पीली रिबन  –  दामोदर खड़से

कहानी

इस बार डॉ. उषादेवी कोल्हटकर का पत्र आने में काफी विलम्ब हुआ. खाड़ी के युद्ध के कारण पत्र आने में देर हो रही थी. पत्र खोलते ही एक पीली रिबन बाहर निकली. चमकदार रेशमी पीली रिबन. आकर्षक और मोहक. बात समझ में नहीं आयी. परंतु जब पत्र पढ़ा तो बात स्पष्ट हुई. प्रारम्भ में ही उन्होंने लिखा था, ‘अमेरिका में दुगुनी खुशी है, एक तो जीत की और दूसरे युद्ध खत्म होने की. और दुनिया का वह खौफनाक युद्ध खत्म हुआ तो लोगों ने न्यूयार्क शहर में चारों ओर पीली रिबन बांध दीं. रोशनी का पर्व ज्यों प्रकाशित हो गया था. होटलों और सार्वजनिक स्थानों पर लोग सामूहिक रूप से खुशियां मना रहे थे और जहां तक नज़र पहुंचती शहर के चारों ओर पीली-पीली रिबन. आशा का प्रतीक झिलमिल पीला खूबसूरत रंग. इराक मलबे में अपना भविष्य तलाश करता रहा और अमेरिका विश्व विजय का सबसे बड़ा सेहरा बांधे गर्व से पीली रिबन का इतिहास खोज रहा था.’

बात लगभग तीस वर्ष पुरानी है. एक आदमी बस में बैठा-बैठा अपने आपको कोस रहा था. किसी भी पड़ाव पर वह न उतरता… दुखी और चिंतित लगता. जैसे-जैसे बस का अंतिम पड़ाव करीब आने को होता उसकी आंखों का कुतूहल, जिज्ञासा, डर उसे कचोटते और वह बेवजह शून्य में खिड़की के बाहर टकटकी लगाये रहता. जब उसकी पास वाली सीट पर बैठे सहयात्री से उसकी बेचैनी देखी नहीं गयी तो उसने अंततः पूछ ही लिया, ‘क्या बात है, आप बहुत दुखी लग रहे हैं… तबीयत तो ठीक है न!!’

पहले तो उस आदमी ने जैसे ध्यान ही नहीं दिया. उसकी आंखों का खूंखार सूनापन बगल के व्यक्ति को डरा गया. पर उसकी जिज्ञासा भी और बढ़ गयी. उसने फिर कुरेदा… इस बार उस वृद्ध व्यक्ति की आंखों से पानी छलकने लगा. लगा, गहरी ठेस के बाद ही आदमी ऐसा होता होगा. वह लगभग रुआंसा हो गया.

फिर उसने हिम्मत बटोरी और बोला, ‘मैं युद्ध कैदी था. अभी छूटकर आ रहा हूं. इस बीच मैं दुश्मन-देश के शिविरों में यातनाएं सहता रहा. अब मुक्त हुआ हूं. कितना अच्छा लगता है अपनी मिट्टी को देखकर. कितना बदल गया है सब कुछ. दुनिया कहां से कहां निकल गयी और मैं कैद में अपना भविष्य गिरवी रखे अपने वर्तमान को रोज मारता रहा. उम्मीदें छोड़ दी थीं, सभी तरह की. छूटने पर लगता है, अब मेरी ज़िंदगी में बचा ही क्या है. मैं किसके लिए बस में बैठा हूं. क्यों जा रहा हूं.’

ये बात नहीं कि मेरा उस छोटे-से गांव में कोई है, इसलिए मैं वहां जा रहा हूं. मेरा वहां कोई नहीं है. हेडक्वार्टर आने के बाद मालूम हुआ कि मेरे करीबी सारे या तो युद्ध में मारे गये या मेरे लापता हेने के दुःख में चल बसे. मेरी शादी नहीं हो पायी थी फिर मेरे अपने कैसे? यह भी एक अजीब दास्तान है. चलिए बात चल पड़ी तो बता ही देता हूं. मुझे भी राहत मिलेगी. और आपका रास्ता भी कट जायेगा.

दरअसल मैंने एक बहुत ही सुंदर लड़की से प्यार किया था. वह भी मुझे बेहद प्यार करती थी. हम शादी करने वाले थे. दोनों परिवार भी खुश थे. तभी युद्ध भड़क उठा और मुझे मोर्चे पर जाने का आदेश मिला. मैं जब मोर्चे पर जाने लगा तब उसने मुझे विदा देने के लिए इतना कस लिया आलिंगन में कि लगा मैं मोर्चे पर किसी काम का न रहूंगा. अनचाहे ही मुझे उसे अलग करना पड़ा. उसकी सपनीली आंखों में उतरे आंसुओं का सामना करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई. पर मैंने ही कहा था, ‘यदि जीवित आया तो…’ ‘बस’ उसने अपनी अंगुली मेरे होठों पर रख दी और कहा, ‘तुम ज़रूर आओगे और सही सलामत. तुम जब आओगे तो उसी पेड़ के नीचे तुम्हें मिलूंगी, जहां हम रोज मिला करते थे… तुम ज़रूर लौट आओगे… हम ज़रूर मिलेंगे.’ उसकी इस भावुक अनुभूति पर पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गया, मैं जब आऊंगा और तब तक यदि तुम इंतज़ार कर सकीं तो इसी पेड़ की एक डाल पर पीली रिबन बांध देना… मैं समझूंगा तुम्हें अब भी मेरा इंतजार है…

तब क्या पता था कि मुझे इतने दिन दुश्मनों की जेलों में सड़ना पड़ेगा. इतने सालों में मेरी कोई खोज-खबर भी कैसे  लेता. अब तो मैं बूढ़ा भी हो चुका हूं. मुझे तो डर है कि गांव में पेड़ तो क्या, स्वयं गांव भी बचा होगा या नहीं.

ऐसे में वह कहां पीली रिबन बांधेगी? और पेड़ यदि किसी तरह बच भी गया होगा तो वह अब तक क्यों बैठेगी मेरे लिए… फिर भी मैंने वहां से उसे लिख दिया… लगता है, मेरा शरीर ही सिर्फ बूढ़ा हो गया है और दुनिया में नयी-नयी सड़कें उग आयी हैं, पर मेरे
मन में आज भी उसका भावुक चेहरा ही आंखों पर उतरता है, जिसमें वह कहती है- ‘तुम ज़रूर आओगे. हम इसी पेड़ के नीचे मिलेंगे.’

…और मैंने उसे लिख दिया एक पत्र. पता नहीं उसे मिला भी या नहीं. अब तो वह दादी होगी अपने पोते-पोतियों के बीच. फिर भी मैंने यूं ही लिख दिया. इस बस से आ रहा हूं… यदि तुम्हें मेरी बात और अपनी इच्छा याद है तो उसी पेड़ पर पीली रिबन बांध देना, मैं तुम्हें कहीं भी खोज लूंगा.’

कितना उत्साह था उसकी बातों में. कितनी बेचैनी थी उसकी आंखों में. इतनी सारी कहानी सुनाकर वह अचानक फिर कहीं खो गया. फिर कहीं उसके भीतर बीती बातों की अंधी बाढ़ आयी और वह शून्य में बह गया. परंतु इस बगलवाली सीट के सहयात्री ने यह बात सबको सुनायी. स्त्राr-पुरुष, बड़े-बूढ़े सबने यह घटना सुनी और सहानुभूति में खो गये. सबके मन में जिज्ञासा थी, कुतूहल था और उसके जीवन में घटे इस भयंकर हादसे के प्रति हमदर्दी थी.

जैसे-जैसे उसकी बस गांव की ओर बढ़ती जा रही थी, सब उसकी कहानी का अगला पृष्ठ पढ़ने की जिज्ञासा में आगे बढ़ रहे थे और वह डर रहा था. अब तक जिसके लिए वह सांस ले रहा था, मृगजल ही सही आज वह सपना टूट जायेगा. आज के बाद जीने की उसकी वजह भी खो जायेगी. अब कहां जाएगा वह…

इस बीच सहयात्रियों में से किसी ने ड्राइवर को भी यह घटना सुना दी और यह तय हुआ कि बस सीधे उसी पेड़ के नीचे रोकी जाये. सहयात्रियों के लिए यह अवसर अद्भुत भी था और आश्चर्यजनक भी. जब बस उस पेड़ के नीचे पहुंची तब सबने देखा कि पेड़ पर इतनी पीली रिबन लगी हैं कि पेड़ की असली पहचान ही खो गयी है. वह तो मानो सपने में ही हो. उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था. उसके हाथ-पैर कांप रहे थे. कांपते हाथ से उसने जेब से चश्मा निकालकर आंखों पर चढ़ाया तो देखा चारों ओर पीली रिबन. सिर्फ उसी पेड़ पर नहीं, बल्कि जहां-जहां तक ऩजर जाती है सब पीला-पीला. उसकी आशा बंधी और वह पीछे मुड़-मुड़कर जिसे ढूंढ़ रहा था, वह सफेद कपड़ों में लाल गुलाबों का एक भरपूर गुच्छा लेकर उसकी ओर बढ़ रही थी. जवान लड़कियां उसे आगे बढ़ा रही थीं. उसने चश्मे को ठीक कर ऊपर देखा तो उसकी आंखें छलछला आयीं. इधर उसे तो कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा था और कुछ सूझ भी नहीं रहा था. तभी उसने उसके हाथों से फूलों का गुच्छा लेना चाहा और उसने उसे भरपूर आलिंगन में उसी तरह कस लिया. पूरा एक कालखंड उन दोनों के बीच विसर्जित हो चुका था. गांववालों ने संगीत की व्यवस्था भी की थी. और ऐसा लगा कि इस महोत्सव का इंतज़ार उसे अकेले को ही नहीं था. संगीत  के साथ गांववाले ही नहीं, बस के सारे सहयात्री भी नाचने लगे थे. उन दोनों को लगा अभी वे उतने बूढ़े नहीं हुए हैं… कदम थिरकने लगे… और देखते-देखते लहराती पीली रिबन की यह कथा आसपास की सीमाएं तोड़ चारों ओर फैल गयी. पीला रंग आशा का प्रतीक बन गया और रिबन इस आशा का साक्षात रूप…

आज भी जब युद्ध घोषित होता है तो पेड़ कांपते हैं, गांव उजड़ते हैं, उम्र अनाथ होती है और सब कुछ स्थगित हो जाता है… इसलिए डॉ. उषादेवी ने लिखा था कि अमेरिका के लोग उस पुरानी घटना-कथा को याद कर अपने प्रियजनों के स्वागत में, पूरी अमेरिकी सेना की वापसी पर न्यूयार्क शहर में जगह-जगह पीली रिबन बांधकर अपनी खुशियां जाहिर कर रहे हैं. मैंने अनुभव किया, लिफाफे से बाहर आयी उस रिबन में आज भी उस सैनिक की गुमनाम उम्र की दस्तक सुनाई पड़ती है.

मार्च 2016

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *