बांल गंगाधर तिलक ने वाणी और आचार द्वारा कर्मयोग सिखाया. उन्होंने जाति-व्यवस्था से लड़ाई नहीं ठानी. उनका यह मत था कि जाति-व्यवस्था राजनीतिक दासता का परिणाम है, और यदि राजनीतिक दासता नष्ट हो जायेगी तो जाति-व्यवस्था, चातुर्वर्ण्य के मूल उद्देश्य के अनुसार अपने आप व्यवस्थित हो जायेगी. उन्होंने राजनीतिक और सामाजिक प्रवृत्तियों में जो उत्साह और वेग उत्पन्न किये, उन्होंने समाज की चारदीवारियों को चूर-चूर कर दिया. सारे समाज में साहसी और लड़ाका दृष्टि आयी. उनके द्वारा प्रारम्भ किये गये गणेशोत्सवों में सभी जातियों के हिंदू शामिल होते थे. बहुत से सुधारकों के उपदेश जो लाभ नहीं पहुंचा सकते थे, वह तिलक द्वारा प्रवर्तित इस उत्सव ने हिंदू समाज को पहुंचाया. अपने महान ग्रंथ ‘गीता रहस्य’ में भी लोकमान्य तिलक ने कर्मयोग पर ज़ोर दिया.
आज जो जाति-व्यवस्था मौज़ूद है उसने समाज-जीवन के टुकड़े कर डाले हैं, गांधीजी ने भी इसके प्रति अप्रसन्नता प्रकट की है. वह चातुर्वर्ण्य का सच्चा ध्येय नहीं सिद्ध कर सकी, इस कारण उन्होंने इसे दोषपूर्ण कहा. वे यह मानते हैं कि चातुर्वर्ण्य का ध्येय मनुष्य के लिए पूर्णत्व-प्राप्ति का मार्ग सरल करना है. पूर्णत्व-प्राप्ति के मार्ग पर चलने से स्पर्धा और ईर्ष्या का स्थान सहयोग और प्रेम ग्रहण कर लेंगे. परंतु इसके लिए ज़रूरी है हममें सबके प्रति समान व्यवहार और आदर हो. मेहतर, अध्यापक और वकील एक समान हैं, उनके धंधे के प्रति समान आदर-भाव रखा जाना चाहिए. धंधा और व्यवसाय उच्चता की कसौटी नहीं है.
(कुलपति के.एम. मुनशी भारतीय विद्या भवन के संस्थापक थे.)
अप्रैल 2016