आवरण–कथा
मैं समझता हूं कि राष्ट्रीयता पर वही नियम लागू होना चाहिए जो कानून किसी व्यक्ति के अपराधी होने या न होने के बारे में लागू होता है. इस नियम के अनुसार, जब तक यह सिद्ध नहीं हो जाता कि किसी व्यक्ति ने अपराध किया है, तब तक वह निर्दोष माना जाता है. इसी तर्क से, हर भारतीय राष्ट्रप्रेमी या राष्ट्र भक्त है, जब तक यह साबित नहीं हो जाये कि उसने राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कोई काम किया है. लेकिन यह नहीं भूला जाना चाहिए कि राष्ट्र प्रेम किसी कानून का विषय नहीं है. कानून में राष्ट्रीयता का मतलब सिर्फ नागरिकता से है. हर वह व्यक्ति भारत का नागरिक है जिसका जन्म भारत में हुआ है या जिसने भारत की नागरिकता प्राप्त कर ली है. देश के एक छोटे–से वर्ग द्वारा राष्ट्रीयता को जिस तरह मुद्दा बनाने की कोशिश की जा रही है, वह एक भावनात्मक मामला है. कोई समुदाय अपने को किसी दूसरे समुदाय से ज़्यादा राष्ट्रभक्त मान सकता है, पर इससे उसे यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह दूसरे समुदाय को देशद्रोही बताये.
हिंदू ही इस देश का मूल निवासी है, इसलिए भारत हिंदुओं का देश है या हिंदू राष्ट्र है, यह मुगालता पुराना है. देश किसी भी समुदाय की सम्पत्ति नहीं है. तकनीकी तौर पर आधुनिक राष्ट्र एक कानूनी इकाई है. उसकी कानून–सम्मत भौगोलिक सीमाएं हैं और उसके संसद द्वारा पारित किये हुए विधि–विधान हैं जिनके द्वारा उसका संचालन होता है. लेकिन इतना ही सत्य यह भी है कि इतिहास की हम उपेक्षा नहीं कर सकते. भूगोल को बदला जा सकता है, पर इतिहास की कटाई–छंटाई नहीं की जा सकती. इस इतिहास के कारण ही हिंदू स्वाभाविक रूप से भारत को अपना मानता है और मुसलमानों से मांग करता है कि वह अपनी राष्ट्रीयता को प्रमाणित करके दिखाये. यहीं एक द्वंद्व पैदा होता है. मुसलमान अपनी राष्ट्रीयता को कैसे प्रमाणित करे? क्या वह अपने तौर–तरीकों में हिंदू बन जाये? इस तरह की मांग करना न केवल राष्ट्रीयता की धारणा के विरुद्ध है, बल्कि लोकतंत्र की भी अवज्ञा करना है. लोकतंत्र के बगैर क्या भारत ज़िंदा रह सकता है?
सच तो यह है कि आम भारतवासियों में इस तरह की भावना है भी नहीं. उत्तर भारत का आदमी दक्षिण भारत के आदमियों को अपने से काफी अलग समझता है, पर उन्हें देशद्रोही नहीं मानता. दक्षिण भारत शेष भारत के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा है. समस्या सिर्फ उत्तर–पूर्व और कश्मीर में है, लेकिन इसके ऐतिहासिक कारण हैं. सामान्य नागरिक, चाहे वह किसी भी देश का हो, न तो बहुत ज़्यादा राष्ट्रवादी होता है, न बहुत कम. राष्ट्रीयता का वातावरण सामान्य स्थिति में बनता भी नहीं है. युद्ध या किसी संकट के समय ही राष्ट्रीयतावादी भावनाएं ज़ोर पकड़ती हैं. तब साबित करना होता है कि देश के लिए कौन कितना काम करता है. बाकी समय राष्ट्र हम सबके अवचेतन में होता है, जैसे सामान्यत हम अपने शरीर को भूले रहते हैं. शरीर के किसी हिस्से पर ज़्यादा ध्यान तब जाता है जब उसमें कोई विकार पैदा होता है. सामान्यत हम यह अनुभव नहीं करते कि हमारे मुंह में दांत हैं, पर जब कोई दांत दर्द करने लगता है, तब हमारी सारी चेतना उसी पर केंद्रीभूत हो जाती है. इसलिए राष्ट्रीयता को लेकर काम करने की ज़रूरत है तो वह उत्तर–पूर्व और कश्मीर का इलाका है. लेकिन हमारे उग्र राष्ट्रवादी मित्रों को वहां जाने की फुरसत नहीं है, वे बस इसी टोह में रहते हैं कि किसके फ्रिज में गोमांस है और कौन हिंदू लड़की से शादी कर रहा है!
सचमुच वे बीमार लोग हैं जो हमेशा यह गिनने का प्रयत्न करते रहते हैं कि किसमें कितनी राष्ट्रीयता है. ऐसा संशय प्रगट करने के पीछे निश्चित रूप से कोई पूर्वग्रह काम करता होता है. एक ज़माने में एक छोटे–से हिंदू गुट द्वारा कम्युनिस्टों, मुसलमानों और ईसाइयों की राष्ट्रीयता को संदेह की निगाह से देखा जाता था. इसी विचार के एक अपराधी द्वारा पादरी जोंस तथा उनके बच्चे को ज़िंदा जला दिया गया था. दूसरे अपराधी ने गांधी जी की हत्या कर दी क्योंकि उसकी नज़र में वे हिंदुओं के साथ विश्वासघात कर रहे थे और पाकिस्तान का पक्ष ले रहे थे. कम्युनिस्टों से वे इसलिए घृणा करते रहे हैं कि उनकी ‘विचारधारा विदेशी’ है. यह गुट जिसे राष्ट्रवाद समझता है, उसका प्रचार करने का उसे पूरा अधिकार है. हम इस अधिकार का सम्मान करते हैं, लेकिन अपनी परिभाषाओं को हिंसक गतिविधियों के द्वारा ज़मीन पर उतारने की हम हर सुबह, हर शाम निंदा करेंगे. लोकतंत्र इसीलिए खूबसूरत है, क्योंकि इसमें बहस होती है, खंजर नहीं चलते. खंजर चला कर फैसला करना आदियुगीन या मध्यकालीन मानसिकता है. इस आधार पर मैं यह भी कहना चाहूंगा कि गुंडागर्दी के द्वारा राष्ट्र सेवा करने के आकांक्षी सभ्य समाज में रहने के योग्य नहीं हैं. इसके पहले कि वे दूसरों को कुछ सिखाएं, उन्हें खुद बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है. राष्ट्रीय होने की पहली शर्त सभ्य होना है. राष्ट्रीयता की जो परिभाषा सभ्य और सुसंस्कृत बनने की प्रेरणा नहीं देती, क्या उसे भी राष्ट्रीयता ही कहेंगे?
जो अपने देवता से सचमुच प्यार करते हैं, वे उसकी ऐसी छवि बनाते हैं जिससे दूसरे भी आकर्षित हों. उनके मन में भी आपके देवता के प्रति श्रद्धा पैदा हो और श्रद्धावश वे भी उसकी पूजा करना चाहें. लेकिन अगर आप अपना देवता ज़ोर–ज़बरदस्ती किसी और पर, चाहे वह आप का भाई या आप की बहन ही क्यों न हो, आरोपित करना चाहेंगे, तो उसका निरादर होगा. प्रेम और श्रद्धा ऐसी चीज़ें हैं जो अपने आप पैदा होती हैं– उनकी वसूली नहीं की जा सकती. आप ताकत के बल पर किसी की सम्पत्ति छीन सकते हैं, किसी को बेघर कर सकते हैं, पर उससे ‘आई लव यू’ नहीं कहला सकते. अगर वह मजबूर होकर वह कह दे जो आप कहलवाना चाहते हैं, तो उसका वाक्य हवा में थरथराता रह जायेगा. जैसे ही आप पीछे मुड़े, वह धड़ाम से ज़मीन पर आ गिरेगा.
‘भारत माता की जय’ के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है. यह नारा लगाने को राष्ट्रीयता की कसौटी बनाया जा रहा है. महाराष्ट्र के जिस विधायक को ‘भारत माता की जय’ न कहने के लिए पूरे सत्र के लिए सदन से निलम्बित कर दिया गया है, उसकी ाf़जद और बढ़ गयी है. उसने प्रतिक्रिया में कहा है कि उसकी गरदन पर चाकू की नोक रख दी जाये, तब भी वह ‘भारत माता की जय’ नहीं बोलेगा. इस तरह, एक अनिच्छुक को वैरी बना दिया गया है. जब यह पता चला कि वह भारत माता की जय बोलने के लिए तैयार नहीं है, तभी कांग्रेस के नेता, और कांग्रेस ही क्यों, भाजपा तथा शिवसेना के नेता भी, उससे प्रेम से मिलते और सद्भावना के साथ बात करते कि यह आपकी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने की कोशिश नहीं है या आपको अपने धर्म के विरुद्ध चलने का निर्देश नहीं है, बल्कि भारत की भावनात्मक एकता का प्रदर्शन करने की एक काव्यात्मक युक्ति है, तो वह शायद मान भी जाता. अगर नहीं मानता, तो इतना तो स्वीकार कर ही लेता कि मैं इस उद्घोष का अपमान नहीं करूंगा और अपनी भाषा का इस उद्घोष का कोई स्वीकार्य रूप खोजूंगा और जब अन्य लोग ‘भारत माता की जय’ कह रहे होंगे, तो मैं इस रूपांतर का उच्चार करूंगा. मसलन वह भारत की जय (जय हिंद), हिंदुस्तान अमर रहे, हम सब एक हैं या सत्यमेव जयते का नारा गुंजायेगा. इससे भारत माता का सम्मान कम नहीं होता, बल्कि और बढ़ जाता.
क्या यह कहने की ज़रूरत है कि सिर्फ हिंदू ही भारत माता की संतान नहीं हैं. मुसलमान, पारसी, सिख आदि भी भारत माता की संतान हैं. इन्होंने अगर जीवन को और तरह से समझा है, इनके धार्मिक विश्वास या सांस्कृतिक प्रतीक हिंदुओं से अलग हैं, तो इससे वे भारत नामक संयुक्त परिवार से बाहर नहीं हो जाते. कोई भी माता इतनी अनुदार नहीं हो सकती कि वह अपनी किसी संतान की अंतरात्मा पर जबरन कोई खास छाप छोड़ना चाहे.
भारत के स्वाधीनता संघर्ष में सिर्फ हिंदुओं ने भाग नहीं लिया था, यहां के सभी समुदायों ने हिस्सा बंटाया था. पाकिस्तान के स्थापना–पुरुष मुहम्मद अली जिन्ना बहुत दिनों तक कांग्रेस में ही रहे. तब उन्हें हिंदू–मुस्लिम एकता का राजदूत कहा जाता था, जो वह तब थे. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के अधिकांश प्रतीक हिंदू संस्कृति से ही लिये गये. यह सही है कि महात्मा गांधी की प्रार्थना सभाओं में कुरान की आयतें भी पढ़ी जाती थीं और गांधी जी ने अन्य भाषाओं के साथ उर्दू भी सीखी थी, परंतु सविनय अवज्ञा ज़्यादा प्रचलित हुई, सिविल नाफरमानी कम. यह सुभाष बाबू थे, जिन्होंने जय हिंद के नारे का आविष्कार किया, जो आज तक चला आ रहा है. सुभाष बाबू हिंदू थे, पर उनमें इतनी शाइस्तगी थी कि सभी समुदायों की भावनाओं का ध्यान रखा जाये. इसलिए उन्होंने आज़ाद हिंद फौज बनायी, स्वतंत्र भारत सेना नहीं.
लेकिन इस वज़ह से स्वतंत्रता संघर्ष में कोई दरार नहीं पड़ी. आज़ादी का जुनून कुछ ऐसा था कि अपनी कमियों पर नज़र नहीं जाती थी. 1905 में मशहूर चित्रकार अवनींद्रनाथ ठाकुर ने भारत माता की तस्वीर बनायी. वह स्वदेशी आंदोलन का दौर था. यह चित्र जब पहली बार एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ, तब उसका शीर्षक था– स्पिरिट ऑफ मदर इंडिया. शुरू में अवनींद्रनाथ ने इसका नाम बंग माता रखा था. बाद में वह भारत माता हो गयी. यह अवनींद्र नाथ ठाकुर की चेतना का विस्तार था. बंकिम चंद्र इसके भी पहले ‘वंदे मातरम्’ का गायन कर चुके थे. पश्चिम में मातृभूमि को फादरलैंड कहते हैं. वह हिंदुस्तान में मदरलैंड हो गया, क्योंकि हमारे यहां पिता की तुलना में माता का स्थान ऊंचा है. फिर तो भारत माता की सैकड़ों अलग–अलग तस्वीरें बनीं.
आज मुसलमानों को नहीं, मुस्लिम नेताओं को ‘भारत माता की जय’ कहने में मुश्किल आती है, क्योंकि भारत माता जो भी हों, एक बुत ही हैं और इस्लाम में बुतपरस्ती का निषेध है. हृदय को थोड़ा उदार बनायें, तो गैर-हिंदू भी ‘भारत माता की जय’ कह सकते हैं, क्योंकि यह बुत वास्तव में कहीं है नहीं और तस्वीरें भी किसी वास्तविक व्यक्ति की नहीं हैं. यह एक भावना या कल्पना है, जिससे हमारे राष्ट्रबोध को मज़बूती मिलती है. साथ रहने का इतना धर्म तो होता ही है. फिर भी यह कहना भारत माता की संवेदना के एकदम उलटा जाना है कि जो ‘भारत माता की जय’ नहीं कहेगा, वह राष्ट्र-विरोधी है. जिस तरह मां सरस्वती के दरबार में उसके लिए भी जगह है जो अपने को नास्तिक कहता है, उसी तरह भारत माता की संतानों का प्यार उसे भी मिलना चाहिए जो सिर्फ अपने मुहावरे में भारत का आदर करता है. हाल ही में मऊ के एक मुशायरे में वसीउद्दीन जमाली ने जो रुबाई पढ़ी, उसकी पंक्तियां हैं- मादरे-हिंद को रुसवा नहीं होने देंगे, बीज़ ऩफरत के न अब इस मुल्क में बोने देंगे.
मई 2016