पत्र-कथा
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अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी
सुधा अरोड़ा
सूर्यबाला
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कन्हैयालाल ‘नंदन’
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समाचार
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