(उपेंद्रनाथ अश्क को अमृतलाल नागर का पत्र)
चौक, लखनऊ- 31-6-73
अश्क भाई,
पिछले डेढ़ माह से जितनी जल्दी-जल्दी हाई-ब्लड प्रेशर का शिकार हुआ, उस तरह यदि कुछ और पहले से होता तो सीना तानकर कहता कि दोषी मैं नहीं, मेरी बीमारी है. इस स्थिति में बस यही कह सकता हूं कि ऐ बाबा- ए अदम्य, मेरे बड़े भाई, मिलने पर मुझे दो जूते मारकर अपना क्रोध शांत कर लेना. अपने महाआलस्य और निकम्मेपन के इस लम्बे दौर का बयान क्या करूं, खुद अपने से ही नफरत-सी हो गयी है. आलस के दौर तो अक्सर आते रहते हैं, पर इतनी लम्बी अवधि तक कभी अल्प-प्राण नहीं रहा. भीतर वाला जानता है, मेरी यह दुर्दशा अस्थायी है. स्रोत पाने के लिए धरती फोड़ते-फोड़ते अब जो कंकड़ की सख्त चट निकल आयी है तो मन ने घबराकर सुस्ताने का बहाना साध रखा है. खैर, पौत्र के नाम की तरह मेरी सुगतिशीलता भी अदम्य है.
मुंह देखा न मानना, तुम्हारा खत मुझे सबसे अधिक प्यारा लगा. इसका एकमात्र कारण यही है कि मानस का हंस पर तुमसे पत्र पाने की आशा मैंने नहीं की थी. वह पत्र प्रकाशक को भेजने की इच्छा भी अब तक मेरे निकम्मेपन के कारण ही प्रतिफलित नहीं हुई. तुमसे भी अधिक चि. नीलाभ और दूधनाथ सिंह की प्रशंसा मुझे अपने लिए कीमती लगी. यह साबित करता है कि मेरी स्पिरिट गलत नहीं है. तुमने सही लिखा है कि राम माने कर्तव्य. यह कर्तव्यपरायणता ही मेरी राम-भक्ति है. मेरा राम बिल्कुल गैबी नहीं है, और जितना कुछ है भी उसे यथार्थ के धरातल पर लाकर उजागर में देखना चाहता हूं. यही तो मेरा संघर्ष है.
तुमने अपना उपन्यास लिखना छोड़कर ‘मानस का हंस’ पढ़ा और खास करके अपने सृजनात्मक अहम की प्रबलता के समय भी उसे पढ़कर केवल सराहा ही नहीं, बल्कि मुझे पत्र भी लिखा, यह तुम्हारी निश्छल उदार-प्रकृति का स्पष्ट प्रमाण है. राम करे तुम्हारी कर्मसिद्धियां और तुम्हारा यश दिनों-दिन बढ़े. भाभी जुलजुल बूढ़-सुहागन और तुम जुलजुल बूढ़ सुहागे हो. चि. बेटे, सौ. बहुओं और उनके आयुष्मान नन्हें-मुन्नों को हार्दिक शुभाशीष.
सदा तुम्हारा
अमृतलाल नागर
(जनवरी 2016)