‘फिर रोग-मुक्त होऊंगा… फिर लिखूंगा’

(फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का पत्र कमलेश्वर के नाम)

2/30, राजेंद्रनगर,

पटना-16 (बिहार)
‘महाशिवरात्रि’ 6-3-70

‘भाय!

मैं 25/2 को अस्पताल से डेरे पर ‘चला’ आया हूं. चला आया हूं, मगर डेरे और अस्पताल में कोई विशेष अंतर नहीं पा रहा हूं. बीमार आदमी दुनिया में सबसे ‘हीन’ प्राणी है. उसे, चाहे तो घर की कुतिया भी डांटकर उपदेश पिला सकती है- ‘फिर शुरू कर दिया सिगरेट पीना/रोटी में अचार छिपाकर खा रहे हो, ठहरो!/तुमको ज़ोर-ज़ोर से हंसना-बोलना मना है न?’ लेकिन लतिकाजी डांटती नहीं हैं इस बार. न उपदेश देती हैं. मेरी बेबसी को देखकर अब वह दयामयी-जैसी हो जाती हैं. अभी-अभी जो आदमी नीचे पांच-सात बार हांक लगा गया- वह मुर्गाबी यानी मुर्गाबियां तथा अन्य ‘टेब्ल-वर्ड्स’ चहा, लालसर, धनेष, बटेर आदि जंगली-तालाबी पखेरुओं को पिटारियों में बंदकर हांक लगानेवाला- ‘चिड़ियाचहंबटंर्रर्र…!’ वह हांक लगाकर निराश होकर इस मौसम में (लतिकाजी के अनुसार) दस बार पहले भी लौट चुका है. लतिकाजी उसके जाने के बाद कुछ क्षण तक मेरी और देखती हैं. फिर कहती हैं- ‘बगैर मसाला-मिर्च के खाओगे? अच्छा लगेगा? बुलावें? खाओ न! मना तो नहीं है?’

लेकिन ‘भाय, सच कहूं- इस बार की बीमारी ने सचमुच मुझे वैष्णव-जैसा प्राणी बना दिया है.’ एक वैष्णव-कथा सुन लो- ‘एक वैष्णव-मठ के महंतजी को राह-घाट में एक बार डाकुओं ने मिलकर लूट-पिट लिया. छुरे से आहत महंत साहब गिर पड़े. उनका एक चेला दौड़ा मठ पर यह दुसंवाद देने. किंतु, मठ के पास जाकर वह हठात् एक सवाल के सामने सम्मुखीन हुआ- संवाद को कैसे कहा जाय? क्योंकि वैष्णवजन साधारण बोल-चाल में भी- ‘काटना’, ‘रक्त’ अथवा ‘खून की धारा’ आदि शब्दों का व्यवहार नहीं करते. धर्म की हानि के साथ जीभ अपवित्र हो जाती है. इसलिए, वैष्णवजन सब्जी काटने को ‘अमनियां’ करना कहते हैं. यदि किसी ने गलती से ‘काटना’ कह दिया तो ‘लौकी’ भी मांस-यानी वैष्णवों के लिए अखाद्य! सो उस चेले राम ने बहुत देर बाद इन शब्दों में संवाद सुनाया- गुरु भाय रे भाय! दस्युदल ने गुरुजी को राह में ‘अमनियां’ करके रख दिया है. गुरुजी एकदम ‘रस’ में सराबोर होकर आदि आदि! – लेकिन भाय, अब पेट की सर्दी के बहाने बदपरहेजी नहीं चलेगी. असल में इस बार जो कष्ट भोगना पड़ा है, उसकी याद आते ही सबकुछ भूल जाता हूं.

मजबूरी में मैं ‘अंतर्देशीय-पत्र-कार्ड’ पर पत्र लिख रहा हूं. असल में चिट्ठी लिखनेवाला यानी कुछ भी लिखनेवाला बढ़िया कागज़ अब तक नहीं आया है. पत्र लम्बा होना चाहता है और मैं अभी कुछ नहीं कह पाया हूं. बहरहाल, पटना मेडिकल कालेज अस्पताल दवा-दारू, पथ्य-पानी ठीक-ठाक दे या न दे-रोगियों को गंगाजी की शुद्ध और पवित्र हवा देता है. हवा के अलावा मैं लेटे-लेटे अपने कॉटेज के कमरे की एक खिड़की के रंगीन कांच पर दिनभर गंगा में होने वाली हरकतों को- स्टीमर और नावों के चलचित्र देखा करता था. कभी अघाया नहीं. मेरा खयाल है, गंगा के तट पर कहीं कोई अस्पताल नहीं है, पटना के सिवा.

तुम्हारा पत्र अस्पताल में रहते ही मिला था. 4 मार्च से तो लिखने-पढ़ने की आज्ञा मिली है. तुम्हारे लिए एक कहानी ‘अगली पीढ़ी के आवां-गार्द से एक मुलाकात’- शुरू कर दिया है. खत्म हो जाय, तुरंत भेज दूंगा.

और सब ठीक है. लतिकाजी आपको हमेशा याद करती हैं, यानी जब-जब इलाहाबाद का कोई ऐसा प्रसंग छिड़ता है.

पिछली बार (1951 में) रोग-मुक्त होकर अस्पताल से निकलने के बाद जिस तरह लिखने के लिए मन आतुर रहता था, वैसी आतुरता मन में फिर जगी है. …जय बम भोलेनाथ! जगाये रखो इसको (जगाये कोई जोगिया जोग-जाति!) संयोगवश, जब जी गया हूं तो अकारण ही नहीं. कोई बात बाकी रह गयी है. देखा जाय.

पत्र देना/देते रहना

– भाई ही

रेणु

सभी मित्रों को सलाम. शिवेंद्रजी कहां हैं? क्या-क्या कर रहे हैं? उन्हें भी पत्र देने को कहें.

(जनवरी 2016)

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