मैं राधा  –  उद्भ्रांत

फाग-राग

स्मृति के

काले बादलों के बीच

मोरपांख हंसती है

चुपके से

बिजली-सी चमक गयी तम में

रागिनियां कौंधीं सरगम में

अचरज है

भरी आंख हंसती है

चुपके से

प्राण-भवन में वसंत डोला

सांसों का पंछी यह बोला

‘खिड़की से कौन

झांक हंसती है चुपके से?’

केसर की छूटी पिचकारी

रंगी दिशा की सुंदर साड़ी

पल्लू में

नखत टांक

हंसती है चुपके से!

स्मृति की ऋतुओं में

मस्ती के

मादकता के बहुविध रंगों को

मन की अलबेली

उत्फुल्ला पिचकारी से

सभी दशों दिशाओं में बिखराती

फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की

नवमी के दो प्रहरों वाली

बरसाने की

असीमित आनंद की अनुभूति देती

वह होली की ऋतु भी;

चंदन से भी अधिक सुगंधित

ब्रज की माटी ही

बनी हो गुलाल जहां;

और जमुना के जल में भीगे हुए

टेसू के फूलों से बरसता था

खिली धूप जैसा पीताम्बरी रंग-

मुझको

ब्रज की गोपियों को

और तुम्हें

एक ही रंग में रंगने!

और जिसमें

तुम्हारे अधराधरों के

चुम्बन के लिए

सदा तत्पर रहने वाली

दुष्ट वंशी को तुमसे छीन

तुम्हारी सुकोमल पीठिका पर

उसी से प्रहार किये थे मैंने

और तुम-

अपनी इस राधा-वंशी की

सम्प्रीति-धारा के

अनोखे आराधन वाले-

हर नये स्वर-प्रहार के संग

अधिकाधिक

प्रमुदित-आनंदित होते हुए

और खिलखिलाते हुए

प्राणों के द्यु-लोक में प्रवाहित और

दिव्यतम विचार-क्षीरसागर से निसृत

अपनी गुरु-गम्भीर वाक्गंगा को

करते हुए स्थगित

जमुना की कल-कल लहरों वाले

झिलमिल रसवर्षी बिम्बों से

धाराधार मुझे

भिगोते हुए

यहां से वहां और

वहां से वहां भागते-छिपते

आंख-मिचौनी कभी

लुका-छिपी जैसा कुछ खेलते

कैसा वह

भावातीत दृश्य था विरल

देखकर जिसे-

बरसाने की समस्त गोपियां

अपने-अपने घरों में

ढोर-डंगर हांकने के लिए रक्खे

बड़े-बड़े लट्ठ ले

पहुंच गयीं गांव की चौपाल बीच

और वहां उपस्थित

ग्वालों-गोपालों की पीठों पर

बरसाने लग गयीं

उन्हें बांसुरी की तरह!

ग्वालों की पीठों पर

पड़ती लाठियों की गूंज

शनैः-शनैः परिवर्तित हो जाती

वंशी से निसृत

मनमोहक रागों में

लट्ठमार होली वह कहने को

वह तो थी

मेरे ही द्वारा आविष्कृत

माधव की वंशी से

उसी की पिटाई करने वाली

लाल, गुलाबी, नीले, पीले

रंगों के

विविध स्वरों की

बौछारों से वस्त्राsं अधोवस्त्राsं को

भिगोती हुई उन्हें

तुम्हारे सुगठित

देह-छंद से करती

एकाकार-झंकृत

और यों-

‘रमा’ को भावना के

आवेग से पलटकर

‘मार’ को लज्जा से भरती-

प्रताड़ित करती हुई-

‘वंशीमार’ होली!

जोकि ध्वनित और प्रतिध्वनित होती

गोप-गोपिकाओं की

लट्ठमार होली में;

उनके अधरों से उल्लसित होते

ब्रज के रस से आप्लावित होली गीत

‘लला, फिर आइयो खेलन होली’

और

‘आज बिरज में होली आई रे रसिया’

की तान छेड़ते रसिया गीतों में;

यहां तक कि-

ढोलक की थापों और

मंजीरों की झन-झन की लय पर

ब्रज की बइयरों द्वारा

गायी जाने वाली

मिसरी-सी मीठी

मक्खन-सी कोमल

और जामुनों-जैसी खटमिट्टी-

ब्रज थेठ परम मौलिक गारियों में!

कौंधती है स्मृति में

उसे अति समृद्ध

और नव्यतम बनाते हुए

रंगों की फुहारें छोड़ती हुई

अविस्मरणीय होली वह-

नंदग्राम की पृथ्वी से लेकर

बरसाने के असीम नभ तक को

काम धेनुओं वाले

गोकुल के वासियों को

पंक में नहीं- उज्जवल, शीतोष्ण

दुग्ध-धरों में सराबोर करती

और मां वृंदा (के) वन को

अपने वासंती संस्पर्श की बयार से

करती हुई विभोर;

मस्ती भरे भागों से

प्राण के गुह्यतमतल से उठकर

चेतना के

ओर-छोर तक फैलने वाले

अनहद रागों से

करती जो गुंजायमान;

और जो-

मृत्यु के अंधेरे रास्ते पर

अग्रसर होते वृद्धजनों

और रुग्णजनों के

निस्तेज नेत्रों को भी

असामान्य दिव्य सुख देने वाली

एक चमक से भरती

उनके अस्ताचलगामी मुखमण्डल को भी

वह कर देती प्रकाशित

स्मृति के उत्सव-पर्वों में

मलिनता के होलिका-दहन के बाद

प्रातकाल सूर्योदय के बाद प्रारम्भ हो

चढ़ते हुए सूर्य के दो प्रहरों तक

चरमोत्कर्ष तक पहुँचा पर्व वह

विलक्षण था

स्यात्, इसलिए-

जिसमें

मैं राधा-

अयि माधव!

मन की सम्पूर्ण गहराइयों से

प्राण के समस्त आयामों के साथ

तुम्हारी-

हां, मात्र तुम्हारी ही

हो

ली!

(कवि की बहुचर्चित कृति ‘राधामाधव’ के अंतिम सर्ग ‘अनादि-अनंत’ का एक अंश)

मार्च 2016

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