♦ नारायण दत्त >
डॉ. परशुराम शुक्ल ने अपने लेख ‘पश्चिम बंगाल का राज्य वृक्ष सप्तपर्ण, (फरवरी अंक) में यह ठीक कहा है कि सप्तपर्ण की फुनगी में सदा सात ही पत्ते नहीं होते. मैंने कितनी ही फुनगियों में चार से आठ-नौ तक पत्ते पाये हैं. फिर भी सात (सप्त) की संख्या को शायद इस सुंदर वृक्ष से विशेष प्यार है, जैसा कि ‘सप्तपत्र’, ‘सप्तच्छद’ जैसे इसके संस्कृत पयार्यवाची सूचित करते हैं. वैसे संस्कृत- सरस्वती नाम बांटने के मामले में बेहद उदार है, उसने सप्तपर्ण को और भी बहुत से नाम दे डाले हैं- विशालत्वक, शारदी, विष्णुच्छद (अमर कोश), शारद, देववृक्ष, दानगंधि, शिरोरुजा, ग्रहनाश, शूतिपर्ण, गृहाशी, ग्रहनाशन (शब्द रत्नावली कोश).
इस वृक्ष का हिंदी नाम ‘छतिवन’ है और बांग्ला में इसे ‘छातिम’ कहते हैं. कई दशक पहले मुंबई के किसी अंग्रेज़ी दैनिक में इस वृक्ष के बारे में एक विस्तृत और जानकारी भरा लेख छपा था. उसमें बताया गया था, कि ‘छतिवन’ शब्द असावधान लोगों की कृपा से ‘शैतान’ में बदल गया है और उससे कई जगह यह अंधविश्वास फैला है कि इस वृक्ष पर शैतान निवास करता है. सचमुच अंधविश्वासी मन बड़ा उर्वर होता है मगर अभी यह पत्र लिखने की तैयारी करते हुए मैंने मुंबई की प्रतिष्ठित विज्ञान-संस्था बॉम्बे नैचुरल हिस्टरी सोसायटी के समर्थन से छपी और श्री.के.सी. साहनी की लिखी ‘द बुक ऑफ़ इंडियन ट्रीज़’ पलटी तो पाया कि उसमें इसका परिचय ‘स्कॉलर्स ट्री’, ‘इ डेविल्स ट्री’ शीर्षक से दिया गया है. यही नहीं, वहां इसका हिंदी नाम ‘शैतान की झुर’ बताया गया है- बेशक नाम रोमन लिपि में छापा गया है. यह ‘झुर’ क्या बला है, मैं नहीं समझ पाया.
हां, श्री साहनी की पुस्तक में सप्तपर्ण की फली, पत्ती और फूल का सुंदर रेखांकन छपा है रेखांकन पी.एन. शर्मा का है.
यह बात निश्चित है कि बंगाली मानस ‘सप्तपर्ण’ को शैतान से हर्गिज़ नहीं जोड़ता. वरना वह उसे राज्यवृक्ष का गौरवपूर्ण दर्जा न देता. बंगाल की सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक शांतिनिकेतन ने तो एक तरह से इसे मांगलिक वृक्ष माना है. प्रतिवर्ष अपने दीक्षांत समारोह में शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय प्रत्येक नवस्नातक को उपाधि पत्र के साथ सप्तपर्ण की एक फुनगी आशीर्वाद के रूप में प्रदान करता है.
(मार्च 2014)