शरणम् (भाग– 2)  नरेंद्र कोहली

धारावाहिक उपन्यास – 2

गीता एक धर्म-ग्रंथ है और जीवन-ग्रंथ भी. जीवन के न जाने कितने रहस्यों की परतें खोलने वाला ग्रंथ बताया गया है इसे. पर गीता का कथ्य किसी उपन्यास का कथ्य भी बन सकता है, यह कल्पना ही चौंकाती है. वरिष्ठ-चर्चित रचनाकार नरेंद्र कोहली ने इस कल्पना को साकार कर दिखाया है. वे इसे ‘शुद्ध उपन्यास’ मानते हैं, पर गीता के दर्शन को समझने-समझाने का यह सराहनीय प्रयास है.

संजय की आंखों के सामने वह दृश्य घूम गया. दुर्योधन आचार्य द्रोण के निकट गया और बोला, ‘आचार्य, पांडवों की इस विशाल सेना को देखिए. और देखिए, आपके शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न ने कैसा व्यूह रचा है. न सिखाया होता आपने तो आज ये इस प्रकार हमारे सामने व्यूहबद्ध खड़े होते? क्यों सिखा दिया आपने उसे यह सब?’

धृतराष्ट्र का मन फिर से अटपटा गया, ‘अरे जब महासेनापति पितामह थे तो यह मूर्ख दुर्योधन, द्रोणाचार्य के पास क्या करने गया. जाना ही था तो पितामह के पास जाता. नहीं तो राजा के समान अपने स्थान पर बैठा रहता. महासेनापति स्वयं युद्ध आरम्भ करने के लिए आदेश लेने उसके पास आते. और यह धृष्टद्युम्न द्रोण का शिष्य कब से हो गया?’

‘मैं भी नहीं जानता महाराज.’ संजय ने कहा- ‘द्रोण अपने आश्रम में तपस्या कर रहे थे, वे अपने आश्रम में किसी को कुछ सिखाते नहीं थे. तब तक द्रुपद का कोई पुत्र भी नहीं था. जब अपनी दरिद्रता से पीड़ित होकर द्रुपद के पास कांपिल्य आये, तो वहीं झगड़ा कर, स्वयं को अपमानित मान, वे हस्तिनापुर आ गये, पितामह के पास.’

‘तो फिर धृष्टद्युम्न, द्रोण का शिष्य कैसे हुआ? या दुर्योधन की मति भ्रष्ट हो गयी है? घबरा गया है युद्ध से?’

‘मैं ऐसा तो नहीं कह सकता महाराज. न राजा दुर्योधन को देखकर ऐसा लगा; किंतु एक किंवदंती है कि द्रोणाचार्य के वध के लिए धृष्टद्युम्न, ऋषियों के मंत्रों से, रथ और शस्त्राsं के साथ हवनकुंड से उत्पन्न हुआ था. तब द्रुपद ने उसे शस्त्र-विद्या सीखने के लिए द्रोणाचार्य के पास भेज दिया था; और द्रोण ने भी अपना भवितव्य मान, उसे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया और शस्त्र विद्या सिखायी.’

‘पागल है द्रोण कि अपने वध के लिए उत्पन्न हुए शस्त्रधारी युवक को शस्त्रविद्या देगा.’ धृतराष्ट्र जैसे आपे में नहीं था, ‘जो द्रोणाचार्य बिना सिखाये, एकलव्य का अंगूठा ले सकता है, वह अपने वध के लिए जन्मे धृष्टद्युम्न को, अपने घोर शत्रु द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न को, शस्त्रविद्या सिखायेगा.’ वह रुका, ‘चलो छोड़ो. किंवदंती है, तो किंवदंती सही. वैसे भी उस सारे काल में द्रोणाचार्य हस्तिनापुर में थे. मैंने तो कभी नहीं जाना कि कब धृष्टद्युम्न हस्तिनापुर आया और कब द्रोण के आश्रम में रहा. ऐसा कुछ हुआ होता तो पितामह उसे हस्तिनापुर में एक क्षण भी टिकने न देते. तुम बताओ, क्या कहा दुर्योधन ने?’

‘राजा दुर्योधन ने कहा- वहां बड़े-बड़े धनुषों के साथ भीम और अर्जुन के समान शूर खड़े हैं. सत्यक का पुत्र सात्यकी युयुधान, तथा महारथी द्रुपद और विराट अपने रथों में युद्ध के लिए सन्नद्ध खड़े हैं.’

‘द्रोण को दिखाई नहीं दे रहा था वह सब कि दुर्योधन उसे बताने गया.’ धृतराष्ट्र की खीज पराकाष्ठा पर थी.

‘मैंने ऐसा कुछ राजा दुर्योधन से पूछा नहीं था.’ संजय का स्वर भी कुछ कसैला हो आया था. यह बुड्ढा जाने क्यों उलटे-सीधे प्रश्न करता है.

‘यादवों में से कृष्ण के अतिरिक्त और कौन आया है पांडवों की ओर से लड़ने?’

‘यादवों में से…’ संजय जैसे इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थे, ‘कृतवर्मा है; किंतु वह तो दुर्योधन की सेना में है. श्रीकृष्ण की गोप सेना को राजा दुर्योधन पहले ही मांग लाये थे…’

‘मैं पूछ रहा हूं कि पांडवों की ओर से युद्ध करने कौन-कौन से यादव वीर आये हैं?’

संजय को आशंका हुई, कहीं धृतराष्ट्र उनका मुंह ही न नोच ले.

‘वही सोच रहा हूं.’ संजय ने धैर्यपूर्वक कहा- ‘वैसे पहले अर्जुन ने युधिष्ठिर से कहा ही था कि श्रीकृष्ण के परिजन उनको त्याग गये हैं.’

संजय देख रहे थे कि धृतराष्ट्र चाहे हस्तिनापुर में अपने प्रासाद में बैठा था; किंतु उसका मन तो युद्धक्षेत्र में ही था. जाने क्यों अभी तक उसने युद्ध क्षेत्र में जाने की इच्छा प्रकट नहीं की थी… शायद इसलिए कि उसमें जिज्ञासा, उत्सुकता, व्यग्रता और व्याकुलता तो बहुत थी; किंतु अपनी कामना के विरुद्ध तथ्यों को स्वीकार करने का साहस नहीं था.

‘तो बताओ.’

‘दुर्योधन ने द्रोणाचार्य के सम्मुख जिन लोगों के नाम गिनाये, उनमें तो और कोई यादव नहीं था… हां एक युयुधान सात्यकी था.’ संजय ने धीरे-धीरे सहज भाव से कहा- ‘जाने क्यों?’

‘बलराम नहीं था वहां?’ धृतराष्ट्र जैसे झपट ही पड़ा.

‘नहीं. बलराम नहीं थे. वस्तुतः कृष्ण का कोई भी भाई और कोई भी पुत्र वहां नहीं था.’

‘उन सबको सुरक्षित द्वारका छोड़ आया और मेरे पुत्रों को मरवाने यहां आ गया यह कृष्ण.’ धृतराष्ट्र का क्रोध उसके सारे चेहरे पर बिखर गया था.

‘मुझे ऐसा नहीं लगता.’ संजय ने कहा- ‘मैंने सुना है कि बलराम ही इस युद्ध में पांडवों का पक्ष लेने के लिए प्रस्तुत नहीं थे. उन्होंने श्रीकृष्ण से असहयोग किया ताकि पांडवों का पक्ष दुर्बल पड़ जाए; और दुर्योधन को जय की प्राप्ति हो. इसलिए वे तीर्थयात्रा के बहाने कुरुक्षेत्र और द्वारका दोनों से ही दूर चले गये.’

‘तुम कहना चाह रहे हो कि बलराम अपनी अनुपस्थिति से दुर्योधन की सहायता कर रहा है?’

‘मेरे मन में तो यह भी आता है कि युद्ध में श्रीकृष्ण के निःशस्त्र रहने का कारण भी बलराम ही हैं. सम्भवतः उन्होंने कहा होगा कि यदि श्रीकृष्ण उनके शिष्य दुर्योधन के विरुद्ध शस्त्र-प्रयोग करेंगे, तो वे भी शस्त्र उठा लेंगे. और यदि वे शस्त्र उठाते तो पांडवों के विरुद्ध अर्थात् श्रीकृष्ण के विरुद्ध उठाते.’

‘क्या प्रमाण है तुम्हारे पास?’

‘प्रमाण तो कोई नहीं है. बस अनुमान मात्र है.’ संजय ने कहा- ‘आपको स्मरण होगा, उप्पलव्यनगर में पांडवों के मित्रों और सहायकों की बैठक हुई थी तो श्रीकृष्ण ने कहा था कि उन लोगों को पांडवों की सहायता करनी चाहिए. और बलराम ने तब भी अपने भाई का विरोध किया था. स्वयं को ‘मध्यस्थ’ कहा था उन्होंने. वे अब भी ‘मध्यस्थ’ ही माने जाएंगे. किंतु उनका हृदय तो राजा दुर्योधन के पक्ष में ही है.’

‘हो सकता है; पर उससे क्या होता है. बलराम दुर्योधन के पक्ष से लड़ने के लिए तो नहीं आया न.’ धृतराष्ट्र ने कुछ उदासीन स्वर में कहा- ‘कृष्ण के अन्य भाई? उसके पुत्र?’

‘उन सबको भी बलराम अपने साथ ले गये.’

‘बलराम की इच्छा से ही तो वे सब कृष्ण को छोड़ नहीं गये होंगे; उनके अपने मन में कृष्ण के प्रति कोई विरोध नहीं था? कोई तो विरक्ति होगी.’

‘यह तो शोध और चिंतन का विषय है महाराज!’ संजय ने धीरे-से कहा- ‘अभी तक तो ऐसी कोई घटना प्रचारित नहीं हुई है. हां उनका एक पुत्र राजा दुर्योधन का जामाता अवश्य है.’

‘यादव कायर नहीं हैं कि युद्ध से भयभीत हो गये हों.’ धृतराष्ट्र अपनी चिंतन प्रक्रिया में उलझा हुआ था, ‘वे कृष्ण के धर्म से तंग आ गये होंगे. संसार में किसको पड़ी है कि अपना भोग-विलास छोड़कर धर्म की स्थापना के लिए सारी सृष्टि में मारा-मारा फिरता रहे, सिवाय कृष्ण के. मैंने कहा न कि ये धर्म के पक्षधर संसार के लिए संकट ही होते हैं.’

‘यादवों में भी परस्पर विरोध की सम्भावना हो सकती है.’ संजय ने कहा- ‘मैंने सुना है कि द्वारका में उग्रसेन और अक्रूर का विरोध थम नहीं रहा है. श्रीकृष्ण उनके झगड़ों से पर्याप्त पीड़ित हैं; किंतु वे उनके वश में नहीं हैं, जबकि श्रीकृष्ण ने अक्रूर को प्रसेनजित की हत्या के लिए भी क्षमा कर दिया था और स्यमंतक मणि भी उसे दे दी थी.’

‘होगा.’ धृतराष्ट्र ने अवज्ञा के भाव से कहा- ‘दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को और किन-किन वीरों के नाम बताये? लड़ने कौन-कौन आया है?’ एक छोटे-से विराम के पश्चात् वह पुनःबोला- ‘द्रुपद और विराट तो वृद्ध होने को आये.’

‘तो पितामह और आचार्य कौन-से युवा हैं.’ संजय से कहे बिना रहा नहीं गया. उनका मन जैसे खौल रहा था. यह व्यक्ति इतना एकपक्षीय सोचता है कि उससे किसी प्रकार के संतुलन की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती.

‘ठीक है. तुम यह बताओ कि दुर्योधन ने क्या कहा.’ धृतराष्ट्र जैसे अपने आप से ही कह रहा था, ‘वह मूर्ख भी जाने क्यों पितामह से अधिक महत्त्व आचार्य को देता है. पितामह की क्षमता को जानता नहीं और कर्ण के ही समान उनकी अवज्ञा करता रहता है. कर्ण का ही प्रभाव होगा यह. पछतायेगा एक दिन. मैं कह रहा हूं, वह पछतायेगा एक दिन.’

‘अब क्या पछताना.’ संजय ने कहा, ‘अब तो पितामह शर-शैया पर लेटे हुए हैं.’

‘ठीक है. ठीक है. मुझे बताओ कि दुर्योधन ने क्या कहा.’

‘दुर्योधन ने कहा, धृष्टकेतु, चेकितान, और वीर काशिराज भी हैं. पुरुजित, कुंतिभोज और नरपुंगव शैव्य भी हैं.’ संजय ने बताया.

‘कुंतिभोज वहां था?’ धृतराष्ट्र के स्वर का संशय अत्यंत मुखर था.

‘अपने पुत्रों के साथ वे भी थे.’

‘कुंती के विवाह के पश्चात् आज तक तो कुंतिभोज ने कभी उसकी सुध नहीं ली और अब अंतिम समय में युद्ध करने आ गया. शांति से अपने घर में बैठा रहता बुड्ढा, तो उसका क्या बिगड़ जाता. वहां उसे चैन की मृत्यु तो प्राप्त होती.’

‘शायद वे अब तक के अपने व्यवहार का प्रायश्चित करने ही आये हैं. वैसे भी क्षत्रिय अपने बिस्तर पर पड़े-पड़े मरना श्रेयस्कर नहीं मानता.’ संजय अनायास ही कह गये, ‘युधामन्यु, वीर उत्तमौजा, अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र सब ही महारथी हैं; और वे सब युद्ध में उपस्थित थे.’

‘अच्छा, अभिमन्यु भी… द्रोपदी के पुत्र भी… ये लोग युद्ध करने योग्य हो गये हैं? कल तक तो वे दूध पीते बच्चे थे.’

‘राजा दुर्योधन ने कल के उन दूध पीते बच्चों को महारथी स्वीकार किया है महाराज!’ उन्होंने द्रोणाचार्य से कहा था- ‘आपके जानने के लिए अपनी सेना के विशिष्ट योद्धाओं का भी मैं वर्णन करता हूं.’

‘द्रोण उन्हें जानते नहीं थे क्या? वे नये-नये कौरवों के पक्ष में आये थे क्या?’ धृतराष्ट्र चिढ़कर बोला- ‘दुर्योधन समझता है कि वे अपने आश्रम में आंखें मूंदे बैठे रहते हैं. संसार में किसी को जानते ही नहीं? द्रोण कितना कुचक्री है, इसे कौन नहीं जानता?’

‘सम्भवतः उन सबके नाम लेकर, उनकी वीरता का बखान कर, राजा उन लोगों को प्रसन्न करना चाहते हों.’ संजय ने कहा- ‘वीर के रूप में अपने नाम की घोषणा सुनकर किसे अच्छा नहीं लगेगा. उससे युद्ध का परिवेश बनेगा. योद्धाओं के मन में उत्साह जागेगा.’

‘सम्भव है, ऐसा ही हो.’ धृतराष्ट्र सहमत हो गया, ‘किन-किन को वीरता का प्रमाणपत्र दिया उसने?’

उन्होंने कहा- ‘आप, भीष्म, कर्ण, युद्धविजेता कृपाचार्य, अश्वत्थामा तथा सोमदत्त का पुत्र सोमदत्ति भूरिश्रवा भी.’

‘तो सबसे पहले द्रोण का ही नाम लिया, ताकि वे प्रसन्न हों.’ धृतराष्ट्र ने कहा, ‘किंतु मूर्ख यह नहीं जानता कि उससे पितामह रुष्ट भी हो सकते थे. …और फिर उसने कर्ण का नाम क्यों लिया? कर्ण तो पितामह के जीवित रहते युद्धक्षेत्र में न आने की प्रतिज्ञा कर चुका था.’

‘हां! पर कर्ण कोई अपने घर में तो बैठा नहीं रहा.’ संजय ने कहा- ‘वह वहीं है, कौरवों के स्कंधावार में. हां! यह सत्य है कि न तो पितामह ने उसे कोई दायित्व सौंपा और न ही उसने पितामह के सक्रिय रहते स्वयं युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की.’

‘दुर्योधन शायद बताना चाहता है कि और कोई उसका साथ छोड़ दे, तो छोड़ दे; किंतु कर्ण उसे नहीं छोड़ेगा.’ धृतराष्ट्र ने कहा और साथ ही उसने जोड़ दिया- ‘किंतु एक कर्ण के भरोसे यह युद्ध तो नहीं जीता जा सकता.’

‘दुर्योधन ने और किसी का नाम नहीं लिया; किंतु इतना अवश्य कहा कि अन्य भी अनेक शूर मेरे लिए प्राण त्यागने के लिए प्रस्तुत हैं. वे सब नाना शस्त्राsं को धारण करने वाले और युद्ध-विशारद हैं.’

‘क्यों वह द्रोण को बताना चाहता है कि वह केवल उनके ही भरोसे युद्ध नहीं कर रहा है; उसके पास और भी प्राण देने को आतुर योद्धा हैं.’

‘मैं कह नहीं सकता कि राजा दुर्योधन के मन में क्या था.’ संजय से शांत भाव से कहा.

‘कैसी है तुम्हारी यह दिव्य दृष्टि, जो यहां से कुरुक्षेत्र तक देख सकती है और दुर्योधन के सम्मुख खड़े होकर उसके मन में नहीं झांक सकती?’

‘महाराज! मेरे पास आपके इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं.’- संजय ने कहा- ‘महर्षि व्यास ने अपने तपोबल से जो मुझे दिया, वह है; उसके अतिरिक्त मेरा अपना कुछ नहीं है. मैं इतना ही जानता हूं कि दिव्य दृष्टि दूर के दृश्यों को देख सकती है; शायद कुछ दूर की ध्वनियों को सुन भी सकती है; किंतु किसी के वक्ष के भीतर उसके मन में क्या है, अथवा उसके मस्तक में सुरक्षित मस्तिष्क में क्या है, यह देखना मेरे लिए सम्भव नहीं है. आपका आदेश हो, तो आगे की बात करूं अथवा घर जाऊं… थोड़ा विश्राम करूं. थक गया हूं.’

‘सुनाओ. इतने भी नहीं थके हो कि जाकर बिस्तर पर पड़ जाओ. युद्ध से एक आध बाण का घाव खा आये होते तो बात और थी.’

‘राजा दुर्योधन ने निष्कर्ष के रूप में आचार्य को आश्वस्त करते हुए कहा- ‘भीष्म द्वारा रक्षित हमारा सैन्यबल सीमारहित है और भीम द्वारा रक्षित पांडवों का सैन्यबल सीमित है. आप सब अपनी-अपनी वाहिनियों के साथ व्यूहों में यथास्थान स्थित रहकर पितामह की रक्षा करें’.’

‘मेरा यह मूर्ख बेटा!’ धृतराष्ट्र ने अपना सिर पीट लिया.

‘क्या हुआ महाराज?’

‘द्रोण को ऐसा उपदेश देने की क्या आवश्यकता थी.’ धृतराष्ट्र ने कहा- ‘भीष्म की रक्षा कर द्रोण को क्या मिलना था. उससे तो कहना चाहिए था कि भीष्म के धराशायी होते ही वह आचार्य को प्रधान सेनापति बना देगा. यही तो चाहता होगा द्रोण, कौरवों की सेना का महासेनापति बनना.’

‘वह भी ठीक है महाराज.’ संजय ने कहा- ‘किंतु यह भी सत्य है कि द्रोणाचार्य के परम शत्रु द्रुपद की सेना का नाश भीष्म ही सबसे अधिक उत्साह से करते रहे. भीष्म जब तक सुरक्षित रहे, द्रोण को धृष्टद्युम्न से कोई भय नहीं रहा.’

‘शायद तुम ठीक कह रहे हो. मैं ही कभी-कभी पगला जाता हूं.’

‘आपको अपने पुत्रों की चिंता है, और कोई बात नहीं है.’

‘वह तो है ही.’ धृतराष्ट्र ने अपनी अंधी आंखें संजय की ओर घुमायीं, ‘फिर क्या हुआ?’

‘पितामह ने शायद राजा दुर्योधन की बात सुन ली थी. वे प्रसन्न हो उठे. वे कुरुवृद्ध पितामह भीष्म, जिन्हें इस युद्ध का हर प्रकार से विरोध करना चाहिए था, उन्होंने दुर्योधन के मन में हर्ष जगाने के लिए, युद्ध आरम्भ करने की घोषणा-सी करते हुए, सबसे पहले सिंहनाद की शैली में उच्च स्वर में ‘प्रतापवान’ शंख फूंका.’

‘इस बुड्ढे को जाने लड़ने-मरने की इतनी उतावली क्यों थी. घर में रहकर खाता-पीता, दासियों से सेवा लेता. उनका सुख भोगता.’ धृतराष्ट्र का स्वर अत्यंत रुष्ट था, ‘वानप्रस्थ या संन्यास ले लेता, तो भी शायद हम अधिक सुरक्षित रहते. किंतु वह राज-काज से दूर क्यों जाता. पद किसी से छोड़ा जाता है कि वह छोड़ता. सबसे पहले युद्ध-क्षेत्र में जा कूदा और शंख भी फूंक दिया… फिर?’

‘होना क्या था. पितामह के सिंहनाद से चारों ओर भय व्याप्त हो गया. शंख, भेरी, गोमुख और नगाड़े बज उठे और बजते ही चले गये. उनसे वहां ऐसा भयंकर शोर हुआ कि प्रलय का सा दृश्य उपस्थित हो गया.’

‘पांडवों ने शंख नहीं फूंके?’

‘फूंके. फूंके क्यों नहीं.’ संजय ने कहा.

संजय उनका विस्तार से वर्णन कर धृतराष्ट्र को भयभीत करना नहीं चाहता था. वह अपनी कल्पना में स्पष्ट देख रहा था. सबसे पहले श्वेत अश्वों से युक्त, विराट रथ पर बैठे हुए, श्रीकृष्ण और अर्जुन ने दिव्य शंख फूंके. श्रीकृष्ण ने ‘पांचजन्य’ और अर्जुन ने अपना ‘देवदत्त’ नामक शंख फूंका. विकट कर्म करने वाला, भीम कहां पीछे रहने वाला था. वह तो जाने कब से इस प्रकार शंखों के फूंके जाने की प्रतीक्षा कर रहा था. उस वृकोदर ने अपना ‘पौंड्र’ नामक महाशंख ऐसा फूंका कि कुरुक्षेत्र का कण-कण कांप उठा.

‘तुम मुझे डराने का प्रयत्न मत करना.’ संजय को मौन देखकर धृतराष्ट्र ने अपनी त्यौरियां चढ़ा लीं. ‘मैं किसी से डरता नहीं हूं.’

‘नहीं. मैं वैसा कोई प्रयत्न नहीं कर रहा हूं. मैं तो वही कह रहा हूं, जो मेरी आंखों ने देखा, जो मेरे कानों ने सुना, जो मेरे मन ने अनुभव किया. वैसे आपके भयभीत होने, न होने से कोई अंतर पड़ता है क्या? आपको युद्ध-क्षेत्र में तो जाना नहीं है.’

‘ठीक है; किंतु तुम वही सुनाओ, जो तुमने देखा है, या देख रहे हो.’ धृतराष्ट्र ने कड़वाहट के साथ कहा- ‘वह सब मत कहना, जो तुमने अनुभव किया है, या जो तुम्हारा मन चाहता है. तटस्थ रहकर बात करना. किसी का पक्ष मत लेना.’

‘कुंतीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने ‘अनंतविजय’ नाम का शंख फूंका. नकुल और सहदेव ने भी ‘सुघोष’ और ‘मणिपुष्पक’ नामक शंख बजाये.’

‘जाने इस युधिष्ठिर ने अपने शंख का नाम ‘अनंतविजय’ क्यों रख लिया है.’ धृतराष्ट्र अपने अधरों ही अधरों में बड़बड़ाता जा रहा था- ‘किसी युद्ध में कोई विजय मिले या न मिले, शंख का नाम अवश्य ही अनंतविजय रखेंगे.’

‘क्योंकि राजा युधिष्ठिर धर्मराज हैं. उनके जीवन का आधार सत्य है. और सत्य की सदा ही विजय होती है. उसका कोई अंत नहीं है.’

‘तुमसे पूछा किसी ने?’

‘आपने अभी तो पूछा.’

‘मेरा मन अपने-आप से बातें कर रहा था.’ धृतराष्ट्र ने कहा- ‘मैंने तुमसे पूछा नहीं था. चलो तुम बताओ कि और किस-किस ने शंख बजाये.’

‘छोड़िए महाराज. क्या करेंगे, शंखों के नाम सुनकर. उनकी ध्वनि सुनना अलग अनुभव है; नामों में कुछ नहीं रखा…’

और संजय की आंखों के सम्मुख कुरुक्षेत्र का वह दृश्य आ गया, जहां विराट धनुष वाले काशिराज, महारथी शिखंडी, धृष्टद्युम्न, विराट और अपराजित सात्यकी भी शंख बजा रहे थे. कहना तो वे चाहते थे- ‘हे पृथिवीपते, द्रुपद ने, द्रौपदेयों ने, महाबाहु सौभद्र अभिमन्यु ने- सबने पृथक्-पृथक् शंख बजाये. धरती हिल गयी. कौरवों के सैनिकों के हृदय दरक गये.’

किंतु यह सब कहा नहीं.

धृतराष्ट्र चिंतित था. कुछ देर मौन ही रहा. फिर बोला- ‘संजय, उस भयंकर घोष ने मेरे पुत्रों का हृदय चीर दिया होगा.’

‘महाराज. आपके पुत्रों के विषय में तो मैं कुछ नहीं कह सकता; किंतु पृथ्वी और आकाश को उस उद्घोष और उसकी प्रतिध्वनि ने गुंजायमान कर दिया. वहां सब कुछ नाद के आघात से डोल रहा था, जैसे शंख न बजे हों, भूकम्प आया हो.’

‘पर उससे क्या. यह दुर्योधन कुछ नहीं समझेगा. वह यमराज के पगों की आहट को भी नहीं सुन पा रहा है.’ धृतराष्ट्र ने अपने दांत पीसे.

संजय की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. उन्हें लग रहा था कि अभी धृतराष्ट्र का सारा क्रोध अश्रुओं में परिणत हो जायेगा. तो वे आगे सुनायें या न सुनायें?

‘अर्जुन ने क्या किया? मेरे बेटों को ललकारा?’

‘नहीं. आपके पुत्रों की सैन्य-व्यवस्था देखकर कपिध्वज अर्जुन ने अपना गांडीव संवार कर हाथ में उठाया और प्रहार को उद्यत हुआ. तब तक कुछ अस्त्राsं का आदान-प्रदान हो चुका था.’ संजय ने बताया- ‘और फिर उसने इंद्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण से कहा…’

‘सभी अपनी इंद्रियों के स्वामी होते हैं. कृष्ण में ऐसी क्या विशेषता है कि उसे इंद्रियों का स्वामी-हृषीकेश-कहा जाये.’ धृतराष्ट्र खौंखिया कर बोला, ‘तुम्हारी इंद्रियों का स्वामी क्या तुम्हारा कोई पड़ोसी है. हं… बड़ा आया हृषीकेश.’

‘आपको बुरा लगा शायद.’ संजय ने कहा- ‘किंतु श्रीकृष्ण को इस अर्थ में इंद्रियों का स्वामी नहीं कहा जाता. मैं अपने विषय में तो जानता हूं और निस्संकोच कह भी सकता हूं कि मैं अपनी इंद्रियों को अभी अपने वश में नहीं कर पाया हूं. वे प्रायः मुझ पर शासन करने लगती हैं. मेरे मन को मथ कर प्रायः अपनी उचित-अनुचित इच्छाएं पूरी करवा लेती हैं… आपने सुना होगा, अष्टावक्र ने जनक से कहा था कि संसार तुम्हारे मन में है; और यह मन तुम्हारा नहीं है. हमारी इंद्रियां भी मनमानी करने लगती हैं. श्रीकृष्ण की इंद्रियां उनके साथ अपना मनमाना खिलवाड़ नहीं कर सकतीं. उनका बल श्रीकृष्ण पर नहीं चलता…’

‘अच्छा. अच्छा. यह बखान बंद करो.’ धृतराष्ट्र ने कहा- ‘यह बताओ कि अर्जुन ने क्या कहा.’

(क्रमशः)

(यह उपन्यास वाणी प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है.)

मार्च 2016

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