सुनो खदीजा! सुनो द्रौपदी!  – अमृता प्रीतम

नारी-विमर्श

एक सफेद कागज़ है, जिस पर कुछ काले अक्षर खामोश से पड़े हैं. और फिर मेरे देखते-देखते उनमें कुछ हरकत आती है, कुछ कंपन-सा आता है.

देखती हूं- वे अक्षर फिर आहिस्ता-आहिस्ता रेंगते हुए मेरी उन उंगलियों पर सरकने लगते हैं, जिन उंगलियों से मैंने वह कागज़ पकड़ा हुआ है.

बड़ी होशमंदी से मैं खुद को याद दिलाती हूं कि यह सैयदा गजदर की नज़्म है जो अभी डाक से आयी है. लेकिन वह मेरी याददाश्त फिर कहीं गर्क हो जाती है, और मुझे लगता है कि यह सफेद-सा दिखता कागज़ मांस का एक कोमल-सा बदन है, और उसमें से कतरा-कतरा खून रिस रहा है.

लेकिन खून तो सुर्ख होता है? मैं फिर कुछ होशमंदी की तरफ लौटती हूं, और वह तर्क खोजने लगती हूं, जिससे मैं सुर्ख खून के कतरों से, इस काली स्याही के कतरों को अलग कर सकूं.

मैं जो तर्क खोज रही थी, वह मिलता है, पर देखती हूं कि वह मेरे सामने आंखें झुकाये खड़ा है. और फिर आहिस्ता से उसकी आंखों में एक और तर्क आंसू की तरह भर आता है, जो कहता है-

मातमी झंडियां फड़फड़ा रही हैं

कनीजें बागी हो गयी हैं

वे दो सौ औरतें जो सड़कों पर निकली थीं

चारों तरफ से घिरी हुई थीं

मुसल्ला फौज़ के पहरे में थी

आंसू गैस, राइफलें, बंदूकें,

वायरलैस वैन और जीपें…

मुझे अखबार की वह खबर याद आती है कि खदीजा के देश में अभी हाल ही में दो सौ औरतों ने सड़क पर निकल, यह कहने की जुर्रत की थी वे इनसान हैं. और पुलिस ने उनकी नाकाबंदी कर ली थी.

वह तर्क कहता है- यह वही तो खदीजा है, जो अब गजदर बन गयी है, और इसीलिए सुर्ख खून के कतरे काले अक्षर हो गये हैं.

मैं तर्क को मान लेती हूं, और काले अक्षरों को पढ़ती हूं, लिखा है-

इनसान! यह तुमने कैसे समझा

कि मैं तुमको पैदा करती हूं, और तुम्हारे सामने शरमाकर

सच कहने से घबराऊंगी-

जो हम दोनों के दरमियां

यह मोहब्बत… नफरत… इज़्ज़त… और हिकारत का रिश्ता है…

मैं तड़पकर उन पलों को सिसकते हुए देखती हूं, जब, जिन पलों में मेहब्बत का रिश्ता नफरत का रिश्ता भी बन जाता है, जब, जिन पलों में इज़्ज़त का रिश्ता हिकारत का रिश्ता भी बन जाता है, और जब, जिन पलों में, सुर्ख खून के कतरे… काले अक्षर बन जाते हैं.

कागज़ के अक्षर मेरी उंगलियों पर से सरकते, मेरी बांहों से गुज़रते, मेरे कंधों पर सदियों की दास्तान बनकर बैठ गये हैं. और ऊंची आवाज़ में हवाओं से कह रहे हैं-

तुम मुझसे इनसान का दर्जा छीनते हो?

मैं तुम्हें जन्म देने से इनकार करती हूं

क्या मेरे जिस्म का मसरफ यही है

कि पेट में बच्चा पलता रहे

तुम्हारे लिए तैयार होती रहे

अंधे, बहरे, गूंगे गुलामों की फौज

हवाओं से कहे हुए अल्फाज सीमा को लांघ जाते हैं, और यह बात सिर्फ खदीजा के देश की नहीं रहती, फातमा के देश की ही नहीं रहती, मरियम के देश की भी हो जाती है.

सैयदा गजदर की कलम उनके देशों को मुखातिब होते हुए कहती है-

सुन मरियम! सुनो खदीजा! सुनो फातमा!

कानून और अख्यितार उन हाथों में हैं

जो फूल, इल्म और आज़ादी के खिल़ाफ फैसले सुनाते हैं

वो सारे-हाकम और वक्त का सिक्का माने जाते हैं

उनके कानून कहते हैं

तुम घर की मलिका हो! बच्चे की मां हो

तुम सिर झुकाये

खिदमत करती कितनी अच्छी लगती हो

तुम कितनी महफूज और पुरवकार हो

बुलंद मुकाम और जन्नत की हकदार हो

इसलिए तुम्हारे भले को बताते हैं

और तुम्हें ‘दो औरतों’ की गवाही समझाते हैं

एक तर्क-सा फिर मेरे सामने आता है, और कहता है- ‘तू जानती है न, कि दुनिया में एक ऐसा देश भी है, ऐसा कानून भी, कि जिस जगह, जिस काम के लिए, एक मर्द की गवाही काफी होती है. वहां, उसी काम के लिए दो औरतों की गवाही ज़रूरी समझी जाती है. यानी दो औरतों की गवाही मिलकर एक मर्द की गवाही के बराबर होती है.’

फिर मैं नहीं, एक तर्क ही उस तर्क से कहता है- ‘कुछ कानून लिखे हुए होते हैं, कुछ अनलिखे. और अनलिखे कानून ये भी हैं कि हजार कनीजों की गवाही भी एक हाकिम की गवाही के बराबर नहीं होती. हजार मज़लूमों की गवाही भी एक ताकतवर की गवाही के बराबर नहीं होती.’

मैं फिर कागज़ की तरफ देखती हूं, उसके अक्षर बोलते हैं-

आप ‘दो’ कहते हैं?

हम ‘दो करोड़’ औरतें हैं

जो इस जुल्म और जबर के खिल़ाफ गवाही देंगी.

और सैयदा गजदर की कलम के अक्षर मेरे कंधों पर से छलांग लगाकर मेरी स्याह रग तक पहुंच जाते हैं. और मैं तड़प कर कहती हूं- ‘गजदर! मेरी द्रौपदी के देश की गिनती को तूने अपनी गिनती में शामिल क्यों नहीं किया? तुम कैसे भूल गयीं कि मेरी द्रौपदी जुए की एक वस्तु की तरह राजसभा में खेली गयी थी… और अब भी मेरी द्रौपदियां विवाह मंडपों में कीमती वस्तु की तरह खेली जाती हैं और भिक्षा की वस्तु की तरह दान दी जाती हैं…’

और मैंने हाथ में कलम लेकर गजदर की कलमवाले कागज़ पर एक नाम का इज़ाफा कर दिया है.

अब वह नज़्म सिर्फ खदीजा को मुखातिब नहीं रही, कह रही है- सुनो खदीजा! सुनो द्रौपदी!   

मार्च 2016

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