पत्र इंटेलेक्चुअल भैया के नाम परम्परा जीजी का

ललित-पत्र

–  विद्यानिवास मिश्र

सलोनी पूनो, अनाम गांव

इंटेलेक्चुअल भैया,

राखी का दिन बीत गया. तुम्हें राखी बंधवाने की फुरसत न मिली. अच्छा ही किया, राह पर आजकल बड़ी रपटन है. जब से नये-नये गांवरक्षक बांध बने हैं, शहर से गांव-गांव को जोड़नेवाली पुलियाविहीन सड़कें बनी हैं, तब से बाढ़ हर साल और बड़े नाटकीय ढंग से इस पुराने डीह से टकराने लगी है. गांव के पश्चिम की टौरिया, जहां से चांद जरा पास दिखता था, नदी की ‘आंकी-बांकी रेखा’ हर सांझ सिंदूर से भर उठती थी, अब पच्छिम से कटने लगी है. पूरब से चढ़ने का रास्ता तो पहले से ही विषम था, पच्छिम वाली राह ही कम ढालू थी, सो उस टौरिये पर अब कभी-कभी ही गीत गूंजते हैं, कभी-कभी ही दीया जलता है, कभी-कभी ही कड़ाही चढ़ती है और धुआं टौरिया की ऊंचाई बढ़ा देता है. मैं सांझ की गयी-गयी, अभी-अभी वहीं से लौटी हूं, चांद जब सिर से ऊपर बोझ बन गया, तब उतर आयी. बादल नहीं थे, शायद इसीलिए चांद कुछ अजनबी-सा लगता था. तुम मेरे चंदामल भैया, तुम भी क्या इस चंदा की तरह अजनबी होना चाहते हो?

तुम नहीं आये, इसका दुख नहीं है. यह तो कुछ सालों से देख रही हूं कि राखी तुम ऐसे बंधवाते हो जैसे कि वह गया के पंडों का बंधन-सूत्र हो दंड वसूलने के लिए. पर परसाल भैयादूज पर तुम अप्रत्याशित रूप से सोच्छ्वास तिलक कराने पहुंच गये, उस दिन तुम्हारा भावोच्छल कंठ इस दुलारी बहन से असीस-पर-असीस मांग रहा था, उससे एक दुराशा जगी कि तुम्हारा भायप लौट आया. दुख इसी का है कि वह लौट क्यों आया. तुम बहन के स्नेहाशीष का कवच चाहते थे, क्योंकि तुम्हारे शस्त्र कुंठित हो गये थे. तुम आत्मविश्वास की पगडंडी पर चढ़ते-चढ़ते उस कगार पर पहुंच गये थे, जहां पांव रखने तक की जगह नहीं रह गयी थी. तब तुम लौटे थे हारे-थके, ‘भय को दिग्विजय’ का रूप देने का संकल्प लिये. मैं तुम्हारी कांता होती तो तुम्हें लौटा देती, पर मैं ठहरी बहन, मैं भीग गयी तुम्हारे आर्द्र स्वर से, मैंने तुम्हें तिलक किया. तुम चले गये. तब से इस पूनो की बाट जोह रही थी, तुम राखी बंधवाने उसी भीने-भाव से आओगे. पर तुम नहीं आये. तुम्हारी उपेक्षा सह्य थी, तुम पीछे लौटकर बहन के द्वार के बंदनवार नहीं देख सकते हो, यह भी सहर्ष स्वीकार है, पर तुमने यह क्या किया? अरसे के बाद बहन को उसके औपचारिक अनुष्ठान के लिए क्यों विवश किया, क्यों अनुष्ठान का नया अंकुर अपनी क्षण-छलकित भावुकता से सींच-सींचकर रोप गये.

मैंने सुना है, तुम मानसिक क्लेश में हो. आधुनिकता को स्वीकारने की तुम्हें ललक है, पर तुम्हारे मन में चोर है कि कहीं वही तुम्हें न नकार दे, क्योंकि तुम्हारी जीजी परम्परा है. तुम शपथ खाने के लिए तैयार हो कि मुझे परम्परा से कुछ लेना-देना नहीं, मैं जड़हीन हूं. पर डर तुम्हें घेरे हुए है कि आधुनिकता कहीं ठुकरा न दे. भैया, सच कहती हूं कि मेरी मंगल कामना तुम्हारे स्नेह की प्रत्याशा से नहीं है, मेरा स्नेह तुम्हारे पथ का कंटक नहीं बनना चाहता. वह तुम्हारी पगधूलि सींचना चाहता है ताकि तुम्हारी पीठ पर धूल न लगे. तुम्हारा भय अकारण है. आधुनिकता तुम्हारे आगे नहीं है, वह तुम्हारी बगल में है, पर तुम आगे देख रहे हो. दायें-बायें तुम देखना नहीं चाहते. मेरे भैया, आधुनिकता दायें-बायें का अपरिहार्य द्वैध है. वह द्विभक्त प्रतिभा है, वह श्रीहर्ष पंडित के शब्दों में ‘द्विकालबद्ध चिकुर-पाश’ है.

आधुनिकता की जिस पद्मिनी के लिए तुम उत्तम हो उसकी तस्वीर भर तुमने देखी है, वह भी सपनों में या उसका वर्णन भर सुना है हीरामन सुए के मुंह से. पर वह पद्मिनी मेरी हमजोली है, मैं उसे जानती हूं. उसे मज़ा आता है तुम्हें भटकाने में, खिझाने में और सिझाने में. जरा अल्हड़ है, पर वैसे पेंच नहीं रखती. तुम जिस चमक-दमक के पीछे भटक जाते हो, वह आधुनिकता की बिज्जु-छटा नहीं है, वह है उसकी आतशी शीशे से फेंकी गयी दहकती छाया. तुम जिस सौरभ पर प्राण देते हो, वह उसके जूड़े के फूलों का नहीं है, वह तो उसकी अधबड़ी सैरंध्री के बासी फूलों वाली हथेली का है. तुम जिसे नूपुरों की कल-कल मानकर उस ध्वनि की लहरों में खो जाते हो, वह तो उसकी पाली सुनहली मछलियों का कलह-कोलाहल है. भैया, काश तुम मेरा विश्वास करते; मुझसे संकोचवश सलाह न करते, न सही, तटस्थ-भाव से ही कभी चर्चा करते तो तुम्हें तो उस शरारती लड़की का हुलिया बतला देती. यह भी तुम्हें बतला दूं कि वह तुम्हारी हो चुकी है. पर हां, तुम उसके नहीं हो. तुम होगे भी कैसे, तुम जब अपने ही नहीं रहे.

जानती हूं, तुम्हें यह सीधी-सादी भाषा पसंद नहीं है. किस्सागोई से तुम्हें चिढ़ होने लगी है (पहले तो इन किस्सों के बिना तुम्हें नींद नहीं आती थी) और अब तुम शब्दों की छटपटाहट देखकर खुश होते हो, पर मैं तुम्हारी मुंहबोली जीजी हूं, माफ कर देना. न यह समझना कि तुम्हारे ऊपर कोई कृपा कर रही हूं, न यह कि तुम्हारा मखौल उड़ा रही हूं. मेरे तुम बीरन हो, तुम्हारे ऊपर मुझे अभिमान है, तुम्हारी जय की आकांक्षा मैं अपने स्वार्थवश करती हूं, तुम्हारी संतान वृद्धि होगी तो मुझे नेग-न्योछावर मिलेगा, मैं भर आंगन नाचूंगी. मैं इतनी ओछी नहीं हूं कि तुम जिस अधनीली रोशनी में नहाये बैठे हो, उससे रश्क करूं. मैं इतनी ढीठ भी नहीं रही कि तुम्हारे रोशन कमरे के बरामदे में आये हुए संधिल प्रकाश में हिस्सा मांगूं. मैं इतनी दम्भी नहीं हूं कि तुम्हें अपने आशीष की सींक पर दूर सेतु पार रातोरात पहुंचा दूं. मैं अपनी सीमा जानती हूं, वह सीमा है तुम्हारे स्नेह का उन्मेष. उस स्नेह की परिधि के बाहर मेरी लौ नहीं पहुंचती. इसलिए भैया, नाराज़ न होना, यह तुम्हारी दुखती रग मैं नहीं छू रही हूं. यह अपनी ही रग छू रही हूं. यह भटकाव तुम्हारा नहीं है, मेरा है. इंटेलेक्चुअल, तुम्हें मैंने कहा अपने को कुरेदने के लिए. सारी ज़िंदगी मैंने शुभ्रता की आराधना की, शुभ्रता का परिधान पहना, शुभ्रता के लिए अनुष्ठान किये. मेरा भैया, शुभ्र वर्चस से दीप्त बने, प्रखर विवेक से निखरे और मेरे पालतू हंस की शुभ्रता को लजाये.
तुम वैसे ही बन पाये, इंटेलेक्चुअल हो गये, यह मेरा दोष है. मेरी बात का अब तो
बुरा न मानोगे?

भैया, तुमने कैसे समझा कि आधुनिकता केवल बिजली के लट्टुओं से सजी बंदनवार के नीचे ही प्रवेश कर सकती है? तुमने यह कैसे मान लिया कि वह केवल मिल के भोंपू की पुकार पर ही आंखें खोल सकती है? तुमने क्यों यह भ्रम पाल रखा है कि वह हाथ में सैंडिल उठाकर कीच-कांदों में बचा-बचाकर चल ही नहीं सकती? क्या अब तक तुम यांत्रिकता और आधुनिकता को एक ही जान रहो हो? तुमने अब अपनी सहजता इसीलिए न खो दी कि आधुनिकता की भूमिका अदा करनेवाली यांत्रिकता को ही अपना दिल दे डाला. तुम इसीलिए न हीनता के शिकार हुए कि प्रकाश की जादूगरी से आलोकित चेहरे को असली चेहरा मान बैठे. तुम क्षमाप्रार्थी बने, क्योंकि तुम्हें लगा, यही शिष्टता की कुहनियों के आघात का प्रतिकार करने का परम साधन है. मैंने सुना है कि तुम, राह चलते हो दूसरे आदमी परस्पर टकराते हैं तब भी आदतन कह पड़ते हो, ‘क्षमा करें’ (एक्सक्यूज मी!) तुम प्रकाश के इजारेदारों से क्यों इतने त्रस्त हो? प्रकाश उत्पन्न नहीं होता भैया, अभिव्यक्त होता है और दूसरों को जितना प्रकाशित करता है, उतना ही अपने को. विकीर्ण प्रकाश के तुम अभ्यस्त हो, इसीलिए तुम दिन को प्रकाश का विद्रूप मानते हो. मुझसे चूड़ीवाली  उस दिन हंस-हंसकर कह रही थी कि बबुआजी फूटी चूड़ियों, सिरकटी मूर्तियों और लंगड़ी कुर्सियों से घर सजाने में लगे हैं. मैंने उसे डांटा तो बोली कि बबुआजी होनी-अनहोनी की जाने कैसी-कैसी बातें कर रहे थे. मैं समझ गयी, तुम अस्तित्व का देवता जगा रहे हो और मैं भाव के पीछे घुली जा रही हूं. पर भैया, यह विघटन की विवशता क्यों?

मुझे ही तुम देखो, लचती जा रही हूं पर टूट नहीं रही हूं. उस पुरानी युवती उषा को देखो, कहां टूट रही है. उस सुस्त-अधसोयी नदी को देखो, कहां टूट रही है बंधकर भी, देखो फूटे बिना रह नहीं पाती. पर तुम टूटना-ही-टूटना देख रहे हो. शिल्पी अपनी मूर्ति तोड़ रहा है, कवि अपने छंद तोड़ रहा है, दार्शनिक अपनी स्थापनाएं तोड़ रहा है, वैज्ञानिक पदार्थ और उसके परमाणु तोड़ रहा है और तुम भैया, इन सबके साथ अपने को तोड़ रहे हो. यह टूटन मुझसे नहीं देखी जाती. मैंने जादू की, रेशम की लच्छी का गोला तुम्हारी जेब में चुपके-से डाल दिया था, वह उस उद्देश्य से कि तुम समस्त वसुधा को उस रेशम से ओत-प्रोत कर सको. तुमसे अच्छा तो मेरा अनाड़ी भैया बखना दर्जी था जो अपने प्रभु को ललकारता था- साईं तू तोड़ता जा, मैं जोड़ता जाऊंगा. देखना है कितना तुम तोड़ते हो, कितना मैं जोड़ता हूं.

भैया, तोड़ने का खिलवाड़ क्यों करते हो? क्या जोड़ने के लिए संसार में कुछ रह नहीं गया? मैं नहीं कहती कि राह की ठीकरी न हटाओ, पर एक ठीकरी को फोड़ने बैठोगे तो राह कैसे चलेगी? मैं इतनी भिक्षा ज़रूर मांगती हूं कि मुझसे अपने को बराबर विच्छिन्न करने की जो दम-भर कोशिश कर रहे हो, उसमें मैं उलझे कांटे की तरह तुम्हें सालती हूंगी, सो तुम एक बार में मुझे खंडित करो और भूल जाओ, पर क्षण-क्षण मेरे कारण चुभन के शिकार न बनो, तुम न टूटो.

घर में इस साल बड़ी सीलन हो गयी है, दीमक (डिग्रीधारी दीमक) पोथी-की पोथी चाट गये, बस इनी-गिनी किताबें बच रही हैं, तुम्हारी अंग्रेज़ी वाली प्राइमर साबुत बची है, तुम्हें तो याद नहीं होगा, पर पैसे चुराकर मैंने तुम्हारे लिए प्राइमर खरीदी थी. तुम ए-बी-सी तक जाते-जाते कहने लगे थे कि ‘जीजी, तुम जानती हो- आर-ए-टी रैट, रैट माने क्या होता है, हा-हा-हा… तुम नहीं बतला सकीं.’ रामचरितमानस के बड़े छापेवाली प्रति का सिर्फ बालकांड बच रहा है. हां, किस्सा तोता-मैना जाने कैसे बच गया?… पर जाने दो, तुम्हारे लिए आकर्षण की चीज़ बस एक रह गयी है, द्राक्षासव की ओट में भभकायी हुई अंगूरी (तांत्रिक परदादा की कोठरी ढही तो दीवार में छिपाकर रखी छह बोतलें साबुत मिलीं). शायद यह अंगूरी ही तुम्हारे लिए कारणवारि बन जाये. मैं मिलूं, न मिलूं तुम जिस भंडारघर में जाकर आंखमिचौनी खेलते समय लुकते थे, वहां दक्खिन-पश्चिम कोने में उसे गाड़कर रखा है, कौन जाने तुम अपनी दीदी का गम उसी में गलत कर पाओ. हां, मेरे ज्ञान-ग्रंथिल भाई, कहीं आडिपस ग्रंथि के तो शिकार नहीं हो गये. तुम्हें बतला दूं, मैं अकेली असहाय नहीं हूं, ‘सबदों’ के ‘सन्न महल’ में सूली के ऊपर मेरे वे रहते हैं. उनमें लीन हो-होकर ही नया जन्म धारण करती रहती हूं. सो भैया, आश्वस्त होओ, अविभक्त होओ, इति.

तुम्हारी निराकांक्ष ‘जीजी’ परम्परा

(जनवरी 2016)

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