एक प्रेम-पत्र 

पत्र-व्यंग्य 

– प्रेम जनमेजय

 

डालडे-सी अलभ्य प्रिये!

देसी घी की मधुर स्मृतियां.

आज शीघ्र-डाक-वितरण-सप्ताह की अत्यंत कृपा से तुम्हारे द्वारा एक-एक सप्ताह के अंतराल से प्रेषित चार प्रेम-पत्र मिले, जिन्हें गुलाबी ल़िफ़ाफे में पड़ा देख डाकिया सेंसर कर चुका था. हम सब यहां तेल-घी-राशन के अभाव में पीड़ा का अनुभव कर रहे हैं. आशा है ईश्वर की असीम कृपा से अभाव की यह पीड़ा तुम लोगों को न हो रही होगी. तुम्हारे अभाव में मुझे डालडे और तेल दोनों की पंक्तियों में समान भाव से खड़ा होना पड़ता है. तुम्हारा न होना ऐसे समय बहुत खटक रहा है.

तुमने पत्र का उत्तर न मिलने पर नाराज़गी प्रकट की है, जिससे यह पता चलता है कि अब तक तुम्हारी यह नाराज़गी चार गुना हो चुकी होगी. (अंकगणित यही कहता है, प्रेम-गणित क्या कहता है, यह या तुम अनुभव कर सकती हो या फिर ईश्वर जानता है.)

ऐसा नहीं कि मुझे विरह ने पीड़ित नहीं किया हुआ है. मैं भी समान भाव से विरह में जल रहा हूं और ऐसे में मेरी अवस्था बिलकुल भारत जैसे महान एवं पुण्य देश के समान हो गयी है. उस देश के समान हो गयी है जिसकी मिट्टी सोना उगलती है; जहां रांझा और महिवाल जैसे महान पुरुषों ने जन्म लिया. जहां आज भी रात के काले धन से भी गहरे वातावरण में हीर की चीख गूंज जाती है. आह! निष्ठुर समाज, यह तूने क्या किया!

विरह का ताप महंगाई के समान दिनों-दिन बिना किसी क्रम के बढ़ता ही जा रहा है. हृदय की धड़कन देश की अर्थव्यवस्था की तरह डावांडोल हो रही है. सांस मिली-जुली-सरकारों की भांति उखड़-उखड़कर चल रही है. काम पूंजीपति बनकर शरीर का शोषण कर रहा है और शरीर भारत की दलित जनता के रूप में प्रतिदिन जर्जर एवं निप्राण होता जा रहा है. ऐसे में हे प्रिये, तुम किस पंक्ति में खड़ी हो और किसका स्वेटर बुन रही हो?

तुम मेरी पीड़ा को नहीं समझ पाओगी और न ही मैं इसका वर्णन करना चाहता हूं. अन्यथा कागज़ का वह संकट उपस्थित होगा कि हर विरही यक्ष मेघ को दूत बनाकर भेजेगा तथा प्रकृति में काले बाज़ार का धंधा ज़ोर मारने लगेगा. तुम बस इतना समझ लो कि जैसी पीड़ा मनुष्य वर्तमान भारत में रहने पर अनुभव करता है, उससे भी अधिक मैं अनुभव कर रहा हूं.

तुम्हें प्रेम से भरा पत्र न लिखने का कारण एक और भी था. तुम्हें शायद मालूम है कि मैं लेखक हूं और समाज जैसे घटिया विषय पर लिखता हूं. (विशेष शब्द घटिया की सप्रसंग व्याख्या- जब तुम्हें मेरा लेखक होना ज्ञात हुआ था और तुमने प्रेम में मेरी रचनाएं पढ़ी थीं, तब तुम्हारे श्रीमुख से कन्याओं वाला स्वाभाविक प्रश्न उसी प्रकार उच्चरित हुआ था जैसे आजकल नेताओं द्वारा ‘समाजवाद’ उच्चरित होता है- ‘तुम तिकड़म धंधा की तरह रोमांटिक, नसों में फड़क पैदा करने वाले ‘सामाजिक नोवेल’ क्यों नहीं लिखते?’ तभी मुझे ब्रह्म-ज्ञान हुआ था कि समाज क्या है और मैं किस घटिया समाज पर लिखता हूं.) मुझे यही समस्याएं सरकारी अस्पतालों के समान इतना पीड़ित करती हैं कि मैं प्रेम का अनुभव भी नहीं कर पाता हूं. वैसे भी स्वयं को अनरोमांटिक कहलवाना कम्युनिस्ट कहलवाने के समान फैशन हो गया है. उस दिन बस में कंडक्टर से झगड़ा हो जाने पर एक भाई रोब मार रहा था, ‘हमसे टिकट की झक-झक मत करो. हम कम्युनिस्ट हैं, तुम्हारी सरकार की धज्जियां उड़ा देंगे.’

तुम मेरे उपर्युक्त अनरोमांटिक-कथन को मार्क्सवादी-एप्रोच भी कह सकती हो. एप्रोच शब्द पर ध्यान देना. यह वह ‘एप्रोच’ नहीं है जो तुम्हें नौकरी दिलवा सके. क्योंकि जानता हूं कि आजकल तुम खाली हो और दहेज बनाने के लिए तुम्हें नौकरी की अत्यंत आवश्यकता है. अतः सचेत कर रहा हूं कि मात्र इस कारण से तुम कम्युनिस्ट मत बन जाना. वैसे भी इस तथाकथित महान जनतंत्र में साम्यवादी दल को लेकर जटिल समस्या  है. पहले तो यह समझा जाये कि साम्यवाद क्या है? फिर यह जाना जाये कि महान भारत में कितने प्रकार के साम्यवाद हैं? फिर समझा जाये कि किस दल का साम्यवाद अच्छा है? आदमी इस समझ में बूढ़ा होकर फिर क्रांति करे.

मैं तुम्हें प्रेम-पत्र न लिखकर क्रांति करना चाहता था, क्योंकि क्रांति करना रोज़ बाल काढ़ने से भी अधिक सरल हो गया है. बस में टिकट न लो- क्रांति हो गयी. लड़की की बांहों में हाथ डालकर भरे बाज़ार में चुंबन ले लो- महान क्रांति हो गयी. किसी का गिरेबान पकड़कर दो-चार गालियां दे दीं- साहब रक्त-क्रांति हो गयी. और बेतरतीब दाढ़ी बढ़ाकर क्या क्रांतिकारी रूप बनता है! वैसी ही क्रांति मैं भी प्रेम के क्षेत्र में करना चाहता था परंतु तुम्हारे चार प्रेम-पत्रों ने मुझे क्रांतिकारी नहीं बनने दिया.

समझ लो क्रांति का सही रूप यही है. क्रांति उसे नहीं कहते हैं जो रामलाल, खचेरा या अहमद जैसे लोग कर रहे हैं. वह क्रांति नहीं जिसमें भाषण न देना पड़े और बिना अखबार में फ़ोटो छपे जेल जाना पड़े. घर-बार की सुविधा त्याग कर मज़दूरों के बीच सड़ना क्रांति नहीं है अपितु उनकी हज़ारों-लाखों की संख्या के बीच भाषण देना और फिर एयरकंडीशंड कमरों में सोना क्रांति है. जिनके पास नष्ट करने को समय और धूप में जलाने को चमड़ी है, वे ठलुए हैं. उनसे क्रांति न होगी. वैसे तो कन्या एवं क्रांति नामराशि होते हुए भी विरोधी हैं परंतु
यदि तुम्हें फैशन में क्रांति करने का
विचार आये तो पहले वाली क्रांति करना. अपने को अच्छे पद पर नौकरी करते हुए सर्वहारा कहना.

ऐसा नहीं प्रिये कि मैं तुमसे मिलने को उत्सुक नहीं हूं परंतु यह जालिम विरोधी-दल, सी.आई.ए. के एजेंट राह में रोड़े अटका रहे हैं. परंतु तुम घबराओ मत प्रिये, मैं समाजवाद की तरह आकर रहूंगा, गरीबी के समान इस दीवार को हटाकर रहूंगा. फिर हम एक हो जायेंगे. तुम तुम न रहोगी, मैं मैं न रहूंगा. और यह जालिम समाज- इसके टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे. क्रांति होगी क्रांति. और फिर मज़े-ही-मज़े होंगे.

अच्छा तो इस कागज़ के संकट में और क्या लिखूं? घर में बड़े-बूढ़ों को सांत्वना देना कि अच्छे दिन आकर रहेंगे. युवकों को विश्वास दिलाना कि क्रांति आ रही है तथा बच्चों को समाजवाद के सुंदर स्वप्नों की माला पिरोकर देना.

तुम्हारा

प्रेम

 (जनवरी 2016)

 

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