– रमेश थानवी
जयपुर, 22 मई 2014
प्रिय मोना राहुल बर्मन,
लो, वादे के अनुसार पहला पत्र. देर तो हुई है. मगर यह पत्र अब तुरंत पत्र के रूप में. Just instant. हाथों हाथ पहुंचाने के जाब्ते के साथ.
पत्राचार ज़रूरी है मोना. यह एक सांस्कृतिक दुर्घटना है कि पत्र-लेखन अब हमारे जीवन का हिस्सा नहीं है. पत्र एक रचनात्मक विधा है. साहित्य-सृजन की विधा. वैसे ही जैसे कविता, कहानी, उपन्यास आदि. पत्र हमारी नितांत निजी अभिव्यक्ति का माध्यम है. मन की बात कहने का माध्यम. बात जो केवल दो लोगों के बीच होती है. एक दूसरे से सीधे संवाद का माध्यम. आत्मीय संवाद का माध्यम. आत्मीयता में मन के अंतस्तल में छिपा सत्य व्यक्त होता है. यही कारण है कि पत्र सदा प्रामाणिक होते हैं. वहां कोई छल नहीं होता. शास्त्र कहते हैं कि छल में लिपटा हुआ सत्य, सत्य ही नहीं होता है. तो फिर हम ऐसे भी समझ सकते हैं कि पत्र अपने ही सत्य को उद्घाटित करने और पा लेने का सबसे प्रबल एवं सार्थक उपक्रम है.
पत्र की महिमा के बारे में कभी और बात करेंगे. आज तो इतना ही कि पत्र लिखना बहुत ज़रूरी है. कोई पत्र आ जाये तो उसका उत्तर देना बहुत ज़रूरी है. उत्तर न देना एक खास तरह की निर्ममता होती है. यह अपराध है. मुझसे होता है ऐसा अपराध- कई बार और फिर मैं उसकी ग्लानि से घिरा घूमता रहता हूं. यह एक बुरी आदत है.
तुम्हारी जानकारी के लिए लिख रहा हूं कि महात्मा गांधी के जीवन-काल में उनको मिला एक भी पत्र निरुत्तरित नहीं रहा. 30 जनवरी 1948 की शाम 5.17 पर उनको गोली मारी गयी थी मगर उससे पहले वे उस दिन मिले सारे पत्रों का उत्तर लिख चुके थे.
यह तो एक सामाजिक व्यवहार या दायित्व की बात हुई. सच तो यह है कि पत्र लेखन हमारे लिए, अपने लिए ही अत्यंत उपयोगी है. इससे हमारी भाषा सुधरती है. अपनी बात कहनी आती है. मन की बात. इसका अर्थ यह भी हुआ कि हम मन खोलना सीखते हैं. सच बोलना सीखते हैं. एक पत्र लिखने के बाद हम मुक्ति का अहसास
करते हैं. इस मुक्ति में आनंद है. आह्लाद है. देखो, ज़रा लिखकर देखो. सही भाषा का प्रयोग तुम्हारी पहली चुनौती होगी.
कोशिश करो. अत्यंत आत्मीय भावनाओं को व्यक्त करने की कोशिश करो. पत्र की प्रतीक्षा करूंगा.
सस्नेह
जून 8, 2014
मोना,
पिछले पत्र में मैंने पत्र की महत्ता पर थोड़ी-सी चर्चा कर के बात बीच में छोड़ दी थी. कारण था. मैं पत्र के सम्पूर्ण शास्त्र की विशद विवेचना कर लेना चाहता था और वह उस पत्र में यूं प्रसंगवश नहीं की जा सकती थी. सम्भवतया इसमें भी नहीं कर पाऊंगा.
उस पत्र में, मैंने इतना तो लिखा ही था- पत्र अपनी बात बोलने का और मन खोलने का एक सशक्त माध्यम है. यह भी लिखा था कि पत्र हमारी भाषा सुधारने का एक बड़ा माध्यम है. भाषा सुधारते हुए हम एक शैली भी विकसित करते हैं. मगर उससे आगे की बात यह है कि पत्र-लेखन एक स्वतंत्र सृजनात्मक विधा है. साहित्यिक विधा. ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ आज भी भारतीय इतिहास की एक अत्यंत प्रामाणिक किताब है. लेखक थे जवाहरलाल नेहरू. जेल से अपनी बेटी इंदिरा गांधी के नाम लिखे पत्रों का यह संकलन है. इसी प्रकार की दूसरी भी कई किताबें हैं जो साहित्यिक पुस्तकों की गिनती में आती हैं. क्या कारण है?
कारण यह है कि पत्र में हम बोलते हैं. हमारा मन बोलता है और वह बोलता मन कागज़ पर उतरते हुए हमारे सामने आ खड़ा होता है. तब हम अपने आपसे रूबरू होते हैं. शीशे में तो हम शरीर को शीशे के सामने खड़ा पाते हैं मगर पत्र में हम अपने मन को सामने खड़ा पाते हैं. यही कारण है कि पत्र एक नितांत निजी विधा है. पर्सनल.
विचार की बात यह है कि पत्र के निजी होने की सार्थकता ही दूसरे तक पहुंचने में है. वह किसी और को सम्बोधित है यही उसकी निजता है. आज वह एक को लिखा गया है तो कल वह कई लोगों तक पहुंचेगा. सार्वजनीन हो जायेगा युनिवर्सल हो जायेगा. क्लासिकल हो जायेगा. शास्त्राrय- मतलब काल की सीमाएं लांघता हुआ सार्वकालिक हो जायेगा. यही पत्र की महत्ता है.
तो पत्र-लेखन हमको विचार करना सिखाता है. आज की सभ्यता की सबसे बड़ी दुर्घटना यह है विश्व के अधिसंख्य लोग विचार-विहीन हो गये हैं. विचार और विवेक का रिश्ता सगे भाई सरीखा रिश्ता है. यदि कोई विचार विहीन है तो विवेक विहीन भी. अब अगर हम सभी पत्र लेखन को अभ्यास के रूप में अपना लें तो इस भीषण दुर्घटना से बच सकते हैं. अपने घर बैठे ही विचार की पाठशाला के विद्यार्थी बन सकते हैं.
पत्र-लेखन हमारी भाषा के साथ मन को भी मांजता है. हमारा मन जब पन्ने पर उतरकर हमारे सामने आ खड़ा होता है तो हम उससे पूछते हैं- ‘क्यों रे तू ऐसा है?’ फिर हम उससे कहते हैं- ‘मैं तो ऐसा नहीं तो फिर तू भला वैसा कैसे?’ अब इस ऐसा वैसा के बीच मन की मैल उतरनी शुरू होती है.
पत्र-लेखन हमको तर्क करना सिखाता है. तर्क के साथ अपनी बात रखना सिखाता है. बिखरने से बचाने का काम तर्क करता है. तो पत्र हमें सिमटना सिखाता है.
पत्र लेखन का मेरा महिमा-शास्त्र अभी पूरा नहीं हुआ मगर आज
इतना ही!
राहुल और तुम्हें मेरा ढेर सारा प्यार एवं मंगल-आशीष.
सस्नेह
पुनश्च – पत्र वैसे भी कभी पूरा नहीं होता. पत्र एक संवाद है. सतत संवाद. वैसे तुम जानती हो बेटी कि पत्र इधर-उधर के समाचार जानने/भेजने का एक माध्यम है. लेकिन समाचारों के अलावा पत्र का कथ्य सदा विस्तृत होता रहता है, अपनी विविधता के साथ. कथ्य में वैविध्य भी होता है और उसकी भाषा में लालित्य भी. तो पत्र एक ललित रचना है.
( जनवरी 2016 )