मरुस्थल हमारे मस्तिष्क में – शंकरनकुट्टी पोट्टेकाट

वक्तव्य

 

मैं वर्ष 1980 का ज्ञानपीठ पुरस्कार एक ऐसे संधि काल में ग्रहण कर रहा हूं जबकि हमारा देश राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के वात्याचक्र से गुज़र रहा है. मैं यह बात विशेषकर इसलिए कह रहा हूं कि कला, साहित्य और संस्कृति के सम्बंध में आज की नयी पीढ़ी की धारणाएं पुरानी पीढ़ी से बिल्कुल ही भिन्न हैं. इन धारणाओं के साथ उनके मूल्य भी बदल गये हैं. कुछ लोग तो यहां तक सोचने लगे हैं कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी की जबरदस्त प्रगति के इस युग में साहित्यकार का स्थान है ही कहां?

विज्ञान और टेक्नोलॉजी के नये-नये आविष्कारों के परिणामस्वरूप हमारे रहन-सहन के तरीके एक बड़ी सीमा तक बदल गये हैं. आगे ये और भी बदलते रहेंगे. परिवर्तन की अभी और भी सम्भावनाएं हैं. किंतु यदि हम गम्भीरता से विचार करें तो पायेंगे कि ये परिवर्तन हमारे भीतर की आसुरी प्रवृत्तियों को ही बढ़ावा दे रहे हैं.

विज्ञान के दो रूप हैं. एक वह जो मनुष्य के भोग-विलास में वृद्धि के लिए उत्सुक है, दूसरा वह रूप जो संहार की ओर उन्मुख है. यह संहारक प्रवृत्ति अधिक बलशाली है. कला और साहित्य का उद्देश्य तो सृजन है, संहार नहीं. इसलिए इस युग में जबकि विज्ञान और टेक्नोलॉजी की अंतिम परिणति मानव सभ्यता के संहार की ओर संकेत करती है, केवल कला और साहित्य ही मानव समाज का परित्राण कर सकते हैं. जो सच्चा साहित्य है उसे ऐसी प्रेरणा देनी चाहिए कि मनुष्य के भीतर का पशुभाव नष्ट हो, भ्रातृ-भाव, समानता और शांति जैसे मानव मूल्यों का विकास हो. दूसरे शब्दों में, मानव समाज, युग की कुछ साहित्यिक प्रवृत्तियों को देखता हूं तो मुझे खेद होता है; साहित्य को एक सरलता से बिकने वाली बाज़ारी वस्तु बना देना, चाहे जानबूझकर, चाहे अनजाने, मनुष्य की नैतिक भावना को पंगु बना देना, अश्लीलतापूर्ण कामुक भावनाओं को भड़काना, हत्या, लूटपाट, बलात्कार और इसी तरह की मनगढ़ंत कथाओं से बाज़ारों को भरा जाना ऐसी ही कुप्रवृत्तियां हैं. यह आसानी से बिक भी जाते हैं. कहा जाता है कि आधुनिक जगत के तीन अभिशाप हैं- दरिद्रता, प्रदूषण और जनसंख्या वृद्धि. इन अभिशापों ने साहित्य को भी प्रभावित किया है. परिणाम है- विचारों की दरिद्रता, अपराध और कामुकता की भावनाओं के मिश्रण से उत्पन्न प्रदूषण और सस्ती तथा गंदी पुस्तकों से बाज़ार पाट देने की प्रवृत्ति. मेरा विश्वास है कि सत्साहित्य वह है जो मानव मस्तिष्क में सद्भावना का विकास करे. समाज के श्रेष्ठतम विचारों को संजोने की सामर्थ्य प्रदान करे. मैंने अपना साहित्यिक जीवन इसी भावना के साथ प्रारम्भ किया.

मेरे पिता एक अंग्रेज़ी स्कूल में अध्यापक थे. उन्हें संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान था. पिताजी मुझसे रामायण, महाभारत और कृष्णगाथा का प्रतिदिन पाठ कराते थे. अपने अध्ययन के दिनों में ही रामायण और महाभारत की कुछ घटनाओं के चित्र मेरे मानस-पटल पर अंकित होने लगे थे. उनसे मिलते-जुलते अनेक चित्रों की कल्पनाएं मेरे मन पर उभरती रहती थीं. ‘श्रीकृष्णचरितम्’ के मणिप्रवालम् की दो पंक्तियों में जो चित्र अंकित किया गया है वह कितना आनंद विभोर कर देता है.

कालिन्दीतन पुलिनवुम कुलुर वेणिलावुम।

मेल्लिच्चा रात्रिकलु मुन्निदी वेण्डु वोलम्।।

हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है- ‘यमुना के तट पर रातें उतरेंगी; दुग्ध-धवल चंद्रकौमुदी और श्वेत सिकता मानो एक दूसरे से मिल जायेंगी.’ इसी तरह मुझे ऋषि-महर्षियों की प्रेरणादायी कथाएं पढ़कर भी बड़ा आनंद प्राप्त होता है. एक छंद में जब मैंने पढ़ा-

इनि उल्लाकालम्, कलियुगमत्रे।

मुनिजनंगलुम् परंजु पोमल्लो।।

‘अब यह कलियुग प्रारम्भ हो रहा है. मुनिगण अंतर्धान हो जायेंगे.’ तब मैं रो पड़ा. हाईस्कूल एवं कॉलेज में अपने पिताजी की प्रेरणा से वैकल्पिक विषय के रूप में मैंने संस्कृत ली थी. इससे मुझे संस्कृत नाटकों और काव्यों को समझने में बड़ी सुविधा हुई. इस तरह मैंने प्राचीन भारतीय वाङ्मय का जो ज्ञान प्राप्त किया था उसने मुझे अपने साहित्यिक क्षेत्र में सदा सप्रेरणा प्रदान की. पश्चिमी साहित्य की जानकारी मेरे लिए एक और उपलब्धि सम्पत्ति सिद्ध हुई. मेरी मातृभाषा मलयालम में अनेक विधाएं हैं. हमारी अधिकांश भाषाएं प्रांतों के नाम से जुड़ी हुई हैं, जैसे बंगाल में बांग्ला, पंजाब में पंजाबी, तमिलनाडु में तमिल किंतु केरल की भाषा मलयालम है. यहां तक कि कुछ लोग सम्भवतः यह भी नहीं समझ पाते कि मलयालम भी एक भारतीय भाषा है. एक पण्डित ने मुझसे कहा कि मलयालम तो मलाया की भाषा है. इस्लाम और ईसाई धर्मों के आगमन से मलयालम भाषा और साहित्य की समृद्धि ही हुई है. मलयालम भाषा में संस्कृत शब्द बहुल है. इस तरह संस्कृत व द्रविड़ भाषाओं ने तथा अंग्रेज़ी, अरबी, पुर्तगाली, फ्रांसीसी आदि विदेशी भाषाओं के सम्पर्क ने मलयालम भाषा और साहित्य को एक विशेष रंग-रूप और सौरभ प्रदान किया है. ‘वडकन पट्टु’ में देशज मलयामल शब्दों की प्रधानता है. ‘मपिला पट्टु’ में अनेक अरबी और फ़ारसी के शब्द भरे हैं. इनसे भी मलयालम साहित्य की समृद्धि हुई है. संस्कृत नाटक और संस्कृत
कथा-काव्यों को आज भी मंदिरों की कलाओं में ऊंचा स्थान प्राप्त है. पुराने ‘चविट्टूनाटकम्’ का सीरियन ईसाइयों के साहित्य से सम्बंध है. इस तरह इन परिस्थितियों में मलयालम साहित्य अनेक नयी और जीवंत धाराओं को समाहित करते हुए आगे बढ़ा है.

यद्यपि भारतीय संविधान में लगभग सोलह भाषाएं (अब बाइस हैं) उल्लिखित हैं किंतु भारतीय साहित्य मूलतः एक है.

जैसे विशाल वट वृक्ष की जड़ें होती हैं, उसी तरह भारतीय भाषाओं का साहित्य भी सारे देश में व्याप्त है किंतु एक प्रदेश की सांस्कृतिक और साहित्यिक परिस्थितियों और उपलब्धियों को अन्य प्रदेशों के लोग प्रायः नहीं समझ पाते. हम अमेरिका, रूस, स्वीडन आदि देशों के साहित्यकारों के बारे में तो जानते हैं किंतु अपने पड़ोसी प्रदेशों के कवियों, कथाकारों के सम्बंध में लगभग अनभिज्ञ हैं. यह बड़ी दयनीय स्थिति है. केंद्रीय साहित्य अकादमी के प्रयत्नों से ही इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता. भारत के सभी प्रदेशों के लोगों में सम्पूर्ण भारतीय साहित्य को जानने और समझने की क्षमता होनी चाहिए. इसके लिए पर्याप्त सुविधाएं और अवसर प्रदान किये जाने चाहिए.

साहित्य का उद्देश्य मनुष्य को जागृत करना और उसकी अंतरात्मा को ऊंचा उठाना है. साथ ही, साहित्य का यह भी उद्देश्य है कि विशाल भारत देश के विभिन्न प्रदेशों के लोगों को समता, सहयोग और पारस्परिक सांस्कृतिक समन्वय द्वारा एक साथ निकट लाये, चाहे वे बंगाली हों, पंजाबी हों या तमिलनाडु के निवासी हों. यह भ्रातृभाव केवल मनुष्य तक ही सीमित नहीं है. प्रेमी की परिधि विशाल होती है. उसमें पशु-पक्षी और यहां तक कि वनस्पतियां भी समा जाती हैं. हमारे ऋषि-मुनियों, पुराणकारों ने इस विश्वव्यापी प्रेम का प्रसार किया. हमारे महाकवि कुमारन आसन ने कहा-

सुर रोडु मेन्दुमे, ओरु मट्टि वरुल्लिलेन्दुम्

सरल स्नेह रसम् निनप्पु ज्ञान।

‘ऋषियों ने प्रेम का प्रसार केवल मनुष्य तक ही नहीं, पक्षियों और वृक्षों तक में किया है.’ किंतु यह प्रकृति के प्रति स्नेह और करुणा की भावना प्राणी-मात्र के प्रति लगाव, पुराने-युग की भूली-बिसरी बात जैसे जी हो गयी हैं.

मैं आदि शंकराचार्य के प्रदेश में उत्पन्न हुआ हूं. शताब्दियों पूर्व आचार्य शंकर ने अद्वैत सिद्धांत के द्वारा न केवल सम्पूर्ण भारत में दिग्विजय प्राप्त की थी अपितु भारत के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना की और भारतवासियों को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में आबद्ध किया.

आचार्य शंकर ने भारतवासियों को एक समरस इकाई मानकर अपनी साहित्य रचना की. उस महान ऋषि ने देश की सभी नदियों की स्तुति में स्तोत्र लिखे. गंगा की स्तुति में लिखी उनकी पंक्तियां सुनिए-

शैलेन्द्रादवतारिणी निजजले

मज्जज्जनोद्धारिणी

पारावार-विहारिणी विजयते गंगा

मनोहारिणी।

शंकराचार्य के दर्शन में गंगा को सारे देश की समन्वित सम्पत्ति के रूप में स्थान दिया गया है. कालिदास जैसे महाकवियों ने भी भारत देश की एकता पर बल दिया था. इसी तरह महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इसी महान संदेश को अपने एक लेख ‘अरण्येर संदेश’ में सुनाया है. किंतु आज वह प्रेम और समता की भावना मानो प्राचीन काल की वस्तु हो गयी है. हमारे देश में जो बुराइयां आज उत्पन्न हो गयी हैं उसका एक मुख्य कारण भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की अवहेलना भी है.

सेवा-भावना का स्थान स्वार्थ भावना ने ले लिया है. आज के मनुष्य का मानसिक रुझान इस ओर है कि अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के लिए और सांसारिक सुख-सुविधा की पूर्ति के लिए किसी भी बुरे-से-बुरे साधन को अपनाया जा सकता है. प्रकृति के प्रेम की विज्ञान की वेदी पर बलि दे दी गयी है. वनों का बुरी तरह विनाश किया जा रहा है और मरुस्थलों की परिधि बढ़ती जा रही है. हम इस बात से अनभिज्ञ हैं कि कंटीली झाड़ियां और मरुस्थल अब हमारे मस्तिष्क में भी घर कर गये हैं. अब भी समय है कि हमारे साहित्यकार, कलाकार आगे आयें और भारत देश को इस महान विपत्ति से बचायें.

(वर्ष 1980 का ज्ञानपीठ सम्मान प्राप्त करते समय दिया गया वक्तव्य)

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