पुरोगामिनी (उपन्यास) भाग – 1

सूर्योदय नहीं हुआ है; लगता है, होगा भी नहीं, सावित्री का बाह्य मन अवसाद के काले बादलों से घिरकर आहत हो जाता है. पिछले बारह महीनों से यही हो रहा है. बीतते हुए दिनों के साथ वह अपने-आप को ही बीता हुआ अनुभव करने लगती है; उसे लगता है जैसे समय के साथ उसकी शक्ति भी समाप्त हो रही हो. वह दो भागों में बंटकर जी रही है; एक की कमान दृढ़ संकल्प के हाथों में है, तो दूसरा भाग ढुलमुल आशंकाओं में उलझा घिसट रहा है.

संकल्प और आशंका के इस असमान द्वंद्व को वह लगातार झेलती जा रही है. एक ओर अपने संकल्पन के सहारे वह आकाश की ऊंचाइयां मापते नहीं थकती तो दूसरी ओर उसके आलता-रंजित पैरों में संशय के छोटे-छोटे कांटे चुभते रहते हैं. वह न तो अपनी दिग्यात्राओं के अभियान के अनुभव किसी के साथ बांट सकती है और न चुभन की पीड़ाएं किसी को सुना सकती है. अपने प्रणयी पति को भी नहीं जो उसके सुंदर मुख पर अपनी स्नेहिल आंखें टिकाये रहता है.

जब वह सो जाता है, तब सावित्री उसे जी भर निहारती है, पलकों से टटोलती है; कितना संतुलित, कितना आकर्षक, कितना समर्थ. संसार का सर्वश्रेष्ठ पुरुष. प्रथम दृष्टि में ही जिसे अपना मान लिया था, वह उसके हृदय पर सम्पूर्ण अधिकार जमा चुका है- सावित्री उसके पैरों को धीरे-से छूती है; इतनी सावधानी से कि उसकी नींद में बाधा न पड़े. उसकी कज्जल आंखें भर आती हैं. परंतु वह आंसुओं को लुढ़कने नहीं देती; इन मोतियों को वह धैर्य के धागे में पिरोती जाती है उसने इन्हें अपना तावीज बनाकर धारण कर लिया है.

कभी-कभी उसे लगता है कि कहीं किसी दुर्बल क्षण में उसके मुख से कुछ निकल न जाये! अपनी भावुक अन्यमनस्कता त्याग कर वह बहुत सावधान हो जाती है. हालांकि पति द्वारा प्रकट किये गये प्रेम की उत्कटता तो उसे विकल बना ही देती है; वह उसके स्नेह से सराबोर होकर कांप जाती है. प्रेम की यह उष्णता उसे दग्ध कर देती है. उसके तन का विवश-कातर रोम-रोम विलपने लगता है- इसके बिना तू कैसे जी पायेगी, सावित्री!

इस नितांत एकाकी मनोव्यथा को उसने स्वयं ही अपने जीवन में निमंत्रण दिया है; और अब! एक अथाह नद को पार करने की अनकही चुनौती भी उसने स्वीकार ली है. उसकी दृष्टि एक ऐसे लक्ष्य पर है जो मानव मन की कल्पना के परे है. हालांकि उसे यह भी बताने वाला कोई नहीं था कि उसके इस निष्ठित मनोभाव को ही संकल्प कहते हैं. इस शाल्व वन में वह जिस रण के लिए प्रस्तुत हो चुकी है, इतने गोपनीय स्तर पर चलने वाला है कि आसपास बहने वाली हवा तक को इसकी भनक नहीं मिल पायेगी. और, अभी युद्ध आरम्भ कहां हुआ है? अभी तो वह मात्र आयुध एकत्र कर रही है.

हालांकि संघर्ष की नींव तो उसी दिन पड़ गयी थी जब वह वरसंधान-यात्रा के बाद घर लौटी थी. उस समय उसके पिताश्री राजा अश्वपति के विशेष कक्ष में नारद मुनि भी उपस्थित थे; पति रूप में सत्यवान का चयन कर लेने की महत्त्वपूर्ण सूचना उसने अपने माता-पिता को मुनि के सामने ही दी थी. तभी नारद मुनि ने सत्यवान की आयु से सम्बंधित वह अप्रिय भविष्य-कथन किया था और शालीनता के साथ सदा ही चुप रहने वाली उसकी माताश्री आकुल-व्याकुल होकर प्रलाप करने लगी थीं -‘नहीं-नहीं. सावित्री! तुम्हारा विवाह सत्यवान से नहीं होगा. वही एक सुपात्र नहीं है. एक-से-एक योग्य राजकुमार हैं. तुम्हारे पिता संधान करेंगे. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है? प्रतीक्षा की जायेगी. उसे भूल जाओ, बेटी. बिल्कुल भूल जाओ उसे.’ वे बोलते-बोलते रो पड़ीं, तब उनके पति, राजा अश्वपति ने अपने आसन से उतरकर उनका हाथ थाम लिया था और नारदजी की ओर प्रश्नबोझिल दृष्टि उठायी थी. बेटी की ओर देखने का साहस वे नहीं जुटा पा रहे थे. अभी-अभी मुनिवर नारद ने जो कहा था, वह सत्य है या मिथ्या यह पूछने का मन भी वे नहीं बना पा रहे थे. पति के हस्तक्षेप से रानी सहमकर चुप हो गयी थीं. सारे वातावरण में एक दुखदाई सन्नाटा पसर गया था.

सावित्री सिर झुकाये खड़ी थी. किसी प्रेरणा से उसने सिर उठाया, माता-पिता तथा मुनि की ओर विनम्रतापूर्वक देखा और मंद स्वर में कहा, ‘अब बदला नहीं जा सकता; जो होना था हो चुका.’ माताश्री पथरा-सी गयीं. पिताश्री के मुख पर एक अनिश्चय तैरता रहा. मुनि कुछ पल निर्विकार बैठे रहे.

उस ध्वनिविहीन कक्ष में नारदजी ने अविचलित स्वर में, स्वस्तिकर भाव तथा मुद्रा के साथ कहा-‘राजन. कल्याणी सावित्री जो कर रही है, ठीक है. इसे न रोकें’- नारद द्वारा दिया गया यह धीर-गंभीर निदेश राजा अश्वपति को प्रिय लगा; मानो यह एक आशीर्वचन हो. उन्होंने अपनी पत्नी को भी मूक आश्वासन दिया. यह सारा संदर्भ अति गोपनीय बना रहा; इन चार व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी को ज्ञात नहीं हुआ कि सावित्री ने अपने वर रूप में जिसका चयन किया है, उस युवक सत्यवान की आयु के अब कुल बारह महीने ही बचे हैं.

विवाह राजधानी में नहीं हुआ था.

सत्यवान के साथ सावित्री का शुभविवाह उस शाल्व वन में सम्पन्न हुआ, जहां सत्यवान और उसके माता-पिता का तत्कालीन निवास था. सावित्री के पिता राजा अश्वपति कन्या सहित, आवश्यक साज-सामान के साथ एक शुभतिथि को राजपुरोहित तथा अन्य याज्ञिकों को लेकर शाल्व वन पहुंच गये. वे लोग सत्यवान के पिता राजा द्युमत्सेन के आवास के कुछ पहले ही रथ से उतर गये और पैदल ही चलकर उनके सम्मुख उपस्थित हुए. कुश के गद्दे पर बैठे अंध और भव्य राजा को प्रणाम कर अश्वपति ने अपना परिचय दिया. राजा द्युमत्सेन ने उनसे अनुरोध किया कि वे अपने सहयोगियों के साथ आसन ग्रहण करें. और, फिर उनसे उनके आगमन का प्रयोजन पूछा.

मद्र नरेश अश्वपति ने अपना अभिप्राय संक्षिप्त शब्दों में बता दिया- ‘हे राजर्षि, यह मेरी प्रिय पुत्री सावित्री है; आपसे मेरा विनम्र निवेदन है कि इसे अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकारने का अनुग्रह करें.’

दो पल नीरवता बनी रही. उसके बाद द्युमत्सेन ने कहा- ‘बंधु, आप तो जान ही चुके हैं कि दुर्भाग्य से हम अपना राज्य खोकर वन में रह रहे हैं. ऋषि-मुनियों के बीच हम उन्हीं के समान जीवन यापन करते हैं. आपकी पुत्री को ऐसे जीवन का अभ्यास नहीं है; उसे कष्ट होगा.’

‘महाराज! मित्रता और सौहार्द के नाते मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि मुझे निराश न करें. हम प्रेम के वशीभूत आपके पास आये हैं. प्रेम दुर्लभ वस्तु है; राजसी ऐश्वर्य से उसका स्थान बहुत ऊंचा है. आप तो धर्म के ज्ञाता हैं; मेरी पुत्री ने जब अनौपचारिक स्वयंवर में आपके पुत्र का वरण कर लिया है, तब आप हमारा निवेदन अस्वीकार न करें. मुझे और मेरी पुत्री को ज्ञात है कि सुख-दुख जैसे शब्द हमारे लिए नहीं बने हैं. मुझे विश्वास है कि मेरी पुत्री की पवित्र प्रवृत्तियां आप सबको भायेंगी. इसे अपने सुयोग्य पुत्र आयुष्मान सत्यवान की भार्या के रूप में विधिवत स्वीकारें. इस सम्बन्ध से हममें जो मैत्री स्थापित होती है, वह सदा बनी रहेगी.’राजा द्युमत्सेन के मुख पर किंचित संतोष और आनन्द की मिश्रित द्युति फैल गयी. स्मित मुख से वे बोले- ‘बंधुवर. मैं आज आपको बता रहा हूं; आपकी कन्या की विशिष्टता इसके शैशवकाल में ही चर्चित हो गयी थी; मुझ तक भी वह बात पहुंची थी. पुत्र सत्यवान भी बालक ही था. मेरे मन में यह अभिलाषा उत्पन्न हुई थी कि समय पर मैं अपने पुत्र के लिए आपकी कन्या की मांग करूं. फिर दुर्घटनायें घटीं, तब मैंने अपने मन से वह बात निकाल दी थी. आज आप स्वयं आये हैं; तब मुझे लग रहा है कि यह विधि द्वारा पूर्व निर्धारित है. आप संकोच न करें, यह मेरे लिए भी अभीप्सित संयुति है. आप हमारे परिवार के सम्माननीय अतिथि रूप में पूजनीय हैं. इस वैवाहिक सम्बंध हेतु मेरी पूर्ण हार्दिक सहमति है; सर्वोत्तम विधि से शुभविवाह सम्पन्न हो.’

पक्षियों के कल-कूजन से गुंजित प्रकृति के अत्यंत रमणीक प्रांगण में ऋषि-मुनियों और वनवासियों के समक्ष सत्यवान सावित्री का शुभविवाह पूर्ण वैदिक रीति से सम्पन्न हुआ. कुलाचार, लोकाचार सब का निर्वाह करते हुए पवित्रता के साथ अनुष्ठान पूरा किया गया. उस आडम्बरहीन विवाहोत्सव में एक अनूठा आनन्द प्रवाहित हो रहा था. वर-वधू का सौंदर्य देखते ही बनता था. सब एक स्वर से कह रहे थे इन दोनों को विधाता ने एक-दूसरे के लिए ही बनाया है.

सावित्री के पिता राजा अश्वपति स्वयं एक योगी थे. परंतु विवाहोपरांत सावित्री को शाल्व वन की उस कुटी में छोड़कर लौटते समय उनका हृदय एक सामान्य गृही पिता की तरह विलपने लगा. उन्हें ऐसा लगने लगा जैसे उन्होंने अपनी अमूल्य निधि खो दी हो. यह केवल पुत्री से करुण बिछोह की पीड़ा नहीं थी; उनकी मनोव्यथा सावित्री की नियति को लेकर थी. उनके हृदय में कोई अशुभ शोकातुरता नहीं थी; क्योंकि उन्होंने सत्यवान के चारों ओर सुनहले सूक्ष्म-शरीर का एक घेरा देखा था. उससे उनके मन में बार-बार प्रश्न उठा करता था, क्या नारद जी का अभिज्ञान सही है? यद्यपि राजा अश्वपति को विश्वास था कि मुनिवर नारद असत्य नहीं बोलते, फिर भी वे एक सामान्य मनुष्य की तरह यह कामना किये बिना नहीं रह पाये कि मुनि का यह कथन असत्य हो जाये!

सावित्री उन्हें कठिन तपस्या के बाद प्राप्त हुई थी. उनके अपने विवाह के अनेक वर्ष बीतने पर भी जब संतान का जन्म न हुआ, तब मन में एक चिन्ता उपजी थी.वे स्वंय संतान के इच्छुक थे ही, परंतु उनसे अधिक उनकी पत्नी संतान का अभाव अनुभव कर अवसन्न हुई जा रही थीं. रानी दत्तक संतान के लिए भी राजी नहीं थीं. राजज्योतिषी के सुझाव पर राजा ने तपस्या का मार्ग अपनाया. अश्वपति की निष्ठापूर्ण साधना के सुफलस्वरूप सावित्री ने उनके घर जन्म लिया. इस अलौकिक वरदान से राजा-रानी के जीवन का सूनापन दूर हो गया. एक अप्रतिम कन्या को पाकर वे अपने को संसार का सबसे सौभाग्यशाली दम्पति मानने लगे थे. सावित्री जन्म से ही सुलक्षणा थी, इसके अतिरिक्त माता-पिता ने पुत्री का लालन-पालन अत्यंत सावधानी से किया था. उनके मन में सावित्री के सुखद जीवन की कल्पनाओं का लहराना स्वाभाविक था.

परंतु विधाता ने रस में विष क्यों घोल दिया? राजा ने तो किसी तरह अपनी दुश्चिन्ता पर प्रकटत नियंत्रण पा लिया, परंतु रानी पूरी तरह कुम्हला गयीं; उन्हें सारा संसार ही निरर्थक लगने लगा था. लोगों को लगता था कि रानी इसलिए दुखी हैं कि राजमहलों में पली उनकी पुत्री ने एक अरण्यवासी को पति रूप में चुन लिया है; रानी के वास्तविक शोक का कारण लोग नहीं जानते थे.

सत्यवान के पिता शाल्व नरेश द्युमत्सेन विपत्तियों के दौर से गुजर रहे थे. युवावस्था में ही अचानक उनकी आंखें चली गयीं. उस समय उनका एकमात्र पुत्र सत्यवान आठ वर्ष का बालक ही था. अभी वे अपनी आंखों की चिंता में थे ही कि घात लगाकर बैठे पड़ोसी राज्य के शत्रु ने आक्रमण कर दिया. यह पूर्व नियोजित एक षड्यंत्र था जिसमें उनका अपना ही एक विश्वासघाती मंत्री उस शत्रु की मदद कर रहा था. इस स्थिति में उन्हें आत्मरक्षा के लिए कुछ विश्वसनीय लोगों के साथ सपरिवार पलायन करना पड़ा; अरण्य में शरण लेनी पड़ी. यह वन भी उनके राज्य का ही एक महत्त्वपूर्ण भाग था; बल्कि इस वन को ऋषि-मुनियों के निवास योग्य बनाने हेतु इसे दैत्यों से मुक्त कराने में द्युमत्सेन की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी. उन्होंने सैन्य बल से दैत्यों का दलन किया था और राजकोष से भरपूर आर्थिक सहायता देकर अरण्य को सुरम्य बनाया था. सब को इस बात की जानकारी थी कि शाल्व वन से निष्कासित दैत्यों ने राजा द्युमत्सेन के शत्रुओं से सांठ-गांठ कर ली है. द्युमत्सेन धर्मप्राण राजा थे; अपनी प्रजा के बीच लोकप्रिय थे. ऋषि-मुनिगण तथा विद्वत्जन उन्हें अपना कुलपति मानते थे. मुट्ठी भर नराधमों को छोड़कर, सब राजा के पक्षधर थे. इस विपत्ति में समस्त जन समाज ने राजा का साथ दिया. विद्वत्समुदाय तथा ऋषि-मुनियों ने उन्हें ससम्मान सुरक्षा दी. वन वासियों और मुनियों ने मिलकर शाल्व वन को एक प्राकृतिक दुर्ग के रूप में परिणत कर दिया. यह रम्य राजधानी की तरह लगने लगा था.

वे लोग तो अपने विपत्तिग्रस्त राजा के लिए एक महल निर्माण की योजना बनाने लगे थे, लेकिन राजा ने स्वयं ही उन्हें वर्जित कर दिया और कुटिया में रहने की इच्छा जताई. तब राजा, रानी तथा राजकुमार के योग्य एक भव्य कुटी का निर्माण किया गया. ऋषि-मुनियों के बीच राजपरिवार भी उन्हीं की रीति से जीवन यापन करने लगा. राजकुमार सत्यवान की शिक्षा-दीक्षा ऋषियों की देख-रेख में ही हुई. इसलिए जन्म से सत्यवान भले ही राजकुमार हो, वह ऋषिकुमारों के समान संस्कारित हुआ था. उसमें जो जन्मजात अभिजात्य था वह आर्षज्ञान और बौद्धिकता से भी परिशोधित हो चुका था. इसके अलावा, उसमें एक ऐसी प्राकृतिक सहजता थी जो राजकुमारों में नहीं पायी जाती. यद्यपि उसे युद्धकला, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि की भी शिक्षा दी गयी थी, पर आनुवंशिक राजसी ठवन के साथ उसमें एक स्वाभाविक सौम्यता थी जिसके कारण वह अद्भुत रूप से प्रियदर्शी बन गया था.

उस दिन, जब मुनि नारद ने मद्र नरेश अश्वपति के कक्ष में सत्यवान की विशेषताओं का वर्णन किया था, तब इतने गुणों का समाहार देखकर वे सपत्नीक चकित हो गये थे. बृहस्पति-सदृश ज्ञानी और अश्विनीकुमार के समान सुरूपवान इस वीर राजकुमार को उनकी पुत्री ने चुना है, इस बात का आंनद सावित्री के माता-पिता दो पल भी नहीं उठा पाये कि मुनि ने सत्यवान के अल्पायु होने की बात सुना दी थी, और तब तो मानो उल्कापात ही हो गया. सारे शुक्ल पक्षीय प्रकाश को जेष्ठ मास की काली अमावसी लील गयी.

वह सत्यवान के जीवन का अंतिम दिन था.

आज वही दिन है; इसकी मनहूस धमक सावित्री प्रतिदिन अनुभव करती रही थी. आसन्न हानि की प्रतीति उसे अवसन्न बनाती गयी, फिर भी इन बारह महीनों में उसने भय को पास फटकने नहीं दिया, क्योंकि वह दुर्बल होना नहीं चाहती थी. उसे पता था कि दुर्बलता द्वारा बनाये गये छिद्र से सारी विपत्तियां घुस आती हैं. परंतु वह अपने को किसी छिद्र बल के भुलावे में भी पड़ने से बचा रही थी. उसे अपनी सीमाओं का पता था. वह उन्हीं सीमाओं के कगार पर खड़ी होकर उन शक्तियों का आह्वान करने लगी जो उसे उबार सकती थीं. उसकी पुकार का अंतर्नाद इतना गहरा, इतना सटीक था कि उसे अविलम्ब सकारात्मक प्रत्युत्तर मिलने लगा.

वह विनम्र थी. विनम्रता व्यक्ति को चेतना के जिस ऊर्ध्व स्तर पर ले जा सकती है, उसके उच्चतम मुकामों तक सावित्री की पहुंच संभव हो जाती थी. वह दिगभ्रमित होना नहीं चाहती थी. इसलिए अपने मन को एक पल के लिए भी सही दिशा से विमुख होने की अनुमति नहीं देती थी. वह बिलमना नहीं जानती थी. तुच्छ उपलब्धियां उसे संतुष्ट नहीं कर पाती थीं. वस्तुओं की नगण्यता उसकी समझ में आ जाती थी. नगण्य को विकसित होने के लिए यथास्थान छोड़कर, अग्रगण्य के संधान में आगे बढ़ जाने में उसने कभी देर नहीं की. उसके लिए एक-एक पल मूल्यवान था. क्योंकि इसी सीमित समय में उसे ‘काल’ से ही लोहा लेने की तैयारी कर लेनी थी. इसके लिए उसे किसी बाहरी उपकरण से सहायता मिलने की आशा नहीं थी. वह स्वयं योद्धा थी, उसे अपने-आप को ही उपकरण बनाना था. युद्ध क्षेत्र का निर्धारण भी उसके हाथ में नहीं था. वह कहीं भी, कभी भी, किसी स्थिति में अपने अज्ञात प्रतिपक्षी का प्रतिरोध करने को तैयार हो रही थी. शुभविवाह के उन्मादक क्षणों में ही उसकी इस तैयारी का प्रारंभ हो गया था. जब सत्यवान ने उसका पाणिग्रहण किया, उसी क्षण सावित्री के ऊपर सत्यवान का उत्तरदायित्त्व आ गया. और, एक पल भी व्यर्थ गंवाये बिना वह अपने अभियान में लग गयी.

उसे पता था कि उसे क्या चाहिए.

उसने तुरंत ही जान लिया कि उसकी प्रकृति दो भागों में बंटी है; एक भाग थकान, रोग और अवसान के अधीन सतह पर दृष्टिगोचर था. किंचित प्रयास के बाद ही सावित्री उस सतही उपांत से ऊपर उठने में सफल हो गयी. उसकी प्रकृति का दूसरा अनुपयुक्त भाग इन बंधनों से मुक्त तो था, पर श्लथ और सुप्त-सा पसरा हुआ था. सावित्री अपने पांव की पायलों को खोल, निशब्द पगों से अपनी प्रकृति की उस उच्चतर अंतभूमि में प्रविष्ट हुई.

सूक्ष्म प्रकृति में वह अवगाहन जितना सरल था उतना ही कठिन था वहां पहुंचने के बाद प्राप्त अनुभवों को झेल पाना. अब वह वस्तु को उसके यथार्थ रूप और अर्थ में देख सकती थी. सावित्री को निश्चेतना की घोर भौतिक कालिमा, प्राण के क्रूरतम आदिम स्वभाव और मन के उलझे हुए अज्ञान का सामना करना पड़ रहा था. उसे आश्चर्य हुआ. क्या यही है जगत का वास्तविक, अनावृत रूप? क्या इससे कोई विश्वसनीय उपकरण प्राप्त करने की आशा की जा सकती है? मिथ्या के जाल में फंसे हुए इस जगत में उसे सत्पथ की कोई गैल मिल पायेगी? आलस्य को विलास मानने वाला मानव स्वभाव क्या किसी परिवर्तन के लिए उठना चाहेगा? क्या वह उस उच्छृंखल मानव से किसी श्रेयस्कर सहयोग की अपेक्षा कर सकती है जो आंतरिक अव्यवस्था को बाह्य जीवन पर भी थोप कर श्रेष्ठ का अनादर करने से नहीं हिचकता? रोग को भुक्ति का ही अनिवार्य यंत्र मानने वाले मनुष्य को वह निरोग तन-मन की महत्ता कैसे समझा सकेगी? एक-दूसरे को ठगने-ठगाने में लगे जन समूह में वह किसी लोकोपकारी को कैसे ढूंढ़ पायेगी? ठीकरे के वणिक को क्या वह अचानक हीरे का श्रेष्ठी बना पायेगी? इस विकृत मनोवृत्ति से आवृत मनुज के मन को वह प्रेम जैसे शुद्ध मलयानिल के स्पर्श का अनुभव कैसे करा पायेगी? हार को मन मार कर स्वीकारने वाले लोग क्या उसे हतोत्साहित नहीं करेंगे? नियति की जिस भ्रामक नीति के विरुद्ध वह उठ खड़ी हुई है, क्या उससे लोहा लेने के उपयुक्त अकाट्य शस्त्रात्र यहां, इस भ्रष्ट समूह के बीच पा सकेगी? कौन समझ पायेगा उसके त्रास को? वह कातर हो उठी.

तभी उसकी उन्नत प्रकृति ने उसका हाथ थामकर संकेत भरा आदेश दिया- ‘शुभे. तू अपनी आत्मा का संधान कर. उसका साक्षात्कार पाने का प्रयास कर. उसके स्वरूप को पहचान. और, उसके साथ एकाकार हो जा.’

आत्मा.

कहां है मेरी आत्मा? कहां पाऊंगी उसे? उस तक पहुंचने का मार्ग कौन सा है? कैसे पहचान पाऊंगी? सावित्री की सूक्ष्म दैहिक, प्राणिक, मानसिक शक्ति आत्माभिमुखी होने को तत्पर थी. परंतु उसे यह पता नहीं था कि आत्मा का निवास कहां है, अत किस मार्ग से जाये यह कैसे तय कर पाती? इसके अलावा उसे यह भी पता नहीं था कि आत्मा का स्वरूप क्या है. कहीं ऐसा न हो कि उसकी आत्मा उसके सामने खड़ी हो और वह उसे पहचान ही न पाये.

इस आंतरिक द्वंद्व के बीच भी वह निराश नहीं थी; कोई चुंबकीय तत्त्व उसे खींचे ले जा रहा था. उसकी अंतर्यात्रा जारी रही.

पथ कंटकाकीर्ण था. कभी न समाप्त होने वाला अंधकार चारों ओर फैला था. एक ओर पहाड़ तो दूसरी ओर खाइयों वाली उपत्यका के ढलान भरे मार्ग थे. अस्थियों को कंपा देने वाली शीत-लहर चल रही थी. असमय उठे झंझावात के झोंके पांव उखाड़ने लगते थे तो कहीं तप्त बालुकाराशि का जलहीन प्रसार झुलसाने लगता था; प्रकृति अपने निरंकुश स्वभाव का परिचय दे रही थी. फिर भी सावित्री के कोमल पग सावधानी से, अविराम आगे बढ़ते जा रहे थे.

(क्रमशः)

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