वितृष्णा  –  मालती जोशी

कहानी

‘मां पापा लौट आये हैं’ -खाना खाते हुए मैंने सूचना दी.

‘अच्छा’ इनकी ठंडी प्रतिक्रिया थी.

‘चाचा को भी साथ लेते आये हैं.’

‘किसलिए?’

‘अकेले छोड़ते नहीं बना होगा. तभी तो तेरही के बाद भी महीना भर तक रुक गये थे.’

इन्होंने कोई जवाब नहीं दिया चुपचाप खाना खाते रहे.

‘हम लोग कल-वल जाकर मिल आयें?’ मेरे स्वर में अनुनय था.

‘कल-वल तो मुश्किल है. संडे को देखते हैं.’ उन्होंने विषय समाप्त करते हुए कहा.

मेरे लिए संडे तक प्रतीक्षा करना बहुत मुश्किल था. इसलिए मैं अगले दिन दोपहर को चली गयी. चाची की तेरहवीं पर देखा था. उस तुलना में चाचा बहुत थके से लगे. स्वाभाविक भी था. इस उम्र में जीवन साथी का एकाएक बिछड़ जाना पति-पत्नी दोनों पर ही भारी पड़ता है. फिर इन लोगों के तो कोई संतान भी नहीं है. जिसके पास जाकर अपना दुःख हलका कर सके.

मां पापा इसीलिए तो वहां से निकल नहीं पा रहे थे. इतने बड़े घर में चाचा को अकेले छोड़ने का उनका मन नहीं हो रहा था. शायद इसीलिए उन्हें साथ लेकर आ गये थे.

दोपहर को सारा काम निपटाकर गयी थी. पर बच्चों से पहले घर लौटना भी था इसलिए उस दिन ज़्यादा देर बैठ नहीं पायी. बस उन लोगों को देखकर लौट आयी. सोचा रविवार को इनके साथ जाऊंगी तब आराम से बातें होंगी.

रविवार की दोपहर संजू सीमा ही अचानक आ गये. मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ. राखी, भाईदूज या बच्चों के जन्मदिन छोड़ दें तो इन लोगों का आना कम ही हो पाता है. नौकरी का बहाना तो खैर है ही. मैं ही मां पापा के लिए बीच-बीच में चक्कर लगाती रहती हूं.

जब भी ये लोग आते हैं, सीमा शिकायतों का पिटारा खोलकर बैठ-जाती है. सास-ससुर की सेवा करते करते वह कितना पस्त हो चुकी है यह जताना वह कभी नहीं भूलती.

और अब तो घर में एक और व्यक्ति का इजाफा हो गया है. बेचारी कितनों की सेवा करेगी! मैं मानसिक रूप से सब कुछ सुनने के लिए तैयार ही थी. उसने  भी ज़रा-सा भी समय नहीं गंवाया और शुरू हो गयी. उसकी नौकरी, बच्चों की पढ़ाई, छोटा-सा घर, घर में तीन तीन बुज़ुर्ग- समस्याओं का अंत नहीं था.

पापा एक बार हमसे पूछ तो लेते, ‘संजू ने पहली बार मुंह खोला.’ वैसे बात उसकी ठीक ही थी.

‘मैं चाचा को अपने पास ले आती हूं.’ मैंने अपनी तरफ से समस्या का समाधान किया.

‘नहीं दीदी! अभी उन्हें आये हफ्ता भी नहीं हुआ है. वे क्या सोचेंगे?’

‘इससे तो बल्कि तुम एक काम करो’ संजू ने गला स़ाफ करते हुए कहा- ‘तुम मां-पापा को थोड़े दिन अपने पास बुला लो. उन्हें चेंज भी हो जायेगा और हम लोग चाचा को ठीक से रख पायेंगे. अभी तो उनकी ढंग से सोने की व्यवस्था भी नहीं हो पायी है. बेचारे ड्रॉईंग रूम में दीवान पर सोते हैं.’

मैंने श्रीमानजी की ओर देखा. इस प्रस्ताव पर उनकी सहमति आवश्यक थी. पर वे टीवी पर मैच देखने में मशगूल थे. ऐसी फालतू बातों की ओर ध्यान देने की उन्हें फुरसत नहीं थी.

मैं अच्छी तरह जानती थी कि टीवी देखने का कितना भी नाटक कर लें, कान उनके हमारी बातों पर ही थे. इसका प्रमाण तुरंत मिल गया. संजू सीमा को विदा कर मैं जैसे ही घर में दाखिल हुई, ये बोले- तुम्हारे भाई भाभी बड़े शातिर हैं.

‘मतलब?’

‘जैसे ही सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी हाथ आयी मां-बाप को देश निकाला दे दिया.’

‘कैसी बातें कर रहे हैं?’

‘ठीक ही तो कह रहा हूं. मां-बाप को तो पूरा निचोड़ लिया है. अब उनके पास कुछ नहीं है तो रवाना कर दो. चाचा के पास माल-टाल है. उनके आगे-पीछे भी कोई नहीं है. अब उन्हें निचोड़ेंगे. तभी तो तुम्हारा प्रस्ताव उन्हें मान्य नहीं हुआ. सोच रहे होंगे दीदी सारी मलाई न गटक ले. हम टापते ही रह जायेंगे. वे बेचारे क्या जानें- उनकी दीदी में इतने गट्स होते तो क्या बात थी.’

उनका इशारा मैं समझ गयी पर चुप लगा गयी. बेकार बहस बढ़ाने से क्या फायदा होता.

पापा का एक सपना था. रिटायरमेंट के बाद वे गांव लौट जाना चाहते थे. इसीलिए गांव के पुराने पुश्तैनी घर को ठीक-ठाक करने का उन्होंने प्लान बनाया. संजू को पता लगते ही वह दौड़ा-दौड़ा गया. बोला- पापा! यहां पैसा फेंकना बेकार है. यहां आप कितने दिन रह पायेंगे. यहां  न मेडिकल फैसीलिटी है, न ट्रांसपोर्टेशन है- न ढंग के लोग हैं न लाइब्रेरी. चार दिन में ऊब जायेंगे आप. इससे तो अच्छा है हमलोग शहर में ही बड़ा-सा मकान ले लें. सब लोग साथ में रह लेंगे.

संजू की बात शायद पापा नहीं मानते, पर मां ने भी बेटे का साथ दिया. उन्हें अब पोते के साथ, बेटे बहू के साथ रहने का मन था फिर मैं भी इसी शहर में थी. दोनों बच्चे आंखों के सामने रहेंगे. मां को और क्या चाहिए.

आखिर पापा ने हथियार डाल दिये. इतने सालों तक सरकारी क्वार्टरों में रहने के बाद फ्लैट में रहना उन्हें रास नहीं आ रहा था. पर उतने से पैसों में स्वतंत्र घर की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.

श्रीमान जी तब बहुत भुनभुनाए थे. पुश्तैनी जायदाद में बेटी का भी बराबर हिस्सा होता है. यह बात मैं भी जानती थी. पर गांव के उस पुराने मकान के कितने मिलेंगे मुझे पता था. उस छोटी-सी रकम में हिस्सा बंटाने का मन नहीं हुआ. आखिर संजू मेरे माता-पिता के लिए ही तो बड़ा घर ले रहा था.

पर मेरे इस अपराध को ये कभी क्षमा नहीं कर पाये हैं.

पापा को अपने घर आने के लिए राजी करना एक टेढ़ी खीर थी. वे तो प्रस्ताव सुनते ही भड़क गये थे- ‘ये मेरा घर है. इसमें मेरा पैसा लगा है. मुझे यहां से कोई नहीं निकाल सकता. और मोनू को यहां मैं अपनी ाf़जम्मेदारी पर लाया हूं.’

‘तो उनकी सुख-सुविधा का ख्याल रखना भी तो आपकी ज़िम्मेदारी है. उनके पास ढंग से सोने की जगह नहीं है. दीवान पर पड़े रहते हैं. अच्छा लगता है?… और आपको घर से कोई नहीं निकाल रहा. मैंने तो एक सजेशन दिया था. ज़रा सीमा का ख्याल कीजिए. बच्चों को देखना, तीन-तीन बुज़ुर्गों की सेवा करना और ऊपर से नौकरी…’

‘तो नौकरी ही तो करती है, और क्या करती है.’ मां बोली- ‘दोनों वक्त की रसोई मैं देखती हूं. सुबह नौकरी का बहाना है, शाम को बच्चों का होमवर्क है. बच्चों के टिफिन भरने से लेकर धोने तक का काम मैं करती हूं, समझीं.’

‘तो चलो न, इसी बहाने तुम भी थोड़े दिन आराम कर लेना.’

यह प्रस्ताव लेकर मैं जान-बूझकर दोपहर में गयी थी. चाचा बाहर दीवान पर सो रहे थे. हम लोग कमरे में थे- लाख धीरे बात कर रहे थे पर शायद उन्होंने सुन ही लिया. भीतर आकर बोले- ‘मेरे यहां आने से इतनी प्रॉब्लम्स, इतनी असुविधा होगी यह पता होता तो…’

प्रॉब्लम कोई नहीं है चाचा. न कोई असुविधा है. बल्कि आपको ठीक से सुविधा न देने के कारण संजू शर्मिंदा हो रहा है.  मैं तो आपको अपने घर भी ले जा सकती हूं. दोनों घर एक ही समझिए. जैसे यहां, वैसे वहां. पर फिर संजू बहुत दुखी हो जायेगा कि घर छोटा होने के कारण आपको नहीं रख सका. इसलिए मां पापा से कह रही थी कुछ दिनों के लिए मेरे पास आकर रहिए. मुझे भी सेवा का अवसर दीजिए. मेरा भी मन करता है, आपको भी थोड़ा चैन हो जायेगा और एक ही शहर में तो हैं. मिलना-जुलना होता ही रहेगा.’

पता नहीं कैसे क्या हुआ, पर एक दिन मां-पापा मेरे पास रहने आ गये. शायद बहू ने तेवर दिखाये होंगे या चाचा के सामने कलह-क्लेश नहीं चाहते होंगे- वे लोग मेरे घर आ गये. मैंने गेस्ट रूम उनके लिए सुसज्जित कर दिया. अपने बेडरूम वाला टीवी लाकर वहां लगा दिया. पापा की पसंद का अखबार चालू कर दिया. कुछ पत्रिकाएं कमरे में रखवा दीं.

अपनी शक्तिभर मैंने सब किया पर देखा कि दोनों एकदम बुझ से गये हैं. मां तो फिर भी थोड़ा हंस-बोल लेती थीं पर पापा एकदम चुप हो गये थे. कमरे से बाहर ही नहीं निकलते थे. संजू के यहां थे तो सुबह-शाम घूमने जाते थे. हम उम्र लोगों का वहां अच्छा ग्रुप बन गया था. हम उम्र तो अड़ोस-पड़ोस में यहां भी थे. पर इस उम्र में परिचय के सूत्र बड़ी मुश्किल से जुड़ते हैं. किसी वृक्ष को उखाड़कर दूसरी जगह लगाया जाये तो वह मुरझा जाता है.

दिन का खाना मैं पापा और मां, साथ खाते थे. पर रात में ये भी टेबल पर होते थे. इनकी उपस्थिति में पापा बहुत
असहज महसूस करते थे. उन्हें कम्फर्टेबल करने का उनके दामाद ने कभी प्रयास भी नहीं किया.

फिर मैंने इसका तोड़ निकाला. मैंने उन दोनों को बच्चों के साथ खिलाना शुरू किया. कहा कि रात में जल्दी खा लेना ठीक होता है. खाने और सोने में कम से कम दो घंटे का गैप होना चाहिए.

आठवें चौथे दिन चाचा आ जाते तो पापा के चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आ जाती. दोनों भाई देर तक बतियाते रहते. फिर मां मुझसे फुसफुसाकर कहतीं- लाला को खाने के लिए रोक लेना. वहां पता नहीं क्या कैसा बनता होगा.’

चाचा नानुकर नहीं करते. हां, संजू के यहां फोन ज़रूर कर देते. अगर दिन में आते तो खाकर ही आते क्योंकि सीमा खाना सुबह ही बना कर जाती. फिर भी मेरे आग्रह पर एकाध रोटी खा लेते थे.

खाना खाते हुए उनका शिकायतों का पिटारा भी खुल जाता. ‘भाभी, बहू तो तुम्हारी गजब है. कल बड़े को मेरे बिस्तर में ही घुसा दिया. मैं फिर सीधा जाकर दीवान पर सो गया.’

‘सनी हम दोनों के पास ही सोता था न.’ मां बताती. दरअसल संजू के पास दो ही बेडरूम हैं. इसलिए एक बच्चा मां-पापा के पास सोता था. पर चाचा को इसकी आदत थोड़े ही है.

कभी कहते- तुम्हारी बहू ने मुझे क्या मास्टर समझ लिया है. ऐसे रात को बच्चों को कॉपी किताब देकर भेज देती है.

पहले होमवर्क वही करवाती थी न. अब रसोई में लगना पड़ता होगा तो समय नहीं मिलता होगा.

‘रसोई तो वो जैसी बनाती हैं ठीक ही है. मैं तो हैरान हूं. भाईसाहब कैसे खा लेते थे. ये तो इतने मीन मेख वाले हैं. अंजली तो घबराती थी.’

‘मेरे रहते तुम्हारे भाईसाहब को किसी और के हाथ का खाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती न!’

शिकायतें दूसरे पक्ष से भी कम नहीं होती थीं. ‘दीदी!’ चाचाजी दोपहर को आपके यहां गये थे क्या. कामवाली ताला देखकर लौट गयी. अब कपड़ों का और बर्तनों का ढेर पड़ा है मेरे लिए.’

‘दीदी पता है, आज बच्चों को पड़ोस से चाबी लेकर दरवाज़ा खोलना पड़ा.’

‘दीदी. कल रात हम पिक्चर जा रहे थे. चाचाजी ने कहा- बाहर से ताला डालकर जाना. मैं आधी रात को उठकर दरवाज़ा नहीं खोलूंगा.’

सुनकर मुझे बहुत मज़ा आता. देवीजी को मां-पापा की अहमियत का अब पता चलेगा. उनके भरोसे दोनों कितने निश्चित थे. न घर की फिक्र थी न बच्चों की.

मैं सोच रही थी, ब्रेकिंग पॉईंट बस आने ही वाला है. उससे पहले ही एक दिन चाचा सूटकेस सहित घर में दाखिल हुए. कहीं ये रहने तो नहीं आ गये. श्रीमान जी की प्रतिक्रिया की कल्पना से ही मुझे डर लगने लगा.

पर चाचा ने मुझे ज़्यादा देर तक पसोपेश में नहीं रक्खा. मुझसे एक ग्लास पानी मंगवाकर पिया और फिर मां-पापा के चरण छूकर बोले- ‘कुछ दिनों के लिए घर जा रहा हूं.’

‘एकदम कैसे?’

‘लौटकर बताता हूं.’ उन्होंने कहा और बाहर खड़ी ऑटो-रिक्शा में जाकर बैठ गये. मां की तो जान ही सूख गयी- ‘ये एकदम कहां चल दिये. किसी ने कुछ कह तो नहीं दिया. बड़े चाव से हम लोग उन्हें लेकर आये थे. पर अब खुद ही शरणार्थी बन गये हैं. क्या करें.’

‘मां प्लीज! अपने आपको शरणार्थी मत कहो. तुम कहीं सड़क पर नहीं पड़ी हो. अपनी बेटी के घर में हो जो तुम्हें आदर मान से लेकर आयी है. और रही चाचा की बात- तो वो बोले हैं न कि लौटकर बताता हूं. तो इसका मतलब है वे वापिस आयेंगे. घर बार एक बार देखने गये होंगे.’

उनके इस आकस्मिक प्रस्थान से संजू-सीमा भी परेशान हो गये थे. सीमा तो बार-बार मुझसे उनका प्रोग्राम पूछती. जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे उसका धैर्य समाप्त होता जा रहा था. एक दिन बोली- ‘दीदी, मैं सोचती हूं मम्मी-पापा को घर पे ले आऊं, कबतक चाचाजी की राह देखेंगे.’

‘और इस बीच अगर चाचा आ गये तो.’

‘तो उन्हें आप रख लेना.’

मैंने एक वाक्य महीनों से रट रक्खा था. वह फौरन उसे सुना दिया- ‘सीमा! मेरे मां-बाप को तुमने क्या फुटबॉल समझ रक्खा है जो उन्हें जब चाहोगी, जिधर चाहोगी लुढ़का दोगी?’

यह बात उसके मुंह पर फेंककर मुझे इतना हलका महसूस हुआ. उसका मुंह ज़रूर सूज गया होगा- मेरी बला से.

एक दिन हमारी प्रतीक्षा का अंत हुआ. चाचा मिठाई का पैकेट लेकर पधारे. मां पापा को प्रमाण करके मुझसे बोले- ‘जमाई राजा घर में हैं न! बुलाओ भई. दोनों को जोड़े से निमंत्रण दूंगा.’

ऑफिस से लौटकर ये फ्रेश होने गये थे. शायद उन्हें चाचा की बुलंद आवाज़ वहीं सुनाई दे गयी थी. वॉशरूम से निकलते हुए बोले- ‘तुम्हारे चाचाजी फिर से शादी वादी कर रहे हैं क्या?’

‘कैसी बातें कर रहे हैं? प्लीज जल्दी से कपड़े बदल कर बाहर आइए.’

जमाई राजा के ड्रॉईंग रूम में आते ही चाचा उठ खड़े हुए. नाटकीय ढंग से उन्होंने हम दोनों के हाथ में मिठाई का डिब्बा पकड़ाया और हाथ जोड़कर कहा- ‘आपके शहर में एक छोटा-सा आशियाना ले लिया है. रविवार को छोटी-सी पूजा रख ली है ताकि गृह-प्रवेश की रस्म भी हो जाये. तुम लोग और संजू का परिवार. बस इतने ही लोग रहेंगे. अभी बहुत लोगों को तो मैं जानता भी नहीं हूं.’

हम लोगों को आश्चर्य तो हुआ पर हमने बधाई देने में कोई कंजूसी नहीं की. चाय पीते हुए चाचा ने कहा- ‘भाभी और भाईसाहब को साथ लेकर जाता हूं. सब कुछ इन्हीं को करना है. मुझे तो कुछ आता-जाता नहीं है.’

और मैंने देखा- भाईसाहब और भाभी अपनी अपनी सूटकेस लेकर एकदम तैयार  खड़े थे. शायद उन्हें पहले से सूचना मिल गयी होगी.

मां-पापा के जाते ही घर एकदम सूना हो गया. घर में दो प्राणी कम हो जाते हैं तो खालीपन तो व्यापता ही है. पर मेरे उदास होने का कारण यह था कि मैं जानती थी कि वे दोनों अब लौटकर यहां नहीं आयेंगे. चाचा के अपने घर जाने के बाद संजू सीमा उन्हें घर ले जायेंगे.

शहर के बाहर सिमेंट का जंगल उग आया था. उन्हीं कॉलोनियों में से एक में चाचा का नया फ्लैट था. टू बीएचके सुंदर था. बाहर गैलरी थी, भीतर वॉशिंग स्पेस थी, वेट गैलरी थी. खास बात यह कि बिल्डिंग में लिफ्ट की सुविधा थी.

चाचा अपने साथ पुराने सेवक को ले आये थे और गृहस्थी का सामान भी. मां ने लखन के साथ मिलकर दो दिन में घर ठीक से जमा दिया था. दो तीन बक्से अब भी खुलने को बाकी थे पर ज़रूरत का सामान सब निकल आया था. माइक्रो से लेकर फ्रिज तक, रसोई में हर चीज़ मौजूद थी. चाचा शायद जाने से पहले सारा इंतज़ाम कर गये थे क्योंकि हर कमरे में एसी लग गया था. हर बाथरूम में गीजर फिट था. पलंग भी नये लग रहे थे. मां ने अपना वाला कमरा तो ऐसे जमा लिया था जैसे हमेशा यहीं रहना है.

चाची बहुत शौकीन थीं. उनकी पसंद भी बहुत ऊंची थी. उनकी क्रॉकरी, बर्तन, परदे, चादरें- सब आला दर्जे के होते थे. सीमा हर चीज़ को छूकर उलट-पलट कर देख रही थी. मन ही मन कीमत का अंदाज़ा लगा रही थी.

पूजा अच्छे से सम्पन्न हो गयी. खाना भी बहुत अच्छा था. बहुत दिनों बाद मां को रसोई का एकदम राज मिला था. किसी का अंकुश नहीं था. इसलिए उन्होंने बहुत मन लगाकर खाना बनाया था.

खाने के बाद हम सब हॉल में बैठकर गपशप कर रहे थे कि एकाएक सीमा ने पूछा- ‘मम्मीजी, ये सब समेटने में आपको एकाध दिन तो लग ही जायेगा न. मैं आप लोगों को लेने परसों आ जाऊं! या चाचाजी छोड़ देंगे?’

‘ये लोग अब कहीं नहीं जायेंगे’ चाचा ने निर्णायक स्वर में कहा- ‘हम तीनों बूढ़े प्राणी यही रहेंगे. और ये चौथा बूढ़ा लखन लाल हमारी सेवा करेगा.’

क्षणभर को हॉल में चुप्पी छा गयी. यह प्रस्ताव हम सबके लिए एकदम अप्रत्याशित था. बड़ी देर बाद संजू की आवाज़ निकली- चाचा. ये अचानक.

‘अचानक नहीं बेटे. बहुत दिनों से प्लानिंग कर रहा था. भाईसाहब की इच्छा थी कि मैं अब उन लोगों के साथ रहूं. मुझे भी यह प्रस्ताव अच्छा लगा था. इसीलिए मैं उनके साथ चला आया. पर यहां आकर देखा कि किसी भी घर में हम तीनों एक साथ नहीं रह सकते. इसलिए ये अलग आशियाना बना लिया.’

सीमा एकदम बोल उठी- ‘इससे तो अच्छा था चाचाजी आप हमें एक बड़ा-सा घर दिलवा देते. फिर सब लोग आराम से साथ रह लेते.’

‘नहीं बेटा. इतने दिनों में मैं एक बात अच्छी तरह जान गया हूं कि मैं हर कहीं एडजस्ट नहीं हो सकता. मेरी आदतें बिगड़ चुकी हैं. घर में सबसे छोटा था इसलिए पहले तो मां ने खूब लाड किये. फिर भाभी आयीं तो उन्होंने भी मेरे नखरे उठाये. रही सही कसर तुम्हारी चाची ने पूरी कर दी. बच्चे थे नहीं तो सारा प्यार दुलार मुझपर ही उंडेल दिया. बिल्कुल बरबाद कर दिया मुझे. अब इस उम्र में अपने आपको बदलना नामुमकिन है. इसलिए मैं यहीं ठीक हूं. और तुम इसे भी अपना ही घर समझो. समझ लो कि उस घर का एक्सटेन्शन है ये. बच्चों को जब भी दादा दादी या नाना नानी की याद आये- वे यहां बेखटके आ सकते हैं. और अनु (चाचा मेरी ओर मुखातिब हुए) तुम्हें जब भी पीहर जाने का मन हो, यहां चली आना.’

‘मतलब, मम्मी अब हमारे पास नहीं रहेंगी.’ सीमा तो रोनी रोनी हो आयी थी.

‘हां बेटे, भाभी अब यहीं रहेंगी. ज़िंदगी भर खटती रही हैं. उन्हें अब आराम की ज़रूरत है. लोग कहते हैं कि औरत कभी रिटायर नहीं होती. पर मैं सोचता हूं औरत को भी पूरा पूरा हक है निवृत्त होने का- अवकाश पाने का.’

बात एक तरह से वहीं समाप्त हो गयी थी.

हम लोग तो खाली हाथ ही पहुंच गये थे. पर चाचा ने सबको नेग दिया, मिठाई दी. बच्चे तो एकदम खुश हो गये थे पर संजू सीमा एकदम गुमसुम हो गये. इसी मनस्थिति में हम लोगों ने एक दूसरे से बिदा ली और अपने अपने घरों की ओर मुड़ गये.

बच्चे कार की पिछली सीट पर उनींदे से बैठे थे. सामने वाली सीट पर मैं भी चुपचाप बैठी थी. मां-पापा के लिए खुशी भी हो रही थी पर एक अपराध बोध भी मन में जाग रहा था. हम उन लोगों को अपने साथ क्यों नहीं रख सके?

एकाएक इन्होंने कहा- ‘तुम्हारी भाभी रानी तो आज एकदम क्लीन बोल्ड हो गयी.’

‘मतलब?’

‘अपने व्यवहार पर पछता रही होंगी. अच्छा खासा घर हाथ से निकल गया.’

‘कौन-सा घर.’

‘वही जिसकी पार्टी खाकर आ रहे हैं.’

‘उस घर से सीमा का क्या ताल्लुक है.’

‘ताल्लुक है मॅडम. अब सोचो, चाचाजी ये घर अपने साथ तो नहीं लेकर जायेंगे न. किसी न किसी को नामज़द करेंगे ही. और पहला हक संजू लोगों का ही बनता है. पर सीमारानी ने चान्स गंवा दिया. काश! चाचाजी से थोड़ा ढंग से पेश आयी होती.’

‘बस भी कीजिए’ मैंने खीझकर कहा- ‘आज ही बेचारों ने गृह प्रवेश की पूजा करवायी है और आप उनके जाने की तारीख निकाल रहे हैं.’

‘मैं तारीख निकालने वाला कौन होता हूं. वह तो हरेक व्यक्ति के जन्म के साथ ही तय हो जाती है. मैं तो बस यह कह रहा हूं कि भाभी रानी आऊट हो गयी हैं तो आप बल्ला संभाल लो. ठीक से बेटिंग करेंगी तो मैच जीत ही जायेंगी.’

-देखिए. मैंने सख्त लहजे में कहा- ‘मुझे इस तरह के गेम्स में कोई दिलचस्पी नहीं है. दूसरों की प्रॉपर्टी पर लार टपकाने वालों में से नहीं हूं, मैं. भगवान का दिया मेरे पास सब कुछ है. एक अच्छा खासा घर भी है.’

-घर तो है डार्लिंग पर एक ही है. जबकि बच्चे दो हैं. ‘बी प्रेक्टीकल मैडम.’

मैं हैरत से उन्हें देखती रह गयी. अभी कुछ देर पहले जब सीमा ने कहा था कि चाचाजी ने एक बड़ा-सा घर हमें ही दिलवा दिया होता तो सब लोग साथ ही रह लेते. ‘सुनकर मैं तो शर्म से गड़ गयी थी. ऐसा मंगतापन! छी…’

और ये महारानी साथ में रहेंगी? उसकी शिकायतों का पिटारा कभी खत्म ही नहीं होता- ‘पता नहीं चाचाजी कितनी चाय पीते हैं. मैं तो कप प्लेटें धो-धो कर थक जाती हूं- इस आदमी के खाने के इतने नखरे हैं कि क्या बताऊं- दीदी, सच कह रही हूं कपड़ों का ढेर निकलता है. प्रेस के लिए. मेरा तो सारा बजट ही गड़बड़ा जाता है- इस आदमी का इतना भी आसरा नहीं है कि बच्चों को सौंपकर सेकंड के लिए भी जा सकें.’

जिसके खिल़ाफ इतनी शिकायतें हैं उन्हीं से बड़े से मकान की फरमाइश हो रही है.

बेशर्मी की भी कोई हद होती है.

और मेरी बगल में बैठा यह आदमी! इसने तो सीमा को भी मात कर दिया है. पहली फुरसत में इसने चाचा की वसीयत लिख डाली है.

चाचा! गिद्धों की यह कैसी जमात तुम्हारे आसपास इकट्ठा हो गयी है?

अप्रैल 2016

7 comments for “वितृष्णा  –  मालती जोशी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *