समंदर पर पुल बांधने का वक्त

♦  देवेंद्र इस्सर    >

पहले एक किस्सा सुनिएः काफी हाउस में एक दिन उसकी मुठभेड़ एक वेटर से हो  गयी जो रामपुर का था. कहने लगा कि इंतज़ार साहब, आपने अपनी कहानियों में जो ज़बान लिखी है वह हमारे रामपुर में कंजड़ियां बोला करती हैं. कभी शरीफ़ज़ादियों की ज़बान और अशरफ (अभिजात्य) का मुहावरा लिखकर दिखाइए.

रामपुरी वेटर की बात सुनकर इंतज़ार हुसेन अपना-सा मुंह लेकर रह गया. फिर उसने दिल्ली और लखनऊ का मुहावरा लिखने के लिए बहुत ज़ोर मारा मगर कहां दिल्ली और लखनऊ के अशरफ और कहां डिबाई का रोड़ा. उसने जल्दी ही अपनी हैसियत को पहचाना और पैंतरा बदल लिया. दिल्लीवालों को अपनी कोसर में धुली हुई उर्दू पर नाज़ था. उसने कहना शुरू किया कि मैं तो गंगा में धुली हुई उर्दू लिखता हूं. किसी ने पूछ लिया- ‘यह उर्दू तुमने सीखी किससे है?’ जवाब दिया- ‘संत कबीर से.’ पूछनेवाला उसका मुंह तकने लगा और बोला- ‘उर्दू का कबीर से क्या वास्ता?’ इंतज़ार हुसेन ने ढीठ बनकर जवाब दिया कि ‘कबीर उर्दू का सबसे बड़ा शायर है.”

ज़िक्र आया तो यह बात भी सुन लीजिए. जब पाकिस्तान में गालिब की 200वीं बरसी मनाने का सवाल आया तो वहां के कुछ लोगों ने यह आवाज़ उठायी कि पाकिस्तान से क्या सम्बंध. वह तो हिंदुस्तानी शायर है.

प्रश्न सिर्फ यह नहीं कि हम कैसे प्रभावित होते हैं, बल्कि यह है कि जो हमारा समाज है, जिस संस्कृति में हम परवरिश पाते हैं, उसके अंदर रहते हुए हम किस प्रकार अपने साहित्य का सृजन करते हैं और इस साहित्य से दूसरी भाषाओं से किस तरह के रिश्ते बनते या बिगड़ते हैं. प्रश्न यह है कि इस समाज और संस्कृति और इन भाषाओं से हमारे सर्जनात्मक सम्बंध क्या हैं. हैं भी या नहीं! यदि हैं तो किस प्रकार के हैं. हर दौर में कोई न कोई प्रभावी प्रवृत्ति पनपती है. लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब भाषाएं एक ही भूखंड की उपज हों. जैसा कि हिंदी और उर्दू. लेकिन राजनीतिक कारणों से भाषाएं अस्मिता का प्रश्न बन जाती हैं. उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा है लेकिन वह वहां किसी भी हिस्से में बोली नहीं जाती.

हम बड़े ही नाजुक दौर से गुज़र रहे हैं. ऐसे दौर में भाषाएं अस्मिता की समस्या बन गयी हैं. एक राजनेता की बात याद है कि ‘उर्दू बहैसियत एक सांस्कृतिक बिरसे के मुस्लिम अस्मिता का प्रश्न बन गयी है.’ यदि हम तकनीकी तौर पर बात करें तो उर्दू उत्तरी भारत के अधिकतर मुसलमानों की ज़बान है. वह ज़बान जो उनकी मज़हबी ज़रूरतों को पूरा करती है. वे महसूस करते हैं कि यह ज़बान उनकी मज़हबी और तहज़ीबी पहचान बन गयी है.

तो इस दौर में संयुक्त संस्कृति का क्या होगा? जब मैं इस विषय पर बुद्धिजीवियों को इतिहास के उद्धरण देते हुए सुनता हूं तो मुझे परेशानी होती है कि भारत विभाजन के साथ ही पैराड़ाइम शिफ्ट हो गया है. समाज में विभाजन (स्वतंत्रता) के बाद जितने परिवर्तन हो रहे हैं उनके बारे में कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. लेकिन परिवर्तन की प्रक्रिया तथा प्रकृति को पहचान कर उसकी दिशा और रफ्तार का अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है. इन सम्भावनाओं को समझ कर ही हम परिवर्तन की प्रक्रिया में सर्जनात्मक हस्तक्षेप कर सकते हैं.

आल्विन टाफलर ने अपनी पुस्तक ‘द थर्ड वेव’ में लिखा हैः ‘हमारे जीवन में एक नयी सभ्यता का उदय हो रहा है. दृष्टिहीन लोग हर जगह इसके आगमन को रोकने का प्रयत्न कर रहे हैं. यह नयी सभ्यता अपने साथ नये पारिवारिक सम्बंध, कामकाज के नये तौर-तरीके, प्यार और जीने के नये अंदाज़, नयी वैज्ञानिक व्यवस्था, नये राजनीतिक संघर्ष और इन सबसे बढ़कर एक नयी बदली हुई चेतना ला रही है.’ नयी सभ्यता का उदय हमारे जीवन की सबसे अधिक विस्फोटक सच्चाई है.

मैंने अपनी बात इंतज़ार हुसेन के उद्धरण से शुरू की थी और अंत भी उन्हीं के उपन्यास ‘आगे समंदर है’ के एक उद्धरण पर करना चाहता हूं. ‘एक वक्त ऐसा होता है कि हम कश्तियां बनाते हैं और एक वक्त ऐसा होता है कि हम कश्तियां जलाते हैं. लेकिन एक समंदर बिफरा हुआ है हमारे अंदर, उसकी तरफ हम ज्यादा ध्यान नहीं देते.’ कुछ इस किसम की बात है कि साहित्य और संस्कृति में अब कोई कश्तियां नहीं बनाता. शायद हमने अपने अंदर बिफरे हुए समंदर को पहचानना बंद कर दिया है. मैं नहीं जानता कि यह वक्त कश्तियां बनाने का है या जलाने का. लेकिन यह जानता हूं कि यह वक्त अपने अंदर और बाहर बिफरते हुए समंदर पर पुल बांधने का ज़रूर है.’

(मार्च 2014)

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