अनिवार्यता में उपजी रचना ही अच्छी होती है

(रिल्के का पत्र फ्रांज़ ज़ेवियर काप्पुस के नाम) पेरिस

17 फरवरी, 1903

प्रियवर,

तुम्हारा पत्र कुछ दिन पहले मिला. मुझ पर इतना भरोसा रखा, कृतज्ञ हूं. इतना भर ही है जो मैं कर सकता हूं. तुम्हारी कविताओं पर बातचीत नहीं कर सकता, ऐसी कोई  चेष्टा मेरे लिए बाहरी होगी. मेरे विचार में समीक्षाकर्म किसी कलासृजन को छूने तक की क्षमता नहीं रखता; उसके बारे में भ्रांतियों का प्रसार ज़रूर करता है. वस्तुएं इतनी स्थूल या कथनीय नहीं होतीं जितनी लोग समझते हैं. अधिकांश अनुभव अकथनीय होते हैं. एक ऐसे अंतरिक्ष (स्पेस) में घटते हैं जहां शब्द का प्रवेश ही नहीं. दूसरी सब अकथनीय चीज़ों में से कलाकृतियां सर्वाधिक अकथनीय हैं. उनका रहस्यपूर्ण अस्तित्व हमारे छोटे-से नश्वर जीवन से अधिक स्थायी है.

भूमिका की तरह कहे गये इन शब्दों के बाद मैं तुम्हारी कविताओं पर आता हूं. कहना चाहता हूं कि तुम्हारी कविताओं की अपनी कोई निजी शैली नहीं है, हालांकि उनमें ऐसी खामोश और प्रच्छन्न शुरुआतों के निहायत निजी सूत्र जहां-तहां बिखरे पड़े हैं. यह बात सबसे ज़्यादा तुम्हारी अंतिम कविता ‘माय सोल’ पर लागू होती है. वहां तुम्हारा कुछ-नितांत अपना-शब्द और लय में ढलने को तत्पर लग रहा है. दूसरी, बहुत प्यारी कविता, ‘टू लियोपार्डो’ है जिसमें उस बड़ी निस्संग मूर्ति से एक तरह का एकत्व उभरता दीखता है. इस विशेषता के बावजूद, यह सब कविताएं अपने आप में कुछ नहीं लगतीं, तनिक भी आत्मसम्पन्न नहीं; आखिरी भी नहीं और लियोपार्डो वाली भी नहीं (जिसका मैंने अभी जिक्र किया), बल्कि तुम्हारे अपने पत्र ने जो इन कविताओं के साथ आया, मुझे इन कविताओं के दोषों के बारे में ज़्यादा परिचित कराया. कविताएं पढ़ते समय मैं उन बातों को महसूस कर सका, चाहे उतने सटीक शब्द दे पाना मेरे लिए कठिन है.

तुमने पूछा है कि क्या तुम्हारी कविताएं अच्छी कही जा सकती हैं? इस वक्त यह प्रश्न तुम मुझसे पूछ रहे हो. ऐसा ही कुछ इससे पहले तुमने औरों से भी पूछा होगा. पत्रिकाओं में भी कविताएं भेजी होंगी. दूसरों की कविताओं से इनकी तुलना भी की होगी और किन्हीं सम्पादकों द्वारा लौटा दिये जाने पर तुम क्षुब्ध भी हुए होगे. अब (जबकि तुमने मुझसे लिखा है कि तुम्हें मेरी राय की ज़रूरत है) मैं तुमसे सच में आग्रह करना चाहता हूं कि तुम ऐसा करना बंद करो, क्योंकि तुम बाहर की ओर उन्मुख हो रहे हो, और यही वह कर्म है जो तुम्हें इस काल में नहीं करना चाहिए. कोई भी व्यक्ति न तो तुम्हें सिखा सकता है, न तुम्हारी मदद कर सकता है- कोई भी नहीं. एक ही काम है जो तुम्हें करना चाहिए- अपने में लौट जाओ. उस कारण (केंद्र) को ढूंढ़ो जो तुम्हें लिखने का आदेश देता है. जांचने की कोशिश करो कि क्या इस बाध्यता ने अपनी जड़ें तुम्हारे भीतर फैला ली हैं? अपने से पूछो कि यदि तुम्हें लिखने की मनाही हो जाये तो क्या तुम जीवित रहना चाहोगे?

यह सब बातें तुम अपने से पूछो- रात के निचाट एकांत में. पूछो कि क्या मुझे लिखना चाहिए. उत्तर के लिए अपने को खखोलो और अगर उसका उत्तर सहमति में आये; इस गम्भीरता ऊहापोह के अंत में साफ-सुथरी समर्थ ‘हां’ सुनने को मिले तब तुम्हें अपने जीवन का निर्माण इस अनिवार्यता के अनुसार करना चाहिए. अपने जीवन के छेटे से छोटे और तुच्छ से तुच्छ क्षण में भी इसी अभीप्सा का सूचक और साक्षी बनकर रहना चाहिए. तब तुम प्रकृति के निकट से निकटतम जाओ और उसका इस तरह बयान करो जैसे कि वह अब तक कोरी और अछूती है. वह सब कहने की कोशिश करो जिसे तुम वहां देख रहो हो, महसूस कर रहे हो, चाह रहे हो, खोने जा रहे हो.

प्रेम-कविताएं मत लिखो, उन सब कलारूपों से बचो जो सामान्य और सरल हैं. उन्हें साध पाना कठिनतम काम है. वह सब ‘व्यक्तिगत’ विवरण जिनमें श्रेष्ठ और भव्य परम्पराएं बहुलता से समायी हों, बहुत ऊंची और परिपक्व दर्जे की रचना-क्षमता मांगती है; अतः अपने को इन सामान्य विषय-वस्तुओं से बचाओ. उन चीज़ों के बारे में लिखो जिन्हें तुम्हारा रोज़ का जीवन हर समय प्रस्तुत करने को तत्पर रहता है. अपने दुःखों, आकांक्षाओं का, उन विचारों का जो हर समय तुम्हारे मन में से होकर गुज़रते हैं; सौंदर्य के प्रति आसक्त अपने विश्वासों का वर्णन करो. यह सब लिखो- एक हार्दिक, खामोश विनीत निष्ठा के साथ.

जब भी तुम्हें अपने को व्यक्त करना हो, अपने आसपास की चीज़ों पर ध्यान दो-सपनों में देखी छवियां, अपने को स्मरण रह गयी वस्तुएं. अगर अपना रोज़ का जीवन दरिद्र लगे तो जीवन को मत कोसो, अपने को कोसो. स्वीकारो कि तुम उतने अच्छे कवि नहीं हो पाये हो कि अपनी सिद्धियों-समृद्धियों का आवाहन कर सको. वस्तुतः रचयिता के लिए न तो दरिद्रता सच है न दरिद्र; न ही कोई स्थान निस्संग. अगर तुम्हें जेल की पथरीली दीवारों के अंदर रख दिया जाये जोकि एकदम बहरी होती हैं और संसार की एक फुसफुसाहट तक को भीतर नहीं आने देतीं (तब भी तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा) तुम्हारे पास अपना बचपन तो होगा… स्मृतियों की एक अमोल मंजूषा? अपना चित्त उस ओर ले जाओ. दूरगामी अतीत के रसातल में डूबी अपनी भावनाओं को उभारो! तुम्हारा व्यक्तित्व क्षमतावान बनेगा. एकांत विस्तृत होकर एक ऐसा नीड़ बनायेगा, जहां तुम मंद रोशनी में भी रह सकोगे; जहां दूसरों का पैदा किया शोर दूरी से गुज़रता निकल जायेगा. और अगर इस अंतर्मुखता से, अपने भीतर के संसार में डूब जाने पर कविताएं स्वतः अवतरित होती हों तो तुम्हें कभी किसी से पूछना नहीं पड़ेगा कि वे अच्छी हैं या बुरी; न ही तुम्हें पत्रिकाओं के पीछे भागते रहना पड़ेगा; क्योंकि यह तुम्हारा नैसर्गिक खज़ाना होगा, तुम्हारा अपना अंतरंग अंश, तुम्हारी अपनी ही आवाज़.

एक रचना तभी अच्छी होती है यदि अनिवार्यता में से उपजती है, अतः बंधुवर, मैं तुम्हें इस बात के अतिरिक्त और कोई नसीहत नहीं दे सकता कि अपने ही भीतर जाओ और जांचो कि वह जगह कितनी गहरी है जहां से तुम्हारी जीवनी शक्ति ऊर्जस्वित होती है. उसी उद्गम पर तुम्हें उत्तर मिल पायेगा कि तुम्हें सृजन करना चाहिए या नहीं. उत्तर जो भी मिले, उसे उसी रूप में स्वीकार करो, किसी तरह की व्याख्या किये बिना. शायद तुम खोज पाओ कि तुम एक सृजक हो या नहीं. हो, तो अपनी नियति को स्वीकारो, धारण करो, उसकी बोझिलताओं और भव्यताओं को वहन करो, बाहर से आये किसी प्रतिफल की अपेक्षा के बिना; क्योंकि सृजक अपने-आप में एक पूरा संसार है. उसे सब कुछ अपने भीतर से मिल सकना चाहिए और उस प्रकृति से जिसके प्रति उसका पूरा जीवन निष्ठाविनत है.

हो सकता है, अपने भीतर ऐसे अवगाहन के बाद शायद तुम कवि होना ही न चाहो (क्योंकि जैसा कि मैंने कहा है कि यदि किसी को लगे कि वह लिखे बिना रह सकता है, तो उसे लिखने का विचार त्याग देना चाहिए.) तब भी यह आत्मान्वेषण व्यर्थ नहीं जायेगा. तुम्हारे जीवन को यहीं से अपने रास्ते मिल जायेंगे, जो बेहतर, समृद्ध और विस्तृत होंगे.

और क्या निर्देश दे सकता हूं मैं! लग रहा है, मैं तुम्हें सब कुछ समुचित रूप से कह चुका हूं. अब मात्र इतना ही जोड़ना चाहूंगा कि मैं चाहता हूं तुम निष्ठा और खामोशी से विकसित होते रहो. इस दिशाबोध को बाहर की ओर उन्मुख होकर ध्वस्त मत करो. वह उत्तर जो तुम्हें केवल अपने एकांत में अपनी अंतरतम अनुभूतियों के समकक्ष खड़े रहकर मिल सकते हैं, उनको बाहर की अपेक्षाओं से जोड़ कर अपने को छितराओ मत.

तुम्हारी कविताएं वापस भेज रहा हूं. तुम्हारे दिये विश्वास और तुम्हारे प्रश्नों का आभारी हूं जिनके दबाव में अपने को ईमानदारी से खखोलते मैंने अपने भीतर के परायेपन को ज़्यादा आत्मीय और अपने को उन्नत ही बनाया है.

हार्दिकता से तुम्हारा

राइनैर मारिया रिल्के

(जनवरी 2016)

 

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