स्मरणांजलि
– डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव
न वनीत डाइजेस्ट, धर्मयुग, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इण्डिया तथा कालनिर्णय में 1951 से 2013 तक निरंतर 62 वर्ष सम्पादन करने वाले सुधी सम्पादक श्रीनारायणदत्त 85 वर्ष की आयु बिताकर 01 जून 2014 को संसार से विदा हो गये. लेखक के रूप में मुझे लगभग 1975 से 2013 तक स्नेह और मार्गदर्शन उनसे मिलता रहा. इस कालखण्ड में उन्होंने मुझे जो पत्र लिखे थे उनमें कुछ मेरे पास यहां हैं. उन्हीं पत्रों के सहारे मैं निम्न शब्दों में उन्हें अपनी स्मरण-श्रद्धांजलि समर्पित कर रहा हूं.
श्रीनारायणदत्त जी प्रायः बतायी शब्दों की संख्याओं में लेख चाहते थे. मुझे इसका कोई अभ्यास नहीं था. इसलिए मैं उनसे कह देता था कि आप मेरे लेख में यथावश्यक काट-छांट कर लेंगे, जिसे वे स्वयं कर लिया करते थे. एक बार उन्होंने मुझे लिखा- आपके एक पेज में लगभग 25-30 पंक्तियां और प्रत्येक पंक्ति में लगभग 15-20 शब्द होते हैं. उन्होंने बताया कि उन्हें सम्पादन कार्य करते-करते इसका अभ्यास हो गया है.
वे शब्दों के व्याकरण-सम्मत स्वरूप के प्रति सदैव सजग रहते थे. मैंने उन्हें अपना बड़ा भाई समझकर कहा था- आप न केवल मेरे शब्दों में सुधार करें अपितु मुझे भी
उसे समझा दें ताकि भविष्य में मैं इस शब्द-दोष से मुक्त रहूं. परिणामतः लगभग चार दशकों में मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा. वे शब्द के सही रूप को व्याकरण के आधार पर समझाते थे.
एक बार उन्होंने मुझसे ‘भारतीय मूर्तिकला में माता और शिशु’ विषय पर लेख मंगाया. लेख के साथ भेजे चित्रों की तो प्रशंसा की, पर व्याकरण के आधार पर कुछ शब्दों तथा श्लोकांश में निम्न सुधार भी समझाए-
(i) कुपुत्रो जायते क्वचिदपि कुमाता न भवति. उन्होंने बताया कि आदिशंकर के इस श्लोक में ‘जायते’ शब्द के स्थान पर ‘जायेत’ होना चाहिए. ‘जायेत विधिलिङ्’ (potential mood) का रूप है और ‘जायते’ लट् (present tense) का. दोनों शब्द व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है. परंतु कवि ने ‘जायते’ (शायद पैदा हो) इस अर्थ में प्रयोग किया है.
(ii) मैंने जननी (माता) और जन्मभूमि की महत्ता दर्शाने वाले श्लोक को उद्धृत किया था- ‘अपि च स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी.’ श्रीनारायणदत्तजी ने पहली पंक्ति का च हटा दिया और इस श्लोक के विषय में लिखा- उत्तर भारत में इसे वाल्मीकि रामायण का बताने की परम्परा है. जब मैंने 1980 में पूरी वाल्मीकि रामायण मूल में पढ़ी तो यह श्लोक मुझे कहीं नहीं मिला, न वाल्मीकि रामायण के जितने प्रामाणिक सुभाषित-संग्रह हैं उनमें मिला. तब स्व. जयचंद्र विद्यालंकार तथा इलाहाबाद के विद्वान मुद्रक व प्रकाशक श्री इंद्रचंद्र नारंग जीवित थे. उनकी मुझ पर बड़ी कृपा थी. उन्होंने मुझे authentatively लिखा कि देश में वाल्मीकि रामायण के जितने प्रामाणिक पाठ हैं, वे सब मैंने देख लिये हैं और ‘अपि स्वर्णमयी लंका’ वाला श्लोक किसी में नहीं है.
गृहलक्ष्मी पर लिखे एक लेख के शीर्षक में मैंने लिखा- तस्मै गृह लष्म्यै नमः श्रीनारायणदत्तजी ने पहले शब्द को ‘तस्यै’ इसलिए करवा दिया क्योंकि ‘तस्मै’ पुल्लिंग शब्द है. लक्ष्मी के कारण उसे स्त्राrलिंग शब्द ‘तस्यै’ होना चाहिए.
एक पत्र में उन्होंने लिखा- आजकल लोग ‘अतिथि देवो भवः’ लिखते और बोलते हैं. तैत्तिरीय उपनिषद् के इस मंत्रांश का शुद्ध रूप है- ‘अतिथिदेवः भव’. अतिथिदेवः एक सम्मिलित पद है जिसका अर्थ है- अतिथि है देवता जिसका. भवः अशुद्ध है, भवः का अर्थ तो शिव होता है (शिव का प्रथमा विभक्ति का एकवचन रूप)
2006 में प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘सवत्सा-गौ अथवा सवत्सधेनु’ को पठनोपरान्त श्रीनारायणदत्तजी ने अपने 10 अक्टूबर 2006 के पत्र में न केवल कतिपय संदर्भों, शब्दों और व्याकरण की त्रुटियों के शुद्ध रूप लिख भेजे अपितु सुनंदा नाम की गाय का ब्रज
का सुरही गाथा जैसा प्रसंग भी पद्मपुराण
में बताया.
2013 के कालनिर्णय कैलेण्डर के लिए उनके द्वारा मंगाये जाने पर मैंने ‘प्राचीन भारत का एक विस्मृत आभूषण-वैकक्ष्यक’ भेजा. शब्द ‘वैकक्ष्यक’ या ‘वैकक्ष्य’ इस पर कई बार फोन-वार्ता हुई. बाद में उन्होंने 18 एवं 24 मई 2012 को लिखे दो पत्रों में कई कोशों में दिये गये शब्दों (वैकक्ष, वैकक्षक, वैकक्षिक) के अतिरिक्त वासुदेवशरण अग्रवाल के ग्रंथ ‘हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन’ के उद्धरण भी दिये. पर जब मैंने सी. शिवराममूर्ति (अमरावती स्कल्पचर्स), टी.ए. गोपीनाथ राव (एलीमेण्ट्स ऑर इण्डियन आइक्नोग्रैफी) तथा स्वयं वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा सम्पादित-अनूदित भाषा ग्रंथ पादताडितकम् के उद्धरण लिख भेजे तब उन्होंने मेरा लेख स्वीकार किया.
2001 ई. में प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘भारतीय कला सम्पदा’ पढ़कर उन्होंने अपने 06 दिसम्बर 2001 के पत्र में लिखा- भारतीय कला सम्पदा की प्रति मिली. आवरण की अभिरामता ने मुग्ध किया. अंदर की छपाई और टाइप-चयन भी आकर्षक है, बधाई. …गांधार शैली की भारतीय कला वाले अध्याय के अंत में आपने तालिबान के घोर कुकृत्य की चर्चा करके समय-प्रज्ञा का परिचय दिया है.
2002 ई. के कालनिर्णय कैलेण्डर में प्रकाशनार्थ उन्होंने मुझे ‘परिचय प्राचीनतम से, शीर्षक के अंतर्गत आठ विषय सुझाये और लिखा- इनमें कुछ छोड़े और नये जोड़े भी जा सकते हैं.’ मैंने आठ प्राचीनतम विषय लिख भेजे जो छपे भी. उन्होंने 06 नवम्बर 2001 के पत्र में लिखा- ‘लेख रोचक था. इस लेख की कल्पना मैंने आम पाठक को ध्यान में रखकर की थी. मुझे लगता है कि यदि आज भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व से जुड़ी ऐसी 100-125 चीज़ों पर छोटे और सुपाच्य write-ups लिखकर एक पुस्तक तैयार करें तो वह जल्दी बिक जायेगी. ऐसी पुस्तक के लिए बाज़ार है. इतिहासज्ञ होने के कारण पुरातत्त्व की भी प्रामाणिक व रोचक जानकारी जुटाना-पेश करना आपके लिए कठिन नहीं है. आपकी भाषा और शैली खूब सधी हुई है. मेरे सुझाव पर सहृदयतापूर्वक विचार करें.’ मुझे अत्यंत खेद है कि मैं श्री नारायणदत्त जी के सद्परामर्श का पालन न कर सका.
दिसम्बर 1978 की नवनीत में मेरा एक लेख ‘भारत का पहला पितृहंता राजवंश’ प्रकाशित हुआ. लेख में मैंने भरहुत के स्तूप को बौद्ध बताया था और मगध-नरेश अजातशत्रु को एक फलक में बुद्ध की वंदना का उल्लेख किया था क्योंकि उस फलक में लेख उत्कीर्ण था- ‘अजातसत्तू भगवतो वन्दिते’. मार्च में अपने छोटे भाई के अस्वस्थ होने का समाचार मिलने के बाद मैं इलाहाबाद से ग़ाजियाबाद चला गया, जहां मुझे एक माह से अधिक रुकना पड़ा. वहीं मैंने नवनीत का अप्रैल अंक देखा जिसमें गुजरात के एक जैन मुनि ने ‘क्या अजातशत्रु पितृहंता था?’ शीर्षक वाले अपने लेख में भरहुत के स्तूप को जैन बताया था और कहा था कि अजातशत्रु पितृहंता नहीं था. इलाहाबाद वापस आने पर डाक में श्रीनारायणदत्तजी के तीन पत्र मिले. जैन मुनि का विरोध-भरा आलेख पाकर उन्होंने अपने पहले पत्र में लिखा था- मैं जैन साहित्य से अनभिज्ञ हूं, अतएव आप उनके विरोध का सम्यक उत्तर भेजें. अगले पत्र में उन्होंने लिखा कि जैन मुनि अपने प्रकाशन पर बड़ा ज़ोर लगा रहे हैं. शीघ्र उत्तर भेजें. अपने तीसरे पत्र में उन्होंने लिखा- लगता है आपके पास जैन मुनि द्वारा उठाये गये प्रश्नों का समुचित उत्तर नहीं है, इसलिए मैं उनका लेख प्रकाशित कर रहा हूं.
अप्रैल 1979 की नवनीत में छपा जैन मुनि का लेख तो मेरे पास था ही. लगभग वही प्रश्न श्रीनारायणदत्तजी ने अपने पहले पत्र के साथ भी भेजे थे. मैंने जैन मुनि के एक-एक प्रश्न का साक्ष्य-समेत लिख भेजा और अपनी ओर से दो-तीन प्रश्न भी पूछे जिनका उत्तर जैन मुनि से कभी नहीं मिला. सम्पादक ने नवनीत के जून 1979 अंक में मेरे सभी उत्तर और मुनिश्री से पूछे गये प्रश्नों को प्रकाशित कर दिया. कतिपय विद्वानों के भी जैन मुनि के इस प्रकरण से सम्बंधित पत्र नवनीत में प्रकाशित हुए थे. उनमें जैन मुनि के विचारों का खण्डन था और भरहुत स्तूप को बौद्ध स्तूप माना गया था. मैंने जो प्रश्न पूछे थे उनका उत्तर जैन मुनि से कभी नहीं मिला. इस प्रसंग का उल्लेख इसलिए नहीं है कि श्री नारायणदत्त जी मुझे में अधिक विश्वास और स्नेह करते थे. यह तो मेरा उनसे प्रारम्भिक परिचय था. वस्तुतः इस प्रसंग से उनके सम्पादन के प्रति अपना दायित्व एवं कर्तव्य-बोध की जानकारी मिलती है. लेखक और सम्पादक के बीच पारस्परिक सौहार्दपूर्ण सम्पर्क की दृष्टि से वे निस्संदेह विरल थे.
वे अपने पत्रों में यदाकदा मनोरंजक बातें भी लिखते रहते थे जिनका उद्देश्य लेखक का ज्ञानवर्द्धन करना ही था. एक बार उन्होंने लिखा था- उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद में कुण्डा राज्य के नरेश के यहां एक साहित्यिक आयोजन था. उसमें कई कवि-साहित्यकार सम्मिलित हुए थे. तत्कालीन हिंदी अधिकारी श्रीनारायण चतुर्वेदी भी थे. हास्यपरक अंदाज़ में उन्होंने नवनीत के सम्पादक नारायणदत्त जी से कहा- ‘आप तो साक्षात् नारायण हैं.’ नारायणदत्तजी ने तत्काल उत्तर दिया- ‘हां, मैं नारायण तो
हूं पर श्रीहीन हूं, आपकी तरह श्रीसम्पन्न
नहीं हूं.’ इतना सुनते ही सभी लोग ठठाकर हंस पड़े.
अपने 26 जून 2012 के पत्र में उन्होंने मेरे लेख ‘वैकक्ष्यक’ के विषय में लिखा था- ‘आपने जितनी जानकारी दी वह पर्याप्त है. उससे ज़्यादा जानकारी साधारण पाठक के लिए दुष्पच हो जाती. कहीं एक किस्सा पढ़ा था. सात साल की एक बच्ची को मुर्गी के विषय में एक पुस्तक देकर कहा गया कि इसे पढ़कर अंतिम पन्ने पर एक वाक्य में लिखना कि पुस्तक तुम्हें कैसी लगी. बच्ची ने पुस्तक पढ़ी और लिखा- ‘This book tells me about hens more than I want to know.’
नारायणदत्त जी फोन पर बात करते समय अथवा पत्र लिखते समय कभी सम्पादक और लेखक की भिन्नता दर्शाते नहीं दिखे. वे सदैव अनौपचारिक व्यवहार करते ही दिखे. एक बार जब मैंने कालनिर्णय कैलेण्डर की दो प्रतियां मिल जाने पर धन्यवाद दिया तब उत्तर में उन्होंने अपने 24 दिसम्बर 2011 के पत्र में लिखा- सम्पादक-लेखक का सम्बंध एक तरह से ‘परस्पराशय’ सम्बंध है. उसमें धन्यवाद का विनिमय ही नहीं हो सकता है.
18 अगस्त 2009 के पत्र में उन्होंने लिखा- ‘मेरे सगे छोटे भाई प्रो. एच. वाई. मोहनराम दिल्ली वि.वि. में. वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष थे. वे जानना चाहते हैं कि शालभंजिका नाम क्या इसलिए पड़ा कि वे साल (शाल) की लकड़ी की बनायी जाती थीं? मैंने उन्हें आपका नाम-फोन नं. दे दिया है और कहा है कि आपसे उन्हें प्रामाणिक जानकारी मिल सकती है. कृपया उनकी मदद कर दें, उपकृत होऊंगा.’ पत्र के अंत में प्रो. मोहनराम का पता और फोन नम्बर भी लिखा था. मैंने उनके भाई प्रो. मोहनराम से बात करके उनकी जिज्ञासा पूछी और उन्हें शालभंजिका सम्बंधी अपना एक लेख झेरॉक्स करवाकर भेजा. प्रो. मोहनराम ने तो लेख के लिए मुझे धन्यवाद दिया ही, कुछ दिनों बाद श्री नारायणदत्तजी ने भी धन्यवाद कहा.
मार्च 2005 में श्रीनारायणदत्तजी ने बेंगलूरु के प्रो. एस.के. रामचंद्र राव की पुस्तक ‘विष्णुकोश’ (अंग्रेज़ी) रजिस्टर्ड डाक से भेजी और मुझे पत्र में लिखा- ‘लेखक ने यह पुस्तक मेरे बड़े भाई श्री एच. वाई. शारदाप्रसाद को भेंट में दी थी. समर्पण की वे पंक्तियां काटना मैं भूल गया, उन्हें आप काट सकते हैं.’ 07 अक्टूबर 2006 के पत्र में उन्होंने मुझे सूचित किया कि विष्णुकोश के रचयिता प्रो. एस.के. रामचंद्र राव का देहांत कुछ महीनों पूर्व हो गया. उन्होंने दक्षिण भारत के मंदिरों के आरती-विधान पर भी अंग्रेज़ी की एक पुस्तक भेंट में भेजी थी. ये दोनों पुस्तकें मेरे बड़े काम आयीं. चेन्नै में प्रकाशित ‘हिंदू’ समाचार पत्र तथा पाक्षिक Frontline पत्रिका में इतिहास-पुरातत्त्व सम्बंधी जो भी सामग्री छपती, उसकी कटिंग्ज वे मेरे पास भेजते रहते थे.
कालनिर्णय कैलेण्डर 2013 के लिए श्रीनारायणदत्तजी ने ‘वैकक्ष्यक’ पर मेरा लेख स्वीकार कर लिया और उसका मानदेय भी मुझे दिलवा दिया. परंतु जब वह लेख 2013 के कैलेण्डर में नहीं छप सका तो उन्हें बड़ा दुख हुआ. उन्होंने 25 सितम्बर 2013 के पत्र में लिखा- ‘यह पत्र लिखते संकोच का अनुभव कर रहा हूं कि मैंने ही आग्रह करके लेख को लम्बा करवाया था. लेख का उपयोग अगले वर्ष हो जायेगा.’
(जनवरी 2016)