बोधकथा
मिट्टी ने मटके से पूछा- ‘मैं भी मिट्टी तू भी मिट्टी, परंतु पानी मुझे बहा ले जाता है और तुम पानी को अपने में समा लेते हो. वह तुम्हें गला भी नहीं पाता, ऐसा क्यों?’ मटका हंसकर बोला- ‘यह सच है कि तू भी मिट्टी है और मैं भी मिट्टी हूं. पर मेरा संघर्ष अलग है. पहले मैं पानी में भीगा, पैरों से गूंथा गया फिर चाक पर चला कुम्हार के. थापी की चोट, आग की तपन को झेला. संघर्ष झेलकर पानी को अपने में रखने की ताकत मैंने पायी.
मंदिर की सीढ़ियों पर जड़े पत्थर ने मूर्ति के पत्थर से पूछा- ‘भाई तू भी पत्थर मैं भी पत्थर पर लोग तुम्हारी पूजा करते हैं और मुझे पैरों से रौंदकर, बिना ध्यान दिये चलते हैं. ऐसा क्यों?
मूर्ति के पत्थर ने उत्तर दिया- क्या तू मेरे संघर्ष को जानता है? मैंने इस शरीर पर कितनी छैनियों के प्रहार सहे हैं, मुझे कई बार घिसा गया है, मार और संघर्ष की पीड़ा को सहकर ही मैं इस रूप में आया हूं. संघर्षों की भट्टी में तपकर ही ‘जीवन’ स्वर्ण बनता है.
प्रस्तुति – श्रीकांत कुलश्रेष्ठ
अप्रैल 2016
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