चिट्ठी नाम की ‘चीज़’ हमारे हाथों से फिसलती जा रही है- ठीक वैसे ही जैसे रेत हाथों की उंगलियों से फिसल जाती है. पता ही नहीं चलता कब मुट्ठी खाली हो जाती है. संचार-क्रांति के इस युग में चिट्ठियां बीते…
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फागुन की धूप सरीखे धर्मवीर इलाहाबादी
♦ पुष्पा भारती > होली शब्द के उच्चारण मात्र से मन बचपन की यादों से जुड़ जाता है तब घर-घर में होली जलाई जाती, ढेर सारे पकवान बनते. सालभर की दुश्मनियां होली में होम करके दूसरे दिन सुबह से सारे…
दिसंबर 2008
शब्द-यात्रा ‘कुर्बान’ से बलिदान तक आनंद गहलोत पहली सीढ़ी एक अकेली एक चेतना हरीश भादानी आवरण-कथा अंधे-अंधेरे समय में नैतिक प्रतिज्ञाओं को बचाना है नंद चतुर्वेदी सज्जनों का मौन गज्यादा खतरनाक है न्यायमूर्ति चंद्रशेखर धर्माधिकारी उन्मादी नहीं जानते वे क्या कर…