आवरण–कथा
कभी–कभी कुछ बुरी लगने वाली बातों से कुछ अच्छा निकल आता है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय काण्ड भले ही दुर्भाग्यपूर्ण था, पर उससे एक बहस तो शुरू हुई कि राष्ट्र क्या होता है. भ्रम की जो स्थिति बनी है, उसका कारण एक राज्य– एक राष्ट्र की वर्तमान अवधारणा है. इन दोनों का एक होना ज़रूरी नहीं है. एक राज्य में कई राष्ट्र हो सकते हैं, और एक राष्ट्र भी कई राज्यों का समूह हो सकता है.
उदाहरण के लिए चौथाई सदी पहले तक यूएसएसआर में लातीविया, जार्जिया, कजाकिस्तान, आर्मेनिया, उज्बेकिस्तान आदि कई राष्ट्र शामिल थे. युगोस्लाविया में भी एक से अधिक राष्ट्र थे. हमारा भारत भी आदिकाल से एक राष्ट्र था, पर इसमें बहुत से राजा थे. सिकंदर के आक्रमण के समय नंद साम्राज्य के साथ ही यहां बहुत से गणतंत्र थे. भगवान बुद्ध का जन्म एक गणतंत्र में ही हुआ था. नर्मदा के उत्तर में राजा हर्षवर्धन का राज्य था और दक्षिण में पुलकेशिन का. जर्मनी बरसों तक एक राष्ट्र रहा, पर 1945 से 1990 के बीच यह दो राज्यों में बंटा हुआ था.
राष्ट्र और राज्य के अंतर को हमेशा याद रखना होगा. राजा एक राजनीतिक इकाई है जो कानून से चलती है. कानून प्रभावकारी हो, इसके लिए राजा को शक्ति की आवश्यकता होती है. राजनीतिक चिंतक एर्नेस्ट बर्कर के शब्दों में ‘राज… एक कानूनी एसोसिएशन है– कानूनी रूप से संगठित राष्ट्र अथवा कानूनी व्यवस्था के अंतर्गत कार्य करने के लिए संगठित एक राष्ट्र. इसका अस्तिव कानून के लिए है– यह कानून में और कानून के द्वारा अस्तित्व में रहता है. कानून से हमारा मतलब कानूनी नियमों का पुलिंदा मात्र नहीं है तो हम यह भी कह सकते हैं कि कानून के रूप में इसका अस्तित्व है. हां, इसके लिए ज़रूरी है कि यह ऐसे प्रभावकारी कानूनों की क्रियात्मक प्रणाली हो जो वास्तव में वैध हो और नियमतः लागू होती हो. राज्य का मूल प्रभावकारी नियमों का जीवंत स्वरूप है और इस अर्थ में राज्य कानून है.’
वे सब जो कानूनी ढांचे का पालन करते हैं वे इसके नागरिक बन जाते हैं. राष्ट्र का अर्थ है जनता. राष्ट्र बनने के लिए तीन मुख्य शर्तें हैं– पहली, जिस ज़मीन पर रहती है उसके प्रति जनता की भावनाएं. जो यह मानते हैं कि ज़मीन उनकी मातृभूमि है वे एक रष्ट्र होते हैं. यहूदियों को उनकी मातृभूमि से खदेड़ दिया गया था, और 1800 साल तक वे विभिन्न देशों में रहे. पर वे कभी नहीं भूले कि फिलस्तीन उनकी मातृभूमि है. दूसरी शर्त है साझा इतिहास. आखिरकार इतिहास अतीत में घटी घटनाएं ही तो होती हैं. इन घटनाओं में से कुछ के प्रति गर्व की अनुभूति होती है और कुछ लज्जा का कारण बनती हैं. इतिहास की घटनाओं के प्रति खुशी और पीड़ा की एक जैसी भावनाओं वाले एक राष्ट्र बनाते हैं. तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त है एक मूल्य–प्रणाली में आस्था. यही मूल्य प्रणाली संस्कृति कहलाती है. दुनिया के सभी राष्ट्र ये तीनों शर्तें पूरी करते हैं. हमारे देश में ही इन शर्तों को लेकर विवाद हैं.
भारत माता की जय और वंदे मातरम् का नारा लगाने में गर्व महसूस करने वाले कौन लोग हैं? राम, कृष्ण, चाणक्य, विक्रमादित्य, राणा प्रताप और शिवाजी तक अपना इतिहास मानने वाले कौन लोग हैं? वे कौन हैं जिनकी साझी मूल्य–प्रणाली है? इस मूल्य प्रणाली का एक मुख्य सिद्धांत है विश्वासों और धर्मों की बहुलता में विश्वास करना. सारी दुनिया इन लोगों को हिंदू के रूप में जानती है. इसलिए यह हिंदू राष्ट्र है. इसका इस बात से कुछ लेना–देना नहीं है कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक; आप मूर्तिपूजा में विश्वास करते हैं या नहीं, आप वेदों को मानते हैं अथवा किसी अन्य धार्मिक ग्रंथ को. हमारे संविधान निर्माता इस बात को समझते थे. इसीलिए संविधान की धारा 25 में कहा गया है कि ‘हिंदू शब्द में सिख, जैन और बौद्ध धर्मावलाम्बियों का भी समावेश है.’ यह ईसाइयत और इस्लाम को मानने वालों पर लागू क्यों नहीं होना चाहिए?
सत्रह साल तक मैं एक ईसाई कॉलेज में पढ़ाता था. 1957 में एक वरिष्ठ ईसाई प्राध्यापक ने मुझसे पूछा क्या वे आर.एस.एस. के सदस्य बन सकते हैं. मेरे हां कहने पर उन्होंने सवाल किया, ‘इसके लिए मुझे क्या करना होगा?’ मैंने उत्तर दिया– ‘आपको न चर्च छोड़ना पड़ेगा, न बाइबिल में विश्वास. आप ईसा मसीह में अपनी आस्था भी बनाये रख सकते हैं. पर आपको अन्य विश्वासों, धर्मों की वैधता को भी स्वीकारना होगा.’ इसपर उन्होंने कहा– ‘मैं यह स्वीकार नहीं कर सकता. यदि मैं यह स्वीकारता हूं तो अपने धर्म का प्रसार नहीं कर पाऊंगा.’ इस पर मैंने कहा– ‘तब आप आरएसएस के सदस्य नहीं बन सकते.’
‘हिंदू’ के बारे में हमारी समझ में जो भ्रम है वह हिंदूवाद को एक पंथ मानने के कारण है. यह धर्म नहीं है. फ्रांसीसी दार्शनिक एर्नेस्ट रेनन ने अपनी पुस्तक ‘व्हाट इज ए नेशन’ में लिखा है, ‘मिट्टी आधार देती है, संघर्ष के लिए मैदान देती है, मनुष्य आस्था, प्राण देता है. जिसे हम जनता कहते हैं उस पवित्र चीज़ के निर्माण में मनुष्य सबकुछ होता है. जो कुछ भी भौतिक है. वह पर्याप्त नहीं है. राष्ट्र एक आध्यात्मिक सिद्धांत है, इतिहास की जटिल कार्य पद्धति का परिणाम, एक आध्यात्मिक परिवार न कि पृथ्वी की संस्थिति से निर्धारित कोई समूह.’
‘दो वस्तुएं, जो वस्तुतः एक ही हैं इस प्राण अथवा आध्यात्मिक सिद्धांत का निर्माण करती हैं. इनमें से एक अतीत में होती है और दूसरी वर्तमान में. एक स्मृतियों की समृद्ध विरासत है और दूसरी है वास्तविक समझौता, साथ रहने की इच्छा और साझी विरासत से अधिकाधिक लाभ उठाने का संकल्प. व्यक्ति को अनायास नहीं बदला जा सकता. व्यक्ति की ही तरह राष्ट्र भी मेहनत, बलिदान और निष्ठा के एक लम्बे अतीत का फल है. अतीत के वैभव को साझा करना और वर्तमान की सामूहिक इच्छा के साथ मिलकर महान कार्य करना और और अधिक करने की इच्छा– ये ज़रूरी शर्तें हैं एक राष्ट्र के बनने की.’
रेनन का कहना है- राष्ट्र बनने के लिए एक भाषा या एक धर्म अथवा आर्थिक हितों वाले एक समुदाय की आवश्यकता नहीं होती. सिर्फ एक भावना होनी चाहिए, संवेदनशीलता होनी चाहिए, एक मूल्य-प्रणाली होनी चाहिए. क्या राष्ट्र की इस अवधारणा को संकुचित और खतरनाक कहा जा सकता है?
मई 2016
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