आत्मा के द्वारा आत्मा का प्रतिकार करना मनुष्य या समूह के व्यक्तित्व का विकास करने के लिए आवश्यक है. इसके बिना भावना या गतिशील एकता सम्भव ही नहीं है. परंतु किसी प्रकार का प्रतिकार करने के लिए जैसे शक्ति आवश्यक है, वैसे ही शक्ति को निरंतर बहाते रहने वाला अक्षय झरना भी चाहिए. इस शक्ति की पूर्ति का काम संवेग करता है. संवेग व्याकुलता है. वह एकाग्र श्रद्धा और उत्साह से उद्भव पाती है. साधारणतया हमारे काम राग, भय और क्रोध से प्रेरित होकर होते हैं. यह तीन बटमार बड़े खाऊ हैं. उनकी जगह अब संवेग के शुद्ध निर्झर को व्यवस्थित करना है. जीवन स्वामियों को अनुभव से यह निर्झर ईश्वर प्रणिधान, शरणागति अथवा समर्पण मिला है.
ईश्वर के अस्तित्व के बारे में बहुत समय तक मेरा मन असमंजस में पड़ा रहा था. फ्ऱेंच बुद्धिवादियों को पढ़कर मैं अनीश्वरवाद पर पहुंचा. फिर मेरी प्रतीति बन गयी कि मनुष्य के सीमित ज्ञान से ईश्वर का ज्ञान असम्भव है. गीता का जीता-जागता ईश्वर भी मेरा मन ग्रहण नहीं कर सका. फिर मुझे समझ आया ईसा, चैतन्य और रामकृष्ण में जो नितांत सुंदरता है वह ‘सर्वतो भावेन ईश्वर’ की शरण जाने से ही उत्पन्न होती है. इसके बिना ईश्वर– इसे कहना हो तो पूर्णता कहिए – कभी भी हमारे हृदय में वास नहीं कर सकता. इसके बिना एकता (जिसे गीता ने भावना कहा है) सिद्ध नहीं होती.
(कुलपति के. एम. मुनशी भारतीय विद्या भवन के संस्थापक थे)
(मार्च 2014)