दृष्टि
जब संसद में प्रवेश किया तो मेरे एक वामपंथी मित्र ने मज़ाक में एक जुमला कहा, जो आज की राजनीति पर उनकी टिप्पणी थी- मेंटेन द प्रेस्टीज ऑफ लेफ्ट. इन्जॉय द प्रिविलेज ऑफ राइट. यानी वामपंथी जिस तरह सादा रहते हैं, जैसा उनका विचार होता है, उस तरह रहिए, लेकिन व्यवस्था जो सांसद को सुविधाएं देती है, उसका उपयोग करने के लिए दक्षिणपंथी की तरह जीवन जियें. माना जाता है कि राइट यानी दक्षिणपंथ के लोगों को इसमें बहुत संकोच नहीं होता. वे पूंजीवाद-बाज़ारवाद के समर्थक होते हैं. सेंट्रल हॉल में, जहां हम सब बैठते हैं, वहां देश में हुए बड़े नेताओं की तस्वीरें हैं. उसी हॉल में कई ऐसे लोग बैठते रहे हैं, जो हमारी युवा दिनों की स्मृति में हैं. भूपेश गुप्त, ज्योतिर्मय बसु, प्रो. हीरेन मुखर्जी, ऐरा सेझियन, प्रकाशवीर शास्त्राr, अटल बिहारी वाजपेयी, मधु दंडवते, इंद्रजीत गुप्त, समर गुहा, चंद्रशेखर वगैरह. यह मैं एक्रॉस द पार्टी लाइन कह रहा हूं. उनके डिबेट्स आप पढ़िए. संसद में बेहतरीन लाइब्रेरी है. वहां उनके डिबट्से हैं. उन भाषणों से लगता है कि वह मुल्क जो तब आर्थिक प्रगति की दृष्टि से शायद दुनिया में सबसे पीछे रहा हो, लेकिन वैचारिक समृद्धि और चरित्र की दृष्टि से यह मुल्क बहुत आगे रहा है. आज संसद की बहस में वह वर्ग दिखाई नहीं देता है. राजनेताओं का वह वर्ग दिखाई नहीं देता. सुप्रीम कोर्ट से कोल ब्लॉक पर बड़ा फैसला आया, उसमें एक टिप्पणी है कि 33 क्रीनिंग कमेटियां थीं और सबने गलत फैसले लिये. जहां इस तरह की स्थिति हो जाए कि जो शासन करते हैं, वे गलत फैसले लेने लगें, तो सचमुच व्यवस्था को चलाना मुश्किल है. जहां हम सब बैठते हैं, उसके बारे में स्पष्ट है कि यह ‘टेम्पल ऑफ डेमोक्रेसी’ (लोकतंत्र का मंदिर) है. हम शुरू से यही पढ़ते भी रहे हैं. लगातार अखबार में हम सब छापते रहे हैं कि संसद का सत्र इंट्रप्शन-डिस्ट्रप्सन (कामकाज न होना) से प्रभावित होता है. हरेक मिनट पर लाखों रुपये खर्च हों और वह संसद अच्छी तरह काम न कर पाये, यह संदेश देश में है. लेकिन 16वीं लोकसभा या इस संसद में 27 दिनों तक पूरी कार्यवाही चली. कुल 167 घंटे काम हुआ. 13 घंटे 51 मिनट ही यह बाधित रही. इसके ठीक विपरीत 2013 के बजट सत्र में 19 घंटे 36 मिनट काम हुए थे. 167 घंटे काम हुए ही नहीं. महत्त्वपूर्ण अखबार ‘द हिंदू’ की टिप्पणी थी- एक दशक में सबसे प्रोडक्टिव सत्र. 2005 के मानसून सत्र के बाद सबसे अधिक कामकाज का सत्र. पर इस संसद में भी जब बाधाएं आती हैं, तो क्या होता है? मैं एक प्रसंग आपको बताता हूं. जब बैठता हूं, तो हर दिन कुछ-कुछ बातें नोट करता हूं. फर्ज़ कीजिए कि हम सब राज्यसभा में बैठे हैं. प्रश्नकाल चल रहा है, जिसमें यह कल्पना की जाती है कि हम सब महत्त्वपूर्ण सवाल उठायें, तो सरकार उसका जवाब दे. सरकार इस सच से बचना चाहती है क्योंकि मंत्री प्रश्नकाल के लिए तैयार होकर नहीं आते हैं. इधर विपक्ष में कुछेक लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें लगता है कि वह सत्र को बाधित कर अपना फर्ज पूरा कर लेंगे. ज़ीरो ऑवर, अनेक महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा. उसमें सवाल आप उठा सकते हैं. पर जब सत्र बाधित होता है तो चेयरमैन खड़े होकर सबसे बैठने को कहते हैं. परम्परा है कि उनके खड़े होने पर सब बैठ जायें, पर अब इसका भी पालन नहीं होता. आज से 10-15 वर्ष पहले यह परम्परा थी कि चेयरमैन अगर खड़े हो जायें, तो सारे लोग स्वतः बैठ जाते थे. समाज का चरित्र वहां भी दिखाई देता है. अगर आंध्र ने कोई मामला उठाया तो आंध्र और तेलांगना के बीच ऐसे बात होती है, जैसे भारत और पाकिस्तान के बीच हो रही है. अगर तमिलनाडु का कोई प्रसंग उठ गया तो एआइएडीएमके और डीएमके के बीच ऐसे संवाद होते हैं, जैसे दो शत्रु देशों के बीच बात हो रही है.
सरकार पर अंकुश रखने या सरकार के कामकाज पर पकड़ रखने के लिए संसद की समितियां बनीं. परम्परा थी, जो आचरण था या आदर्श कि जब एक व्यक्ति बोलने के लिए खड़ा होता था तो दूसरा बैठ जाता था. सदन के अंदर जो व्यक्ति उपस्थित नहीं है, उसकी या अधिकारियों के तो नाम लेकर कभी चर्चा नहीं होती थी. पहले की बहसें उठा कर आप देखें. आप ऐसा पायेंगे. पर आज यह आम चीज़ हो गयी है. इस कारण संसद की जो कार्यप्रणाली है, उससे बेहतर कमेटियों की कार्यप्रणाली है. आप जिस भी मंत्रालय की समिति में हैं, बढ़िया से काम करें तो समिति के माध्यम से सरकार पर आप अंकुश रख सकते हैं या सरकार को आप बाध्य कर सकते हैं कि वह बेहतर तरीके से काम करे. हमारे सांसद यह कोशिश करें कि जिन-जिन समितियों में वे हैं, अगर मंत्रालयों पर कारगर तरीके से दृष्टि रख सकें तो यह सम्भव है. मैं भी दो-तीन समितियों में हूं. एक समिति की अभी कुछ दिनों पहले मीटिंग थी, उसका मुझे अनुभव हुआ. जब समिति से निकलते हैं हमारे साथी तो उन्हें मीडिया के लोग घेर लेते हैं. समितियों की कई बातें ऐसी होती हैं जो किसी शर्त पर सार्वजनिक नहीं होनी चाहिए. मैं मीडिया में रहते हुए यह मानता हूं. लेकिन अनुभव न होने की वजह से कई चीज़ें, जिन्हें सार्वजनिक नहीं होना चाहिए, हो जाती हैं. इन समितियों के माध्यम से लगा कि देश की स्थिति जिन चीज़ों में खराब है, उसकी सार्वजनिक जानकारी लोगों को बहुत कम है. हमारी अकुशलता से साफ दिखाई देता है कि हम कहां पीछे हो गये हैं. मैं कुछ कारणों से उन चीज़ों में बहुत अंदर तक नहीं जाना चाहूंगा. लेकिन बहुत संक्षेप में दो-तीन बातें. अभी हाल में एक बड़े विदेशी पत्रकार की किताब आयी. लोकसभा चुनावों के दौरान. पुस्तक का नाम था- इंप्लोजन. इसके लेखक थे, जॉन इलियट. हम में से हरेक सजग भारतीय को यह किताब देखनी चाहिए. इंप्लोजन का आशय हुआ, अंतर्विस्फोट. जहां हम बैठते हैं, उस पार्लियामेंट के सेंट्रल हॉल में वो मशहूर जुमला याद आता है, मुहावरा याद आता है, जो पूरी दुनिया में उद्धृत होता है- ट्रिस्ट विद डेस्टिनी (नियति से मुठभेड़) आज़ादी की आधी रात, पंडित नेहरू का कहा. जॉन इलियट इस किताब में कहते हैं कि भारत, अब इस दौर में नियति से मुठभेड़ करने की स्थिति में नहीं है. यह ट्रिस्ट विद रियलिटी (असलियत से मुठभेड़) के दौर में है. और असलियत क्या है. उनके अनुसार भारत अन-गवर्नेबल इंडिया (अशासित मुल्क) है. यह जुगाड़ से चलता है. एक मुहावरा उन्होंने और इस्तेमाल किया है. यही भाग्य है, यह हिंदू मानस रहा है. फिर वह आगे कहते हैं- भारत का स्वार्थी वर्ग देश में प्रभावी शासन नहीं चाहता. गवर्नेन्स के मामले में जिले से लेकर दिल्ली तक की स्थिति पटरी से उतर चुकी है. शायद हमारे भारतीय मानस-अवचेतन में यह बात है कि कोई कृष्ण पैदा हो जाये या कोई महान दिग्विजयी सम्राट आ जाये या कोई तारणहार आ जाये, जो इन सब चीज़ों से, कुव्यवस्था-अराजकता से हमें निकाल दे. पर असल में ऐसा होता नहीं है. दुनिया का इतिहास यही बताता है. साल भर पहले एक किताब आयी- व्हाइ नेशंस फेल (देश क्यों असफल हो जाते हैं) देश क्यों खत्म हो जाते हैं? टूट जाते हैं? बिखर जाते हैं? इसको लिखा है, हार्वर्ड के एक प्रख्यात अर्थशास्त्राr ने और एमआइटी के एक मशहूर राजनीति विज्ञानी ने. उनका निष्कर्ष है कि अगर संस्थाएं सर्वश्रेष्ठ नहीं रहीं, प्रभावी नहीं रहीं, मर्यादित नहीं रहीं, बेहतर नहीं रहीं तो देश कारगर नहीं हुआ करते. देश लम्बी उम्र के नहीं होते. देश विफल हो जाते हैं. भारत के संदर्भ में, यहां की संस्थाओं का पराभव देखकर लगता है कि अगर हमने बहुत बेहतर तरीके से बहुत जल्द कोशिश नहीं की तो भविष्य में बहुत गम्भीर चुनौतियों का हम सामना करेंगे.
पहले बाहर रहकर मीडिया की निगाहों से इन चीज़ों को देखा करता था. अब अंदर रहकर इन चीज़ों को देखता हूं, तो लगता है कि देश की स्थिति सचमुच कितनी खराब और कितनी चुनौतीपूर्ण है. पर जिन लोगों को यह सब करना होता है, वे कैसे करते हैं? चीन का उदाहरण. एक व्यक्ति ने चीन की नियति पलट दी. पूरी दुनिया के लिए वह देश मिथक बन गया. कोई मुल्क आज तक, ज्ञात इतिहास में, इतने कम समय में महाशक्ति नहीं बना, जिस तरह चीन बना. बना कैसे? अगर इसका श्रेय किसी एक व्यक्ति को देते हैं तो वह देंग शियाओ पेंग हैं. उन्होंने कैसे अपने देश का मानस बदला. सबसे पहले उन्होंने वैचारिक आधार पर अपने देश की जनता को देश के सपनों के साथ जोड़ा. कहा कि अब हमारे लिए काम (परफॉर्म) करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है. बहुत सारे फ्रेज (मुहावरे) उन्होंने कहे हैं. मैं दोहराना नहीं चाहता. पर उस व्यक्ति के काम या मानस के बारे में कहना चाहता हूं. 1978 में जब देंग ने चीन के लिए सपना देखा, तब चीन के पास पूंजी नहीं थी. चीन के पास सुविधाएं नहीं थीं. अगर आप किसी चीनी से पूछें कि वह दुनिया में किस देश से सबसे अधिक नफरत करता है, तो उसका जवाब होगा, जापान. एक-दूसरे के प्रति गहरी नफरत और घृणा. पहला नाम जापान का होगा. द्वितीय विश्वयुद्ध में जो कुछ हुआ, उन सब को लेकर चीनियों के मन में जापान को लेकर, गहरा नफरत बोध है. लेकिन देंग शियाओं पेंग पूंजीविहीन चीन, जिसके पास संसाधन नहीं थे, उस चीन के लिए, सबसे पहले जापान गया. आज भी हम देखते हैं कि कुछ द्वीपों को लेकर चीन-जापान के बीच युद्ध की स्थिति चलती रहती है. देंग, जापान के सम्राट से मिले. कहा कि मुझे चीन को बनाना है और आपकी मदद के बिना, सहयोग के बिना यह सम्भव नहीं. यानी अपने आत्मस्वाभिमान को अपने मुल्क के भविष्य के सपने के साथ जोड़कर देखा. उस मुल्क से सहयोग की अपील की, जिसके प्रति आज भी चीन में गहरी नफरत है. जापान ने तब चीन में सौ बिलियन डॉलर निवेश किया. वहां से चीन की शुरुआत हुई, नयी महाशक्ति बनने की. सिर्फ उस निवेश से ही नहीं, उस व्यक्ति ने अपने मुल्क के लोगों के दिमाग में एक नया सोच डाला कि अगर हम दुनिया में विकसित नहीं होंगे तो इतिहास नहीं बना सकते. देंग ने एक राजनेता (नेता, अपनी गद्दी या आज तक सोचता है. राजनेता दूरदृष्टि का होता है. वह मुल्क के लिए सोचता है.) की तरह आचरण किया. व्यक्तिगत नफरत-द्वेष को पीछे रखकर अपने मुल्क के सार्वजनिक हित के लिए दुश्मन देश जापान से मदद ली. मुझे लगता है कि हम भारतीयों को भी, अपनी संस्थाओं के पराभव को देखते हुए कोई इस तरह के चमत्कार का एक माहौल तो बनाना ही चाहिए कि देश पुनः छोटी-छोटी चीज़ों से उठकर बड़े सपने देखे और इतिहास बनाये. आर्नाल्ड टायनबी ने भारत की आज़ादी के वक्त कहा था कि दुनिया की सभ्यता को नयी रोशनी पूरब से मिलनेवाली है. जो पारम्परिक सभ्यताएं हैं, वहां से एक नयी सभ्यता का उदय हो रहा है. तो हम उस सपने को यथार्थ में बदल सकते हैं. जब हम कमज़ोर थे, जब हमारे पास कुछ भी नहीं था, तब दुनिया के जाने-माने लोग हमारी तरफ निगाह लगा कर देखते थे कि नयी रोशनी का उदय इधर से होनेवाला है. आज सबकुछ है. पर अंतरराष्ट्रीय जगत में अभी भी हमारी छवि मज़बूत होने में लम्बा समय लगनेवाला है. यह किसी एक नेता के उदय होने से नहीं, हरेक के मन से उदय होने से होगा. 2006 में मैं चीन गया था तो शंघाई शहर के जिस होटल में हम ठहरे थे, वहां के एक बैरे से पूछा कि तुम अंग्रेज़ी जानते हो? उसने बताया- नहीं? इंडिया के बारे में उससे जानना चाहा तो उसने कहा- वही इंडिया, जो सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में आगे है? टूटी-फूटी भाषा में उसके दोस्त ने बताया. हम चार-पांच पत्रकार थे वहां. उस लड़के ने जो कहा, उसका अर्थ था कि आप सॉफ्टवेयर में आगे हैं. पर वह समय दूर नहीं, जब हम आपसे आगे निकल जायेंगे. यह बात मुझे चीन के एक होटल के एक बैरे ने शंघाई में कही थी. आज से 13 साल पहले. ये शब्द आज भी मेरे जेहन में कौंधते हैं. आप जोड़िए, चीन का सपना और चीन के उस होटल के बच्चे का सपना. हमारे देश में अगर ऐसा कोई सामूहिक सपना नहीं रहा, तो हम शायद बहुत बड़ा मुल्क बनने का जो ख्वाब पालते हैं, पूरा नहीं होनेवाला.
फरवरी 2016