मानवनिष्ठ भारतीयता के पक्ष में  –  दादा धर्माधिकारी

आवरणकथा

इस देश में राष्ट्रीयता के मार्ग में तीन रुकावटें हैं. ये तीन बटमार, राहजन हैं. पहला हैसप्रदाय, दूसरा हैजाति, और तीसरी भाषा. सप्रदाय का जनक, उसका आद्य प्रवर्तक इस देश का मुसलमान है. हिंदू ने उसकी नकल कर सप्रदायवाद इस देश में सिक्खों ने खड़ा किया. इसलिए राष्ट्र के जो टुकड़े हुए, वे किसी एक मुद्दे को लेकर नहीं हुए.

लोकतंत्र में भाषा का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है. भाषा को लेकर ही कितने झगड़े होते आये हैं. बंगभंग के प्रसंग पर कितना तहलका मचा! बंगाली भाषा बोलनेवालों के दो टुकड़े? फिर बंगाल एक हुआ. लेकिन फिर उसी बंगाल के साप्रदायिकता के आधार पर दो टुकड़े हुए. पंजाब के दो टुकड़े हुए. चण्डीगढ़ में सचिवालय के भी दो टुकड़े हुए हैं.

ईश्वर को मंदिर में बैठाया. मस्जिद में बैठाया. गुरुद्वारा और अगियारी में भी अलगअलग ईश्वर हैं. इन सब जगहों पर जो ईश्वर है वह कॉमन फैक्टरहो गया, ‘सामान्य तत्त्वहो गया. और गणित शास्त्र के अनुसार सामान्य तत्त्व कैंसल हो जाता  है. तो, बचे केवल मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, अगियारी, चर्च और उनके समर्थक, संरक्षक हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, पारसी, ईसाई. इसमें से राष्ट्रीयता का विकास होगा, यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है? यह अस्मिता नहीं है, व्यवच्छेदक अहंवाद है. यह मानवता की दृष्टि से नॉनकंडक्टरहै. इसमें मानवता का प्रवेश हो ही नहीं सकता. इसलिए सबसे पहले जातिवाद और सप्रदायवाद समाप्त होने चाहिए. लेकिन यह निराकरण डण्डे के जोर से नहीं होगा दबाव से, दमन से नहीं होगा. दमन से मुसलमान भयभीत हो जायेंगे. जो भयभीत होगा वह अपने जैसे ही डरे हुए दूसरे लोगों में जाकर रहने की कोशिश करेगा. भयग्रस्त मनुष्य में पुरुषार्थ टिक नहीं सकता. हिंदूमुसलमान दंगों में जो हिंसा होती है उस हिंसा की जड़ साप्रदायिक उन्माद में है, और साप्रदायिक उन्माद की जननी जाति संस्था है. जिस समाज को मैं त्रस्त और परेशान होकर छोड़ देता हूं, वह समाज नष्ट ही हो जाना चाहिए, ऐसी मेरी मनोवृत्ति बन जाती है. इसलिए इस देश में धर्मांतरित अस्पृश्य, दलित जितने उग्र सप्रदायवादी हैं उतने उग्र दूसरे देशों के धर्मांतरित लोग नहीं हैं. इस वास्तविकता की तरफ ध्यान दिया नहीं गया है. हमारी राष्ट्रीयता सोपाधिक है, निरुपाधिक नहीं. हिंदू राष्ट्रीयता, मुस्लिम राष्ट्रीयता, मराठी राष्ट्रीयता, गुजराती राष्ट्रीयता. खालिस राष्ट्रीयता है ही नहीं. इसलिए जैसे ईश्वर सामान्य तत्त्व होने से कैंसलहो गया, वैसे राष्ट्रीयता भी सब में सामान्य तत्त्व होने के कारण कैंसलहो जाती है.

भाषा मनुष्य की विशेषता नहीं है, वाणी है. वाणी ईश्वरप्रदत्त है. भाषा मनुष्य को सीखनी पड़ती है. मां कहना भी बच्चे को सीखना ही पड़ता है. मम्मी बोलना भी सीखना पड़ता है. मातृभाषा जैसी कोई चीज़ मेरे ध्यान में नहीं आती है. भाषा तो समाजनिर्माण करती है. भाषा लोगों को मिलाने का काम करती है. आज मातृभाषा का दुराग्रह बढ़ रहा है, उसके कारण तमिल और पंजाबी मिलेंगे तो आमनेसामने खड़े होंगे. आलिंगन या कुश्ती, और कुछ नहीं. विभिन्न भाषाभाषी जब नज़दीक आयेंगे तब राष्ट्र बनेगा. यह कार्य एक ज़माने में संस्कृत भाषा ने किया. संस्कृत पंडितों की भाषा थी. इस देश के भिन्न भाषी पंडितों को संस्कृत भाषा एक व्यासपीठ पर लायी. इसलिए वह देव वाणीहै. मेरी नहीं, तेरी नहीं; दोनों को निकट लानेवाली वह ईश्वर की वाणी है. यह कार्य संस्कृत के बाद इस देश में अंग्रेज़ी ने किया. हिंदी भाषा यह कार्य कर सकती थी लेकिन ऐसा नहीं हो सका. हम दक्षिण में गये मोटर में, तो लोग नाराज होकर आये. कहने लगे नम्बर प्लेट के नागरी आंकड़े हटा दो. दूसरे की गाड़ी का नुकसान हो, इसलिए हमने वैसा किया. वहां से हम उत्तर की ओर गये. फिर लोग आये. कहने लगे, रोमन आंकड़े हटाओ.

सामान्य नागरिक सतत डरा हुआ, दबा हुआ है. इसलिए यहां जनता है ही नहीं, लोगों का अभाव है. भीड़ यानी लोग नहीं. भीड़ की आत्मा तो होती ही नहीं. सिर होते हैं, ‘मेरुनहीं होता. भीड़ को छाती होती है, हृदय नहीं होता. भीड़ की इकट्ठा करने से आंदोलन होता है लेकिन ज़िम्मेवारी नहीं आती है. सरकार की भी आज यही स्थिति है; सत्ता है, शक्ति नहीं है, और ज़िम्मेवारी तो उससे भी कम है. नेताओं की भी यही स्थिति है. भारतवर्ष के इतिहास में गांधी ही एक ऐसा शख्स हुआ, जिसे लोगों के दरबार में भी कभी खुशामद करने की ज़रूरत नहीं पड़ी. इस परिस्थिति में हम राष्ट्र को बनाना चाहते हैं तो क्षुद्र अहंकार की अस्मिताएं जो देश में पनप रही हैं, उन पर रोक लगानी होगी. हम ज़मीन चाहते हैं, वहां का मनुष्य नहीं चाहते. जहां मनुष्य की चाह नहीं है या मनुष्य गौण हो जाता है और ज़मीन मुख्य हो जाती है वह साम्राज्यवाद है. वह सिकंदर का हो, किसी समुदाय का हो या राष्ट्र का हो, वह है साम्राज्यवाद या विस्तारवाद.

राष्ट्रीयता का मुख्य लक्षण केवल एकदूसरे के साथ रहने की तैयारी ही नहीं है, एकदूसरे के साथ रहने की इच्छा है. भारत में भिन्नभिन्न सप्रदाय एकदूसरे के पड़ोस में रहे, एकदूसरे के साथ नहीं रह सके. अब उसके लिए कुछ करना होगा.
एक तो, धर्मांतरण निषिद्ध माना जाना चाहिए. सरकार की यह शक्ति नहीं है, लोकशक्ति द्वारा यह होना चाहिए. सभी धर्म सच्चे होंगे और समान होंगे तब एक धर्म छोड़कर दूसरे धर्म में जाने की ज़रूरत क्यों पड़ेगी? इसलिए सप्रदायनिराकरण के लिए धर्मांतरण पर रोक लगनी चाहिए. और, धर्मांतरण बंद करना हो तो जाति नष्ट होनी चाहिए.

और एक काम करना होगा. आनेवाले सौदो सौ वर्षों तक भिन्न भाषा बोलनेवाले समाज, समुदाय एक साथ रह सकेंगे और एक ही माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी व्यवस्था करनी होगी. जीवन का विकास लोगों के परस्पर सम्पर्क में है. प्रगति यानी एकदूसरे की दिशा में प्रगति. इसीमें से ग्लोबल विलेजका निर्माण होगा. आज के इस यंत्रयुग में यह पूरा जगत् एक ग्लोबल विलेजमें परिणत होनेवाला है. समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों और राज्यशास्त्रियों का आज यह आदर्श है. उनकी दिव्य दृष्टि यह देख रही है.

प्रारम्भ के तौर पर हर प्रांत में कमसेकम एक विश्वनगर हो– ‘कॉस्मॉपालिटन सिटी’. मुम्बई शहर का स्वरूप पहले कुछ इस प्रकार का था. अब वह रहा नहीं. मुम्बई में पारसी लोगों का नेतृत्व था. पारसियों में एक बड़ा गुण है कि उनका अपना कोई सप्रदाय नहीं, उनकी अपनी कोई भाषा नहीं. पारसी शुद्ध भारतीय नागरिक है. गुजराती भाषा बोलता होगा, गुजरात में रहता भी होगा, लेकिन यह मेरी गुजराती भाषा है और महागुजरात बनना ही चाहिए, ऐसी बात वह कभी नहीं कहेगा. बड़ौदा, इंदौर, बंगलूर, हैदराबाद भी काफी हद तक विश्वनगर थे. हमनेकॉलेज के विद्यार्थियों ने, प्रोफेसरों ने, शिक्षकों ने, वाइन्स चान्सलरों, डॉक्टरों, वकीलों, आदि सुशिक्षित, सुसंस्कृत लोगों ने सच सोचसमझ कर, प्रयासपूर्वक उनका विध्वंस किया. लेकिन इस प्रकार के विश्वनगरों की अत्यंत आवश्यकता है. इन नगरों में शिक्षा का माध्यम अखिल भारतीय होना चाहिए. प्रांतों से, भिन्न भिन्न नगरों से, भिन्नभिन्न भाषा बोलनेवाले शिक्षार्थी वहां एकत्रित हो जायें. एक साथ रहें. सहजीवन में बहुत बड़ा जादू है.

दूसरी बात यह सुझाना चाहता हूं, कि हर भाषा का कुछ हिस्सा दूसरी भाषा के प्रांत में शामिल करने का आग्रह रखा जाये. बेलगांव महाराष्ट्र में आये इसकी अपेक्षा वह कर्नाटक में रहे, ऐसा आग्रह क्यों हो? वहां मराठी बोलनेवाले और कन्नड बोलनेवाला एकत्रित होने चाहिए. भाषायी अल्पसंख्यक कहींकहीं रहने ही वाले हैं. महाराष्ट्र में गुजराती अल्पसंख्यक, गुजरात में मराठी अल्पसंख्यक, बंगाल में असमी और असम में बंगाली अल्पसंख्यक. लेकिन मनुष्य पर मेरा बहुत विश्वास है, उसके लेबलपर विश्वास नहीं है. मनुष्य लेबलसे ऊपर उठ जाता है, यह मेरा अनुभव है. किसी ने कहा– ‘मानवता को फांसी की सजा सुनायी गयी है, लेकिन मनुष्य जीवंत रहेगा.’ मनुष्य मारा जा सकता है लेकिन वह पराजित नहीं किया जा सकता. मनुष्य मर्त्य है लेकिन अजेय है. उसकी मानवता का विकास होना चाहिए.

इस भारतवर्ष में ‘भारतनिष्ठ मानवता’ पनपती है तो भारत का नाश होगा. मानवनिष्ठ भारतीयता का विकास होगा तो भारत का उद्धार होगा. मानवनिष्ठ भारतीयता का अर्थ है- भारत में रहनेवाला मानव मुझे प्रिय है, उसके साथ मैं इस भारतवर्ष में रहना चाहता हूं. उसके साथ मैं रह सकूं, ऐसी स्थिति होना चाहिए. ऐसी मानवनिष्ठ भारतीयता का आकार और उसकी व्यापकता कन्याकुमारी से हिंदूकुश तक और द्वारिका से सदिया तक की होगी. जिस नागरिक को ऐसा प्रतीत होगा कि इस भूमि पर रहनेवाला हर मनुष्य मेरा कोई लगता है उसका अपना आकार कितना (बड़ा) होगा! एवरेस्ट से भी ज़्यादा ऊंचाई होगी उसकी! मनुष्य अभियान से कहेगा कि पचास-साठ करोड़ लोगों में से मैं एक हूं तब उसका अहंकार नहीं बढ़ेगा, उसकी आत्मा विशद होगी. इसे ‘लोकात्मा’ कहते हैं. इस लोकात्मा का आवाहन आज किया जाना चाहिए. आज ही करना होगा. आज का ही मुहूर्त है. सामान्य मनुष्य, जिसके पास शस्त्र नहीं, सत्ता नहीं, सम्पत्ति नहीं, लेकिन जिसके पास अंतःकरण का और बुद्धि का बल है, जिसके हृदय और बुद्धि, दोनों दुरुस्त हैं, ऐसे सामान्य मनुष्य को छोड़ और कोई त्राता अब है नहीं.

मई 2016

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