अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में

गुजराती के शीर्ष रचनाकार तथा स्वतंत्रता-संग्राम के अग्रणी सिपाही कनैयालाल मुनशी गांधीजी के अनुयायी तो थे पर उनसे असहमति के अपने अधिकार को उन्होंने हमेशा सुरक्षित रखा. उनके लिखे नाटक ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ पर जब गांधीजी ने अप्रसन्नता व्यक्त की तो मुनशीजी ने स्पष्ट कहा था, ‘मुझे आशा है साहित्य के स्वातंत्र्य की मेरी भावना से आप मुझे भ्रष्ट नहीं होने देंगे.’ इस संदर्भ में हुआ पत्र-व्यवहार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे पर बहुत कुछ कहनेवाला है. मूल गुजराती से अनुवाद किया है दीपक सोलिया ने.

अश्लीलता के किनारे तक ले जाता है यह नाटक

यरवडा मंदिर
25-11-32

भाई मुनशी,

कुछेक चिठ्ठियां तो हम एक दूसरे को पहले लिख ही चुके हैं, किंतु आज तो मुझे आपसे दीनभाव के साथ एक फरियाद करनी है. एक नवयुवक ने आपका प्रहसन ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ मुझे भेजा है और साथ में बड़े दुखी मन से आलोचना भेजी है. यह पुस्तिका पहले तो सरदार ने देखी. महादेव भी ऊपर ऊपर से इसे देख चुके हैं और मैंने भी उसके कुछ संवाद सुने. निर्दोष विनोद को समझने की शक्ति के लिए अगर कोई इनाम दिया जाये तो 65 की आयु के बावजूद छोटा-सा इनाम तो मैं भी पा सकता हूं ऐसा मुझे लगता है, और आप जैसे साथी भी विनोद परखने की मेरी शक्ति से वाकिफ हैं. किंतु आपके कॉमेडी नाटक में मुझे मधुर विनोद नहीं दिखा. उसमें तो नादानों एवं निकम्मे लोगों को लगभग अश्लीलता के किनारे तक ले जानेवाली और जिसे सुन के कान में से कीड़े निकल पड़ें ऐसी भद्दी मज़ाक है. आप जब जेल में हैं तब आपसे सुंदर साहित्य की आशा रहेगी. ज़्यादा बहस नहीं करूंगा, पर इतनी दलील के बाद अपनी विनंती सुना दूं. प्रकाशक को लिख के कॉमेडी नाटक वापस ले लो. वह नवयुवक बता रहा है कि कुछ लोग इस कॉमेडी नाटक को रंगमंच पर लाना चाहते हैं. वह बिचारा नवयुवक इस बात से जल रहा है. मुझे भी लगता है कि इसका कभी भी मंचन नहीं होना चाहिए. जो आदमी खुद पे हंस सकता है उसे किसी भी तरह की मज़ाक करने का या खुद की मज़ाक के बहाने जगत की और जगत के सिद्धांतों की मज़ाक उड़ाने का हक नहीं मिल जाता, यह सब आप जैसे सूक्ष्म बुद्धि के धनी को बताने की ज़रूरत नहीं है. आशा है आप शरीर को ठीक से कस रहे होंगे. सभी साथियों को वं. मा.

मोहनदास का वं. मा.

(वं.मा. = वंदे मातरम्)

‘आपसे सहमति का मतलब कायरता और चापलूसी होगी’

बीजापुर जेल
ता. 3-12-32

पूज्य बापू की सेवा में,

आपका पत्र मिला. पढ़कर बड़ी हैरानी भी हुई और दुःख भी हुआ. आपकी बात का अमल इस तरह करूंगा. ब्रह्मचर्याश्रम के प्रथम संस्करण का कॉपीराइट मेरे ट्रस्ट ने प्रकाशक को दे दिया है और उसकी रायल्टी के पैसे भी मिल चुके हैं. फिलहाल यहां (जेल) से दूसरे संस्करण की अनुमति न मिले इसका खयाल रखूंगा.

इस कृति को कौन स्टेज पर ले जा रहा है उसका मुझे पता नहीं. किसी ने मेरी अनुमति नहीं मांगी है. मुझे पूछे बिना मेरे कई नाटकों का मंचन गुजरात में हो चुका है और मैंने उनको रोका नहीं है.

अगर लीलावती को यहां आने की अनुमति मिलेगी तो आपकी आज्ञा का अमल करने के बारे में लीलावती के ज़रिये कहलवा दूंगा.

आपकी कड़ी आलोचना वाली चिठ्ठी से मुझे जो दुःख हुआ है उसे मैं आपके अलावा किसे कहूं? अनेक व्यस्तताओं के बीच आपने जिस स्नेह से लिखा है, उसी तरह, शिशुभाव के साथ मैं अपना दृष्टिकोण आपके सामने रखूं तो क्या आप नहीं सह लेंगे?

चिठ्ठी मिलते ही मैं भौंचक्का रह गया. गुजरात के युवाओं से मैं अपरिचित नहीं हूं. आज गुजरात के लड़के-लड़कियां गीतगोविंद और अमरुशतक, शेक्सपियर की कविता और मोलियेर के नाटक, मोपांसां एवं आनातोल फ्रांस की कहानियां जी भरकर पढ़ते हैं. यह तो हुआ शिष्ट साहित्य. इसके अलावा और भी बहुत कुछ पढ़ते हैं. इसमें बेचारा ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ इतना भयानक माना जायेगा शुरू में तो यह मेरी समझ में ही नहीं आया. जिस बीमार युवक ने आपको लिखा उसने सही सोच से लिखा होगा, ऐसा मान लूं तो भी इतना तय है कि बहुतों को यह जानने में बड़ा मज़ा आयेगा कि ‘गांधीजी ने मुनशी को डांटा.’ यह नाटक ढाई साल पहले मैंने लिखा था. तब से छोटे-बड़े, संस्कारी और सत्याग्रही लोगों ने, मेरे मित्रों ने, आपके अनुयायिओं ने इसे पढ़ा है और उन्हें यह पसंद भी आया है. आपके एक निकट के सहयोगी ने भायखला जेल में इसे पढ़कर आपको भेजने का मशवरा देते हुए कहा था, ‘बापू पढ़ेंगे तो उनको बहुत अच्छा लगेगा और वे बहुत हंसेंगे.’ आपको काल्पनिक साहित्य पढ़ने का वक्त नहीं होगा यह सोचकर उस बात को मैंने क्रियान्वित नहीं किया था. ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ के बारे में एक राय नहीं है, दो हैं. बीच में से चुने हुए अंशों के बजाय पूरा नाटक पढ़ेंगे तो मुझ पर मेहरबानी होगी.

साहित्य का आपका आदर्श समझने की मैंने कोशिश की है. मैं इसे अथवा साहित्य लिखते समय जिस आदर्श से प्रेरित होता हूं, वह आपके आदर्श से बिल्कुल भिन्न है, यह भी मैं समझता हूं. पर जब तक मैं अपना आदर्श आपके सामने नहीं रखूंगा तब तक, दो दिनों से जो पीड़ा मैं भुगत रहा हूं, उसे आप समझ नहीं पायेंगे.

यह, या मेरी अन्य कोई कृति, सिर्फ वक्त बिताने के लिए या ‘अश्लीलता के किनारे खड़े रहने’ के शौक से नहीं लिखी गयी. जीवन के सभी क्षेत्रों को, वह जैसे है उसी ढंग से realistically साहित्य में ढालना यह पिछले बीस साल से मेरे जीवन का मौलिक सिद्धांत रहा है. कलात्मक सौंदर्य – Artistic Beauty – के दर्शन को मैंने एक अंतिम लक्ष्य माना है. इसके सर्जन पर कोई भी सीमा थोपी जाती है- चाहे वह प्रतिष्ठा के नाम पर हो या नीति, धर्म या समाज-हित के नाम पर- मैं उसे पाप समझता हूं. Creative art is, I feel, its own justification and its own law. इस सिद्धांत की खातिर कई बार, बहुत विरोध के बावजूद, मैंने बहुत लहू सींचा है, पैसे गवाएं हैं और जोखिम भी उठाये हैं.

इस नाटक में ‘पेमली’ किरदार मेरी कल्पना है. उसके विचार, वाणी या वर्तन में एक भी चीज़ ऐसी नहीं जिससे किसी को शर्मिंदगी महसूस हो. वह ईमानदार है, नीतिवाली है, बोलने में समझदार है.

चार-पांच किरदार मेरे दोस्तों से और मुझसे प्रेरित हैं. जेल में उन्होंने जो सुख-दुःख महसूस किये हैं, उसके बारे में उन्होंने जो टीका की है, यह सब मैंने उन्हीं के शब्दों में लिखा है. उनमें से कोई भी किरदार वीभत्स शब्द नहीं बोलता और अनैतिक विचार भी नहीं व्यक्त करता. स़िर्फ एक नामुमकिन आदर्श को सिद्ध करने की कोशिश में वे हास्यजनक तरीके से गिरने के कगार पर आ जाते हैं. सिद्धांत की कद्र वे सब करते हैं. फिर भी, जिन शब्दों में वे सिद्धांतों की कुछ मज़ाक उड़ाते हैं, उन्हीं शब्दों का अन्य परिस्थिति में भी वे लोग प्रयोग करते हैं. जब मैं यह लिख रहा था तब ये सब किरदार मेरे इर्द-गिर्द ही थे. उन्हीं के सूचन से यह लिखा गया है. उनका किरदार गलत ढंग से उभारा गया, ऐसा किसी ने नहीं कहा. सबने बड़े चाव से उसे बार-बार पढ़ा था. उनमें से एक भाई ने कई बार पढ़ने के बाद, डेढ़ साल के बाद, नाराज़गी जतायी थी. उनको डर था कि लोग पहचान लेंगे तो?

बाकी बचा एक किरदार ‘बड़े भाई’ का. वे भी वीभत्स नहीं बोलता- एक लाइन भी नहीं. वह बेशरम है, खुलेआम बेशरम है, पर ऐसे लोग और उनसे भी भद्दे लोग जीवन में, क्लब में, धारासभा में, जिमखाना में और कभी-कभी जेल में देखने को मिल जाते हैं. ऐसे लोग पैदा करने में पाश्चात्य संस्कार ने अपने बहुत से विद्वान और काबिल लोगों के आदर्श प्रेम को जड़ से उखाड़ फेंका है. ऐसे लोगों का मुझ पर थोड़ा-सा भी रंग न चढ़े इस चिंता में तो मेरी आधी ज़िंदगी गयी है. मैंने उनको जैसे देखा है, वैसे ही दिखाया है. यदि ऐसे लोगों को साहित्य नहीं रोकेगा, तो कौन रोकेगा?

इसमें ब्रह्मचर्य के सिद्धांत पर एक भी आक्षेप नहीं है. ब्रह्मचर्य को मैं भी एक महाव्रत मानता हूं. पर वह पुण्यात्मा के लिए ही मुमकिन है, योगी के लिए ही साध्य है. कैवल्य की तरह ब्रह्मचर्य को भी कुछेक लोग ही समझ पाते हैं. इसलिए कुछ सिद्ध लोग ही उसे अपना सकते हैं और उसमें तैर सकते हैं.

पर जैसा अन्य सिद्धांतों में होता है, कुछ आधे-अधूरे लोग इसके नाम पर भी असहिष्णुता, दम्भ और आडम्बर अपनाते हैं. लोगों में अपना डर एवं रुतबा कायम करने के लिए वे लोग इसे अपनाते हैं और उनके आस-पास के लोगों को खून के आंसू रुलवाते हैं. ऐसे लोग मौका मिलते ही सिद्धांत को भूल जाते हैं. यह बात आप भी जानते ही होंगे. ऐसे लोगों के पराक्रमों से रोमन केथलिक मठों का और बौद्ध धर्म के मठों का इतिहास भरा पड़ा है. आम आदमी अपनी स्वाभाविक प्रकृति को रौंदकर देवपद नहीं पा सकता. ऐसे उदाहरण केवल पुरुषों के लिए बनी क्लबों में एवं जेलों में देखने को मिलते हैं. पांच जेलों के अनुभव से मैंने एक सायकोलॉजिकल फेक्ट नोटिस किया है कि जेल का वातावरण बड़े-बड़ों को घटिया मज़ाक या वीभत्स एवं अश्लील बातें करने को प्रेरित करता है. इन सबमें मेरी रुचि स़िर्फ इस रंग के चित्रण तक ही सीमित है. जब तक ऐसे आधे-अधूरे लोग हैं, ऐसी वृत्तियां जागती हैं और लोग इस तरह का बर्ताव करते हैं, तब तक साहित्य अगर उसे प्रतिबिम्बित न करे तो ऐसा साहित्य गलत और पाखंडी है, ऐसा मैं मानता हूं. और अगर ऐसे लोगों को पेश न किया जाय तो ‘सटायर’ और सामाजिक नाटकों का फिर मतलब ही क्या है? और अगर ऐसा चित्रण नहीं होना चाहिए ऐसा मान लिया जाये, तो विश्व के शिष्ट साहित्य का एक अनमोल हिस्सा जलाकर खाक कर देना चाहिए.

मैं आपके साथ बहस में नहीं उतरना चाहता- खास करके इस वक्त तो नहीं, पर आपकी चिट्ठी मिली और मैंने ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ नाटक फिर से पढ़ा. बहुत सालों से जिसकी तपस्या की है उस नाट्यकला, सर्जकता और विनोद के मापदंड से उसे जांचा-परखा. हब्शी को अपना बच्चा प्यारा ही लगेगा, ऐसा भी हो सकता है. एक कलात्मक कृति के तौर पर यह नाटक मूल्यहीन है ऐसे निर्णय पर मैं नहीं आ सका. मेरे कई नाटकों में से यह नाटक तकनीक कला और वास्तविकता के आधार पर आलोचकों की कसौटी पर पचास साल के बाद भी खरा उतरेगा तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा.

पिछले तीन सालों से मेरी यह कोशिश रही है कि आपको शिकायत का कोई मौका न दूं. आज भी, जैसा आपने बताया है वैसा करूंगा. पर बापू- आप क्षमा करें, तो बताऊं. अगर इस बात में आपसे मैं सहमत हूं ऐसा लिखूं तो मैं कायरता और चापलूसी की निम्न कोटि पर पहुंच गया ऐसा मुझे लगेगा. अपने जीवन के विश्वास को पाऊंगा और साहित्य की एक लाइन भी लिखने जितना आत्मसम्मान मुझमें नहीं बचेगा.

एक ‘ना’ मांग लूं आपसे? मैंने ऊपर जो लिखा है, वह मैं फिलहाल तो कर लूंगा. (पर) जब तक कि मैं दुनिया को अपना दृष्टिबिंदु (जेल में होने की वजह से) नहीं कह सकता तब तक आप भी अपनी अंतिम राय प्रकट न करें, ऐसा नहीं हो सकता? मैं बदनामी से नहीं डरता. और आपकी विपरीत राय से किताब को कोई नुकसान भी नहीं होने वाला. पर इसलिए कह रहा हूं कि आपके प्रति मेरा पूज्यभाव पूर्णत खरा नहीं, ऐसी गलत धारणा लोगों में न फैले.

हम छूटेंगे तब इस बारे में खुल कर कहने का अवसर मुझे अवश्य दीजिएगा. मैं इतनी आशा रखता हूं कि मुझे पूरा सुनने के बाद, साहित्य के स्वातंत्र्य की मेरी भावना से आप मुझे भ्रष्ट तो नहीं ही होने देंगे.

यह चिट्ठी पढ़ने के बाद भी कोई अंतरिम कदम आप उठाना चाहें तो आपकी आज्ञा सर-आंखों पर.

चिट्ठी लम्बी तो हो गयी, पर बीच में रुकने पर मेरा छुटकारा नहीं होता. क्षमा करना.

के.एम. मुनशी

(जनवरी 2016)