कर्मेसु कौशलम् (कुलपति उवाच ) मई 2016

स्वकर्म के प्रति मेरी खोज और उसके करने की रीति मिलकर एक कर्म बनते हैं. आमने सामने आ उपस्थित हुए कार्य को मैं अपनी सारी शक्ति समर्पित करता हूं. ऐसी समर्पण बुद्धि से किया हुआ कोई भी काम मनुष्य के लिए तुच्छ अथवा हीन नहीं होता.

इस समर्पण के लिए लम्बी और कठोर साधना चाहिए. यह साधना करते-करते मनुष्य को अपना स्वभाव, अपना नित्य कर्म तथा अपना सत्य खोज निकालना है और जो गतिशील एकता या एकतानता बिना योग सम्भव नहीं, वह एकता उत्पन्न करनी है.

अंतिम साध्य है योग. योग एक विशाल और व्यापक क्रिया है. उसके द्वारा मनुष्य स्वकर्म करके जीवन की सीढ़ियां चढ़ता है. इन कर्मों द्वारा गतिशील प्राणवान व्यक्तित्व प्रकट होता है. मनुष्य की सर्वशक्तियों का सम्पूर्ण अनुसंधान- सर्व शक्तियों का समन्वय- इस व्यक्तित्व की बुनियाद है.

इस योग के तीन अंग हैं- बुद्धि अर्थात उच्चतर दृष्टि से गुणातीत होना; गतिशील एकता उत्पन्न करके बुद्धियुक्त बनना और कर्म में कुशल होना. इसकी पहली सीढ़ी है कर्मयोग अर्थात आसक्ति त्यागकर कर्म करना. गीता कहती है जो फल की लालसा से कर्म करते हैं, वे बहुत दीन हैं. लेकिन आसक्ति को त्यागने का अर्थ कर्म को अविचारपूर्ण करना नहीं है. पूरी एकाग्रता से कर्म करना है. इसी का नाम है कर्म में पूर्णता- कर्मेसु कौशलम्.

(कुलपति के.एम. मुनशी भारतीय विद्या भवन के संस्थापक थे.)

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