वसंत का महीना है फरवरी. फूलों की गंधों और मन की उमंगों से हवाओं को भर देनेवाला वसंत जीवन में सकारात्मकता का एक अध्याय जोड़ देता है. खुशी का एक भीना-भीना अहसास उल्लसित कर जाता है तन-मन को. ऐसे में हम किसी कचरे की बात करें तो थोड़ा अजीब-सा लगना स्वाभाविक है. पर कभी-कभी भीनी सुगंधों से मिलने के लिए उन रास्तों पर भी चलना पड़ता है, जो सुगंध के विलोम को चरितार्थ करते हैं. फरवरी का महीना ऐसे रास्तों की याद दिलाने आता है. इस महीने में हम राष्ट्रीय विज्ञान दिवस भी मनाते हैं. जिस कचरे की हम बात कर रहे हैं उसका रिश्ता भी इसी विज्ञान से है. विज्ञान ने जितना कुछ जीवन को दिया है, उसे सीमाओं में बांधना मुश्किल है, पर वहीं एक सच्चाई यह भी है कि इस देन के साथ बहुत कुछ ऐसा भी जुड़ा है, जिसका रिश्ता हमारे अवैज्ञानिक सोच और विवेकहीन कृत्यों से है.
विज्ञान ने जहां हमारे लिए जीवन की सुविधाएं जुटायी हैं वहीं उनके अविवेकी उपयोग ने जीवन के लिए खतरा भी खड़ा कर दिया है. वह खतरा अटॉमिक एनर्जी वाला भी है और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से उपज रहे ज़हर का भी. कभी प्लास्टिक बनकर यह ज़हर जीवन को दूषित करता है और कभी पर्यावरण को दूषित करके सांसों को ज़हरीला बनाता है. एक ज़हर और भी है, जिसके प्रति जागरूक होना हमारे अस्तित्व की शर्त बन गया है.
अवैज्ञानिक सोच का ज़हर. इसके चलते मनुष्य न तो अपनी उपलब्धियों का उचित लाभ उठा पाता है और न ही उस सबसे बच पाता है जो जीवन को आगे ले जाने के बजाय पीछे धकेलता है. आस्था और विवेक को आमने-सामने खड़ा करके हम उन अवसरों को भी अनदेखा कर रहे हैं जो वैज्ञानिक प्रगति ने हमारे लिए प्रस्तुत किये हैं. हम यह भी नहीं समझना चाहते कि यह अवैज्ञानिक सोच कुल मिलाकर आत्महंता है.
यही सब बातें उस कचरे को परिभाषित करती हैं जो प्रगति का प्रतीक बनी इक्कीसवीं सदी में हमारी चिंता का विषय होना चाहिए. हमारी आवरण-कथा इसी चिंता पर आधारित है
(फ़रवरी, 2014)