याद
‘मधुशाला’ का अत्यंत अप्रत्याशित, अनौपचारिक, आकस्मिक और भव्य उद्घाटन समारोह भी मुझे देखने को मिला. वह आजकल का-सा कोई ग्रंथ-विमोचन कार्यक्रम न था. था एक कवि-सम्मेलन. बनारस के हिंदू विश्वविद्यालय में. विश्वविद्यालय के शिवाजी हॉल में. कवि-सम्मेलन के अध्यक्ष प्रोफेसर मनोरंजनप्रसाद सिन्हा थे, विद्यार्थियों के बीच जिनकी लोकप्रिय साख थी.
श्रोता विद्यार्थियों की भारी भीड़ थी. हॉल खचाखच भरा था. विद्यार्थी स्थानीय सहपाठी-कवियों को ही नहीं, कई एक आमंत्रित कवियों को भी उखाड़ चुके थे. बारी आयी बच्चन के कविता सुनाने की. तब वे लगभग अनजाने कवि थे. काशी में तो निश्चय ही उन्हें प्रिय कवि के रूप में तब तक कोई न जानता रहा होगा.
बच्चन ने अप्रकाशित ‘मधुशाला’ का काव्य-पाठ आरम्भ किया. सार्वजनिक रूप में वह ‘मधुशाला’ का प्रथम काव्य-पाठ था. श्रोताओं पर एकबारगी गहरी निस्तब्धता छा गयी. कुछ क्षणों को शायद सांस लेना भी सब भूल गये. और फिर प्रशंसा का बांध एकाएक टूट पड़ा. वातावरण पर ऐसा जादू छा गया कि वाह-वाह और तालियों की गड़गड़ाहट भी प्रशंसा के गहरे समुद्र और ऊंचे आकाश में न कुछ जैसी लगती थी. कवि और सहृदय का ऐसा अद्वय आत्मीय सम्बंध न पहले कभी देखा-सुना था और न फिर कभी इस प्रकार उसका अनुभव हुआ.
बच्चन की सफलता बच्चन की भाव-साधना, उत्कट लगन और घनघोर परिश्रम की सफलता थी. यह ठीक है. लेकिन केवल इतने से ही ‘मधुशाला’ की अभूतपूर्व लोकप्रियता का रहस्य नहीं समझा जा सकता.
लोकप्रियता का मुख्य कारण यह भी नहीं है कि ‘मधुशाला’ का कवि जिस आपसदारी, भाईचारे और हेलमेल के सहज भाव के साथ सहृदय से मिला था, वह इसके पूर्व सर्वथा दुर्लभ था.
मध्ययुगीन भारतीय मनीषा मधुभीत या मधु से भयभीत थी. आर्ष काव्य के मधुगीत और आर्य जीवन का आनंद-वन मधुभीत मध्ययुग में न जाने कब का और कहां तिरोहित हो चुका था. जीवन के आनंद-वन की जगह, मध्ययुग भयावह भवाटवी (भव के महावन) और मधु के स्थान पर भयंकर भवसागर के प्रतीक उपस्थित करता था. मध्ययुगीन मनीषा का द्योतन करनेवाली एक प्रतीक कथा है कि भवाटवी में भटकता हुआ एक भयभीत पथिक किसी ऐसे अंधे कुएं पर जा पहुंचता है, जिसके तट पर कोई व्यक्ति औंधे मुंह लटका हुआ है. कुएं के ऊपर एक घना वृक्ष है, जिसकी ऊंची डाल पर मधुच्छद लटका है. बूंद-बूंद जो मधु टपकता है, उसे चखने के लालच में, औंधे मुंह पड़ा हुआ मनुष्य मुंह बाए है. हवा के झोंकों से मधु बूंदें इधर-उधर हो जाती हैं. मुंह में एक बूंद भी नहीं पड़ती. फिर भी विसुध और मुग्ध मनुष्य आस लगाये है. उधर वह डाल, जिसे वह मनुष्य थामे हुए है, सफेद और काले चूहों द्वारा निरंतर कुतरी जा रही है. आधार और सहारे का नष्ट हो जाना निश्चित है. नीचे कुएं में एक अजगर घात लगाये है कि उसका खाजा, वह मधुलुब्ध मनुष्य, अब गिरा तब गिरा!
बच्चन से पहले का आधुनिक हिंदी काव्य हितवादी और छायावादी था. कवि सहृदय द्वारा आदृत और प्रशंसित था. बच्चन ने ही पहली बार सहृदय श्रोताओं के जमघट में घुसकर धड़ल्ले से मधुस्फोट करने की ठानी थी. बनारस विश्वविद्यालय के शिवाजी हॉल में मैंने बच्चन को मधुभीत मध्ययुग का भूत झाड़ते देखा था और देखा था मध्यवर्गीय संकोचशील शालीनता को अनावश्यक सिद्ध करते हुए. ‘मधुशाला’ के उद्घाटन का यह रूप आज भी मेरे मन में घर किये हुए है.
मार्च 2016