जब हम कोई व्यंग्य पढ़ते हैं या सुनते हैं तो अनायास चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. हो सकता है इसीलिए व्यंग्य को हास्य से जोड़ दिया गया हो, और इसीलिए यह मान लिया गया हो कि व्यंग्य हास्य का मुखौटा लगाकर ही प्रकट हो. लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि व्यंग्य हास्य की उत्पत्ति करे ही. छोटे से केले के छिलके पर किसी मोटे व्यक्ति को फिसलता देखकर हंसी आना भले ही अशिष्टता हो, पर हंसी आ जाती है. इस हंसी के साथ व्यंग्य कहीं नहीं जुड़ा. लेकिन जब छोटे और बड़े के इस रिश्ते को फिसलन के उस दर्पण में देखा जाता है, जो किसी ने यह दिखाने के लिए सामने रखा है कि ‘बड़े’ की गर्वोक्ति वस्तुतः कितनी छोटी है, तब स्थिति भी बदल जाती है और उसका अर्थ भी. विसंगतियों को सामने लाने, उन्हें सही ‘ाoम’ में रखने और ऐसा करके किसी सुधार की ओर इशारा करने की प्रक्रिया की व्यंग्यकार की दृष्टि से स्थितियों को देखना कहा जा सकता है. यह देखकर भी चेहरे पर मुस्कान तो आ सकती है, पर भीतर मन में खुशी नहीं, एक पीड़ा जनमती है. हो वस्तुतः व्यंग्य विसंगतियों के खिलाफ़ एक संघर्ष है, पर इस संघर्ष की विशेषता यह है कि इससे कटुता नहीं जनमती, एक प्रकार की करुणा का भाव जगता है. इस करुणा में आक्रोश भी है और विकृतियों से उबरने की एक सात्विक कोशिश भी.
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