खत को तार समझना

  • रमेश नैयर

मिर्ज़ा गालिब ने अपनी उम्र भर की जमापूंजी की घोषणा मात्र दो पंक्तियों में करते हुए लिख दिया था- 

चंद तस्वीरे बुतां, चंद हसीनों के खुतूत

बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला

ज़ाहिर है उर्दू के वह महान शायर पत्राचार को बहुत महत्त्व देते थे, और अपनी पसंद के पत्रों को सहेज कर भी रखते थे. गालिब ही क्यों, विश्व के अनेक महत्त्वपूर्ण लेखक, वैज्ञानिक, राजनेता और इतिहासकार भी पत्राचार की उपयोगिता को बहुत महत्त्व देते थे. मुंशी प्रेमचंद और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सहित अनेक प्रमुख साहित्यकार और सम्पादक भी बड़ी तन्मय तत्परता से पत्र-व्यवहार किया करते थे. बख्शीजी को तो ‘सरस्वती’ जैसी अपने समय की अत्यंत प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका के सम्पादन का दायित्व श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मात्र उनके एक पत्र के आधार पर ही दे दिया था. हुआ यह था कि द्विवेदी जी को ‘सरस्वती’ के सम्पादन का दायित्व निभा सकने में सक्षम उत्तराधिकारी की तलाश थी. उन दिनों मध्यप्रांत के अंचल छत्तीसगढ़ के एक छोटे-से दूरस्थ रजवाड़े खैरागढ़ में बख्शी जी एक स्कूल में अध्यापक थे. उन्हें द्विवेदी जी की इच्छा का पता चला तो उन्होंने एक पत्र उनको लिखा. उस पत्र की भाषा-शैली और सहज-सशक्त अभिव्यक्ति ने द्विवेदी जी को इस कदर प्रभावित किया कि उन्होंने ‘सरस्वती’ के सम्पादन की सम्भावना को उस परम संकोची युवक में भांप लिया. इस प्रकार केवल एक पत्र के आधार पर युवा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को ‘सरस्वती’ का सम्पादक बना दिया गया.

भारत में महात्मा गांधी का पत्राचार सम्भवत सर्वाधिक व्यापक रहा. प्रकाशन विभाग, दिल्ली द्वारा सौ खंडों में संकलित गांधी जी के समग्र लेखन में पत्राचार कई सौ पृष्ठों में समोया हुआ है.

इसी क्रम में धर्म, संस्कृति, संस्कार और जीवन निर्माण की पत्रिका ‘कल्याण’ के क्रांतिकारी संस्थापक सम्पादक हनुमान प्रसाद पोद्दार के पत्राचार का स्मरण हो आता है. आत्मीयजनों में भाई जी के सम्बोधन से लोकप्रिय पोद्दार जी को प्राय प्रत्येक प्रख्यात लेखक, स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता और समाजसेवी के पत्र मिलते रहते थे. भाई जी प्रत्येक पत्र को पढ़ते और मनोयोग से तत्परतापूर्वक उनका उत्तर भी देते. उनका अपने सचिव को स्थायी निर्देश था कि जो पत्र उनकी प्रशस्ति में लिखा गया हो, उसका तत्काल अग्नि संस्कार कर दिया जाये. परंतु यदि किसी पत्र में उनकी आलोचना की गयी है अथवा उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व पर कोई आक्षेप किया गया है, उसे अवश्य उनके सामने प्रस्तुत किया जाये, ताकि वे उसका उत्तर दे सकें.

पोद्दार जी के लिखे गये पत्रों में इतिहास बोलता था. लोकेषणा से नितांत निस्पृह हनुमान प्रसाद जी ने यदि उनकी प्रशंसा में लिखे पत्रों को नष्ट न करवा दिया होता तो स्वतंत्रता  आंदोलन तथा स्वतंत्र भारत के आरम्भिक कुछ दशकों के अनेक प्रेरक-प्रसंगों के ज्ञान से भारत का आधुनिक इतिहास वंचित न रह जाता. उदाहरण के लिए भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्रथम गृहमंत्री पं. गोविंद वल्लभ पंत के माध्यम से ‘भाई जी’ को प्रस्ताव भेजा था कि वे ‘भारत रत्न’ अलंकरण स्वीकार करने की अनुकंपा करें. परंतु भाई जी ने उस आग्रह को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. इस महत्त्वपूर्ण तथ्य का पता राजेंद्र बाबू के पुत्र मृत्युंजय प्रसाद द्वारा ‘भाई जी’ को लिखे एक पत्र की इन पंक्तियों से चल पाया-

‘पूज्य पिता जी की आंतरिक अभिलाषा थी कि ‘भाई जी’ को ‘भारत रत्न’ की उपाधि से विभूषित करके उनके आध्यात्मिक व्यक्तित्व को राजकीय सम्मान प्रदान करने का अवसर मिले, परंतु ऐसे सम्मानों-अभिनंदनों के प्रति भाई जी की घोर उपरामिता के कारण उनकी वह सात्विक अभिलाषा पूर्ण न हो पायी. वह अभिलाषा मात्र चर्चा का विषय बन कर रह गयी.’ (पं. अच्युतानंद मिश्र की पुस्तक ‘पत्रों में समय-संस्कृति’, पृ.-255)

जिनके नाम से हिंदी का लम्बा कालखंड ‘द्विवेदी युग’ के नाम से आज भी जाना जाता है, उन सुप्रसिद्ध लेखक और ‘सरस्वती के सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा 7 सितम्बर 1932 में पोद्दार जी को लिखा एक पत्र अंतस को भिगो जाता है. उस हस्तलिखित पत्र की निम्नलिखित पंक्तियां विशेष प्रभावित करती हैं-

‘सांसारिक यातनाओं की ज्वाला में मुझ झुलसे हुए पर आपने घड़ों का जल क्या, पीयूष की वर्षा कर दी. कल के ‘कल्याण’ के ईश्वरांक पाठ में आनंद प्राप्त कर
रहा हूं. पृष्ठ-612 पर आपका लेख पढ़ा. पृष्ठ-614 के पहले कॉलम की पहली पांच सतरें पढ़कर यह (पोस्ट) कार्ड लिख रहा हूं. मेरी आंखों से जो आंसू निकले हैं और अब तक निकल रहे हैं, उनका कुछ अंश ऊपर कार्ड पर भी लग गया है. आप धन्य हैं, आपकी योजना धन्य है. भगवद् भक्ताय नम। कृतार्थ।’

इसी क्रम में पंडित जवाहरलाल नेहरू के अपनी पुत्री इंदिरा प्रियदर्शनी को लिखे गये पत्रों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा. इंदिरा तब दस वर्ष की थीं और मसूरी में थीं तो पं. जवाहरलाल उन्हें इलाहाबाद से नियमित पत्र लिखा करते थे. बाद में अंग्रेज़ी में लिखे गये वही पत्र संकलित कर एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए. उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अंग्रेज़ी से उनका अनुवाद ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ शीर्षक से किया. अंग्रेज़ी की भांति यह हिंदी अनुवाद की पुस्तक भी पर्याप्त लोकप्रिय हुई और दोनों भाषाओं की पुस्तकों के देश-विदेश में बीसियों संस्करण प्रकाशित हुए. उसका प्रथम पत्र था ‘संसार पुस्तक है.’ आरम्भिक पंक्तियां थीं, ‘जब तुम मेरे साथ रहती हो तो अक्सर मुझसे बहुत-सी बातें पूछा करती हो और मैं उनका जवाब देने की कोशिश करता हूं. लेकिन, अब, जब तुम मसूरी में हो और मैं इलाहाबाद में, हम उस तरह बातचीत नहीं कर सकते. इसलिए मैंने इरादा किया है कि कभी-कभी इस दुनिया की और उन छोटे-बड़े देशों की जो इस दुनिया में हैं, छोटी-छोटी कथाएं लिखा करूं. तुमने हिंदुस्तान और इंग्लैंड का कुछ हाल इतिहास में पढ़ा. लेकिन इंग्लैंड केवल छोटा-सा टापू है और हिंदुस्तान, जो एक बहुत बड़ा देश है, फिर भी दुनिया का एक छोटा-सा हिस्सा है. अगर तुम्हें इस दुनिया का कुछ हाल जानने का शौक है, तो तुम्हें सब देशों का, और उन सब जातियों का जो इसमें बसी हुई हैं, ध्यान रखना पड़ेगा, केवल उस छोटे-से देश का नहीं जिसमें तुम पैदा हुई हो.’

इधर गत एक-डेढ़ दशक से पत्र-लेखन का चलन तेज़ी से कम होता गया है. संदेशों और सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए जन-सामान्य में मोबाइल फोन का उपयोग बढ़ रहा है. यह मानव-जीवन के यंत्रीकृत होते जाने का एक साक्ष्य माना जा सकता है.

परंतु मानव सभ्यता के विकास के ज्ञाताओं और भविष्यदृष्टा मनोविदों का मानना है कि मनुष्य जीवन कभी इस कदर यंत्रीकृत नहीं हो पायेगा कि वह संवेदना की झंकार और चटक से पूरी तरह कुट्टी कर ले. दुर्भाग्य से ऐसा यदि कभी हो गया तो प्रचंड बहुतायत उन निर्मम-निष्ठुर उन्मादियों की हो जायेगी जो सम्पूर्ण मानव जगत को एक दैत्याकार विकराल पागलखाने में बदल देंगे. इधर मनोविद् इस अप्रिय तथ्य को पूरी गम्भीरता से लेने लगे हैं कि जैसे-जैसे मनुष्य यंत्रीकृत होता जा रहा है, वैसे-वैसे मनोरोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है. तमाम रंग-ढंग के आतंकवादी मनोरोग-ग्रस्त इसी विकराल मानव समुदाय में गिने जाने लगे हैं. मानव को मनोरोग ग्रस्त होकर सामूहिक आत्म विनाश से रोकने के लिए प्रथम कारगर उपचार यही सुझाया जा रहा है कि मनुष्य को संवेदनशील बनाये रखा जाये. प्रेम, वात्सल्य, मेलजोल और संवाद की लौ हर मन में दीप्त की जाये. पत्र-व्यवहार के द्वारा संवाद को इसका महत्त्वपूर्ण सोपान माना गया है. यदि ऐसा होता है तो डाकखाने और डाकिये का भी वजूद बना रहेगा.

इस संदर्भ में निदा फाज़ली का एक दोहा मन को भिगो गया. जिस डाकिये को हम लुप्त होते केवल सरकारी नौकर कह कर उपेक्षित कर देते हैं और बड़ी कृपा करके दीपावली पर छोटी-मोटी बख्शीश देकर उसकी पूरी शख्सियत को सौ-पचास रुपयों में नापकर रख देते हैं, उसके थैले में पत्र लेखकों की कितनी हसरतें, कितनी मनुहारें, कितनी पीड़ाएं और कितनी मानवीय गाथाएं यात्रा करती हैं.

निदा फाज़ली ने डाकिये और उसके थैलों में पलने वाले तिलिस्म को बहुत सीधे-सरल शब्दों में बयान किया है-

सीधा-साधा डाकिया जादू करे महान

एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान

प्यार की न जाने कितनी मनुहारें, दर्द की न जाने कितनी सिसकियां, खुशियों के न जाने कितने पैगाम, उत्सव के न जाने कितने संदेशे और उद्यम की न जाने कितनी गाथाएं हर रोज़ अपने थैलों में भरकर डाकिया डाकघर से चलता है और घर-घर अलख जगाकर उन्हें उनकी मंज़िल पर पहुंचा आता है. यह उसकी रोज़ी-रोटी का ज़रिया है और निष्काम कर्मयोगी-सा आचरण भी. उसे कोई सरोकार नहीं इस बात से कि किसने कोरे कागज़ पर फक्त मुहब्बत भरा एक सलाम लिखा है और किसने अपने रकीब को बेहूदी गालियों से रंगे हुए पन्ने कैद किये हैं. हर ऱेज वह हसरतों के बाज़ार से गुज़रता है, पर खुद खरीददार नहीं है.

निश्चय ही मोबाइल टैब, कंप्यूटर चलते और फिरते रहेंगे. फेसबुक, वाट्सअप, ट्वीटर, वीडियो कांफ्रेंसिंग और अन्य त्वरित सामूहिक संचार के माध्यमों का विस्तार होता रहेगा. फिर भी यह हसरत पूरी तरह नहीं मरेगी कि ‘लिखे कोई खत मुझे’. संवाद का विस्तार और उसकी निरंतरता की आवश्यकता ने मनुष्य को एकाकी आखेटक मानव से सामाजिक सामुदायिक प्राणी बनाया. इतनी हदबंदियों और सामरिक संघर्षों के शोर के बीच भी कहीं न कहीं मानव जगत भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की पुरातन कामना का सिंचन कर रहा है. उसके पल्लवन में पत्राचार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा. आज भी भारत के बिजली और त्वरित संचार के माध्यमों से कटे हुए क्षेत्र में हमें कोई ऐसी निरक्षर पत्नी, मां या पिता मिल जायेगा जो किसी से खत लिखवा रहा होगा और मन में इच्छा कुलबुला रही होगी कि उसे पाने वाला उस खत को तार जैसा महत्त्वपूर्ण माने; गोकि अब तार का तो अस्तित्व ही इतिहास की बात हो गया है!

(जनवरी 2016)

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