जब भाषाओं और बोलियों की चिंता राजनीति से जुड़ जाती है तो किसी षड्यंत्र और खतरे की बू आने लगती है. इन सारी बोलियों के पक्षधरों को इस बात का विचार करना होगा कि कहीं बोलियों को हिंदी से पृथक करके हिंदी का संसार सीमित करने की कोशिश तो नहीं हो रही? आज यदि हिंदी देश की राजभाषा है तो सिर्फ़ इस आधार पर कि हिंदी बोलने वालों की संख्या देश में सर्वाधिक है. इन हिंदी बोलने वालों में मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि बोलनेवाले सम्मिलित हैं. कहीं कोई यह तो नहीं चाह रहा कि इन सब बोलियों को हिंदी से अलग करके हिंदी को राजभाषा के सिंहासन से हटा दिया जाए? यदि ऐसा होता है तो क्या अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ने के लिए राजमार्ग नहीं बन जाएगा? इन सवालों पर भी विचार किया जाना ज़रूरी है. ज़रूरी है यह समझना भी कि मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी आदि के रचनाकारों को हिंदी से पृथक करके उनके महत्त्व और आकार को भी तो कम करने की कोशिश नहीं हो रही?
शब्द-यात्रा
सोना कितना सोना है
आनंद गहलोत
पहली सीढ़ी
आओ…
गियो मिलोव
आवरण-कथा
सम्पादकीय
चिंदी चिंदी होती हिंदी
डॉ. अमरनाथ
मुकाबले में नहीं, हिंदी की छाया में रहने दीजिए बोलियों को
विजय किशोर मानव
भाषा के महाभाव का क्षरण
कैलाशचंद्र पंत
भाषा से गायब होती ज़िंदगी
यश मालवीय
भाषा, साहित्य और देश
हजारीप्रसाद द्विवेदी
मेरी पहली कहानी
मुनासिब
सोहन शर्मा
आलेख
मैंने हिंदी कैसे सीखी
जाबिर हुसैन
क्रांतिकारी कृष्ण
राजशेखर व्यास
किसी से समझौता नहीं किया, मृत्यु से भी नहीं!
हरिशंकर परसाई
आदमियों की भीड़ में इनसान तलाशता शायर
निदा फाजली
मजबूरी का मज़ाक
सच्चिदानंद जोशी
भारत का राष्ट्रीय पुष्प एवं उड़ीसा, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा का राज्य-पुष्प – कमल
डॉ. परशुराम शुक्ल
बृजमोहन, मनमोहन, मैकमोहन
ललित सुरजन
जीनियस पैदा होते हैं या बनाये जाते हैं?
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
व्यंग्य
आओ, भाषा को कुर्सी बनायें
यज्ञ शर्मा
तबाही के लिए 2021 ही क्यों?
रति लाल शाहीन
धारावाहिक उपन्यास
कंथा (पांचवीं किस्त)
श्याम बिहारी श्यामल
कहानी
कृष्ण का रहस्य
ईशान महेश
अंधकार का भंवर
सुखबीर
झाल
घनश्याम देसाई
कविताएं
फ़ैज़ का कलाम
फ़ैज़
तीन कविताएं
मोहित कटारिया
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संस्कृति समाचार
भवन समाचार