राष्ट्रवाद को लेकर दुनिया भर में चर्चाएं होती रही हैं. इसकी आवश्यकता और इसके खतरों को लेकर विद्वानों में इतिहास जितनी पुरानी बहस चलती रही है. इसी राष्ट्रवाद के चलते दुनिया ने दो विश्वयुद्धों की विभीषिका झेली है और इसी राष्ट्रवाद से प्रेरणा लेकर दुनिया भर में स्वतंत्रता और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए आंदोलन हुए हैं. हमारे अपने देश में आज़ादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे व्यक्तित्वों ने राष्ट्रवाद की सम्भावनाओं और इसकी सीमाओं पर बहस की है. मानवतावाद को सर्वोच्च मूल्य स्वीकार करने के बावजूद राष्ट्रपिता यह मानते थे कि राष्ट्रवाद में उद्धारक की सम्भावनाएं निहित हैं, जबकि कवींद्र रवींद्र का मानना था कि राष्ट्रवाद में आक्रामक सम्भावनाओं के खतरे कहीं ज़्यादा हैं. राष्ट्रवाद से जुड़े इन दो सिरों के बीच कहीं वह स्थिति है जो नागरिक के सोच और जीवन में राष्ट्रवाद की आवश्यकता को रेखांकित करती है. राष्ट्र के प्रति प्रेम, निष्ठा और श्रद्धा का भाव कतई गलत नहीं है, पर जब यह राष्ट्रवाद कुछ नारों तक सिमट कर रह जाता है और भारत जैसे बहुलतावादी देश में किसी एक विचार और संस्कृति की रक्षा के नाम पर कुछ थोपने की कोशिशें होती हैं तो उनपर संदेह होना स्वाभाविक है.
कुलपति उवाच
कर्मेसु कौशलम्
के.एम. मुनशी
अध्यक्षीय
मनुष्य सीमित, पृथक इकाई नहीं है
सुरेंद्रलाल जी. मेहता
पहली सीढ़ी
आस्था
हरमन हेस्से
आवरण-कथा
खतरा राष्ट्रवाद से नहीं…
सम्पादकीय
बीज ऩफरत के न बोने देंगे
राजकिशोर
रवींद्रनाथ की वैश्विक दृष्टि
रामशंकर द्विवेदी
राष्ट्रीयता और मानवता एक ही चीज़ है
महात्मा गांधी
भारतमाता
जवाहरलाल नेहरू
मानवनिष्ठ भारतीयता के पक्ष में
दादा धर्माधिकारी
खुद ही को जलाती एक गर्म हवा…
रवीश कुमार
आइए, हम राष्ट्रवाद को त्यागें
ओशो
एक राष्ट्र, एक संस्कृति
एम.जी. वैद्य
एकात्मता के प्रेम-पाश में बद्ध होता है राष्ट्र
सुनीलकुमार पाठक
क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?
प्रेमचंद
‘भारत माता की जय’
आशुतोष भारद्वाज
नोबेल कथा
पिता
व्योर्नस्तयेर्ने व्योर्न्सन
धारावाहिक उपन्यास – 4
शरणम्
नरेंद्र कोहली
व्यंग्य
सब गुनज्ञ पंडित सब ज्ञानी
शशिकांत सिंह ‘शशि’
शब्द-सम्पदा
घर के काम-काज
विद्यानिवास मिश्र
आलेख
जीवन का अर्थ : अर्थमय जीवन
अनुपम मिश्र
किताबों के देश में
शंभुनाथ
मैं प्रतीक्षा में हूं
शरद जोशी
कर्नाटक की राजकीय मछली : कावेरी केन्डई
परशुराम शुक्ल
एक अपराधी, एक लेखक, एक संत
सुनील गंगोपाध्याय
चलो लोकशाला चलें!
रमेश थानवी
‘बैठो माता के आंगन में नाता भाई-भाई का’
डॉ. दयानंद
एक समंदर मीठा लिख…
डॉ. शिवनारायण
भक्ति द्राविड़ ऊपजी…
विश्वनाथ
किताबें
कथा
डर
डॉ. रश्मि शील
कविताएं
कहां गयी प्यारी गौरेया
चंद्रशेखर के. श्रीनिवासन
दो कविताएं
डॉ. सुनीता जैन
समाचार
भवन समाचार
संस्कृति समाचार
आवरण चित्र
अवनींद्रनाथ टैगोर