वैज्ञानिक सोच के पक्ष में

♦   जवाहरलाल नेहरू   > 

मैं समझता हूं, पुराने ज़माने में ज्ञानी लोग समय समय पर एकत्र होकर अपने अनुभव बांटा करते होंगे. प्रकृति के रहस्यों को जानने-समझने की कोशिश करते होंगे. हो सकता है आज के वैज्ञानिक अथवा उनमें से कुछ, उन प्राचीन प्रयासों को कमतर आंकते हों. मैं उम्मीद करता हूं कि ऐसे लोग कम ही होंगे, क्योंकि भले ही आज के मापदंड के अनुसार वे प्रयास अवैज्ञानिक लगें, लेकिन उन लोगों की वे कोशिशें अधिक विकास का आधार तो होती ही थीं. भले ही उनका सम्बंध उन सब बातों से हो जिन्हें हम मोटे तौर पर दर्शन कहते हैं. यह माना जा सकता है कि उस समय के बड़े पुरोहित लोगों का तब वर्चस्व हुआ करता था, और अपने पद का फायदा उठाकर वे आम जनता को गुमराह भी करते होंगे. अपनी महत्ता बनाये रखने के लिए वे कुछ रहस्यों का डर भी जनता के मन में भरने की कोशिश करते होंगे. फिर भी,  मूलतः वह थी सच की खोज ही, चीज़ों की प्रकृति समझने की, दुनिया को समझने की, यदि है तो बाकी दुनियाओं को समझने की कोशिश. कई चरणों में होते-होते यह प्रक्रिया उस विज्ञान की शुरूआत बनी होगी जिसे हम आज देख रहे हैं. फिर विज्ञान का विकास हुआ और अब यह दुनिया पर छा गया है. ऐसा बाहरी उपलब्धियों के संदर्भ में ही नहीं हुआ, मनुष्य के सोच पर भी इसका असर पड़ा. आज वैज्ञानिकों की वही जगह हो गयी है, जो रहस्यों की दुनिया वाले पण्डे-पुरोहितों की थी.

यह सही है कि सच्चे वैज्ञानिक रहस्यात्मक तरीकों से काम नहीं करते और करना भी नहीं चाहते. जो देखना-समझना चाहते हैं, उनके लिए विज्ञान और ज्ञान कुल मिलाकर खुला रहस्य है. होना भी ऐसा ही चाहिए. पर यह सब इतना जटिल हो जाता है कि कुछ ही लोगों में यह सब समझने की क्षमता है. सच तो यह है कि शायद कुछ ही लोग समझना चाहते हैं. अधिसंख्य लोगों के लिए यह सब एक ऐसा रहस्य है, जो उनकी समझ से परे है. फिर भी, उन्हें इसका लाभ मिलता है, इससे परेशान भी होते हैं और दुनिया जैसी हम देख रहे हैं, वह आवश्यक रूप से विज्ञान का एक उत्पादक बन जाती है. भविष्य में विज्ञान हम पर अधिकाधिक हावी होता जायेगा. इसलिए, वैज्ञानिक क्या करते हैं, किस वातावरण में काम करते हैं, किस मनःस्थिति में काम करते हैं, संसार के विकास में वैज्ञानिक किस दिशा में मददगार होते हैं, कब, कितनी गलत दिशा देते हैं आदि सब हमारे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं.

यह माना जाता है कि वैज्ञानिक सत्य की शोध करते हैं और सत्य का संधान आसान नहीं होता. परिणामों से डरना नहीं चाहिए, भले ही कभी आपको यह परिणाम नरक-कुंड देखने के लिए ही बाध्य क्यों न करें. यदि आप अपनी खोज के परिणामों से डरते हैं तो आप बहुत आगे तक नहीं जा पायेंगे. हकीकत यही है. फिर भी मैं समझता हूं कि किसी व्यक्ति में, एक वैज्ञानिक में भी, एक शुद्ध वस्तुनिष्ठता सम्भव नहीं है, और मैं कहना चाहूंगा अपेक्षित भी नहीं है. आप विश्व-जीवन से, खुशियों और दुखों से, अपने आप को काट नहीं सकते. आपके कार्यों से विश्व के लिए जो खतरे उत्पन्न हो सकते हैं, या फिर सम्भव लाभ हैं, उनसे आप असंपृक्त नहीं रह सकते. जीवन में आपके पास कुछ काम होना चाहिए, कोई उद्देश्य होना चाहिए. जो कुछ हो रहा है, उसे आंखें फाड़कर मात्र देखते रहना ही उचित नहीं है. जहां सम्भव हो, वहां आपको घटना-क्रम को मोड़ देना होगा. जिस क्षण हम निष्क्रिय हो जाते हैं, हम घटनाओं के मूक दर्शक बन कर रह जाते हैं, उन्हें दिशा देने में हमारा कोई हाथ नहीं रह जाता. मैं नहीं समझता कि कोई वैज्ञानिक, या कोई भी, स्वयं को निष्क्रिय दर्शक कहलवाना पसंद करेगा. इसलिए, सच की खोज के अलावा हमारे सामने कोई व्यापक आदर्श होना चाहिए. वह व्यापक आदर्श क्या है, बहुत से आदर्श हो सकते हैं, पर उस आदर्श का कोई रिश्ता आज की समस्याओं से अवश्य होना चाहिए. आज भारत के वैज्ञानिकों के सामने ऐसी एक समस्या भारत के लोगों के विकास, उनकी बेहतरी, उनका स्तर उठाने और असमानता समाप्त करने की है. हम एक कदम आगे बढ़कर विश्व-समस्याओं की भी बात कर सकते हैं. मैं विश्व की बड़ी समस्याओं की बात नहीं करना चाहता, और मैं समझता हूं, हम सब बड़ी आसानी से यह कह सकते हैं कि अगर हमारी बात मानी जाये तो हम विश्व की समस्याएं चुटकी में सुलझा सकते हैं. भले ही कोई खुद को कितना ही समझदार क्यों न समझे, इस तरह का सोच उचित नहीं लगता. लेकिन विश्व-समस्याओं के सामने हथियार डाल देना भी कोई सही बात नहीं है. किसी समस्या-विशेष की बात न करते हुए मैं कहना चाहता हूं कि हम सब, विशेषकर वैज्ञानिक, इन समस्याओं के प्रति एक बुनियादी रुख तो अपना ही सकते हैं.

बुनियादी रुख का क्या मतलब है? मतलब वह बुनियादी मनोवृत्ति, जिसमें वे समस्याएं समझने की कोशिश होनी चाहिए. विज्ञान वाली मनोवृत्ति, औचित्य की मनोवृत्ति, सत्य को पाने वाली मनोवृत्ति, मैं नहीं जानता वह विज्ञान वाली मनोवृत्ति है या नहीं, शांति की मनोवृत्ति. मैं समझता हूं वह सचमुच ज्गयादा महत्त्वपूर्ण है, सकारात्मक कदम से अधिक महत्त्वपूर्ण जो समस्या के समाधान की दिशा में उठाया जा सकता है.

(इंडियन साइंस कांग्रेस, 1956 में दिया गया भाषण)

(फ़रवरी, 2014)

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