होली उल्लास का पर्व है और हास उल्लास की एक अभिव्यक्ति. जब व्यक्ति मुस्कराता अथवा हंसता है तो उसका चेहरा ही नहीं, उसका मन भी खिल उठता है. चेहरे का खिलना सब देखते हैं और मन का खिलना व्यक्ति स्वयं अनुभव करता है. उल्लास की यह प्रतीति- अभिव्यक्ति और भी कई रूपों में सामने आती है. पता नहीं होली का त्योहार इसी अभिव्यक्ति का एक अवसर है अथवा इस अवसर के लिए होली को पर्व के रूप में स्वीकार किया गया है, लेकिन यह हम सब जानते हैं कि होली से हास- परिहास का एक सीधा हास्य के साथ एक शब्द और जुड़ा है- व्यंग्य. जब हम कोई व्यंग्य पढ़ते हैं या सुनते हैं तो अनायास चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. हो सकता है इसीलिए व्यंग्य को हास्य से जोड़ दिया गया हो, और इसीलिए यह मान लिया गया हो कि व्यंग्य हास्य का मुखौटा लगाकर ही प्रकट हो. लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि व्यंग्य हास्य की उत्पत्ति करे ही. छोटे से केले के छिलके पर किसी मोटे व्यक्ति को फिसलता देखकर हंसी आना भले ही अशिष्टता हो, पर हंसी आ जाती है. इस हंसी के साथ व्यंग्य कहीं नहीं जुड़ा. लेकिन जब छोटे और बड़े के इस रिश्ते को फिसलन के उस दर्पण में देखा जाता है, जो किसी ने यह दिखाने के लिए सामने रखा है कि ‘बड़े’ की गर्वोक्ति वस्तुतः कितनी छोटी है, तब स्थिति भी बदल जाती है और उसका अर्थ भी. विसंगतियों को सामने लाने, उन्हें सही ‘ाoम’ में रखने और ऐसा करके किसी सुधार की ओर इशारा करने की प्रक्रिया की व्यंग्यकार की दृष्टि से स्थितियों को देखना कहा जा सकता है. यह देखकर भी चेहरे पर मुस्कान तो आ सकती है, पर भीतर मन में खुशी नहीं, एक पीड़ा जनमती है. हो वस्तुतः व्यंग्य विसंगतियों के खिलाफ़ एक संघर्ष है, पर इस संघर्ष की विशेषता यह है कि इससे कटुता नहीं जनमती, एक प्रकार की करुणा का भाव जगता है. इस करुणा में आक्रोश भी है और विकृतियों से उबरने की एक सात्विक कोशिश भी. होली के पर्व के उपलक्ष्य में ‘नवनीत’ इस बार हास्य-व्यंग्य का एक पिटारा लाया है आपके लिए. हमने देश कुछ जाने-माने व्यंग्यकारों से एक सवाल पूछा था, व्यंग्य किसलिए? उनका जवाब है, इसलिए व्यंग्य… इसके साथ ही कुछ चुने हुए व्यंग्य-आलेख भी हैं जो होली के रंगों का ‘स्वाद’ देंगे. होली मुबारक हो!
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