पहले एक किस्सा सुनिएः काफी हाउस में एक दिन उसकी मुठभेड़ एक वेटर से हो गयी जो रामपुर का था. कहने लगा कि इंतज़ार साहब, आपने अपनी कहानियों में जो ज़बान लिखी है वह हमारे रामपुर में कंजड़ियां बोला करती हैं. कभी शरीफ़ज़ादियों की ज़बान और अशरफ (अभिजात्य) का मुहावरा लिखकर दिखाइए.
रामपुरी वेटर की बात सुनकर इंतज़ार हुसेन अपना-सा मुंह लेकर रह गया. फिर उसने दिल्ली और लखनऊ का मुहावरा लिखने के लिए बहुत ज़ोर मारा मगर कहां दिल्ली और लखनऊ के अशरफ और कहां डिबाई का रोड़ा. उसने जल्दी ही अपनी हैसियत को पहचाना और पैंतरा बदल लिया. दिल्लीवालों को अपनी कोसर में धुली हुई उर्दू पर नाज़ था. उसने कहना शुरू किया कि मैं तो गंगा में धुली हुई उर्दू लिखता हूं. किसी ने पूछ लिया- ‘यह उर्दू तुमने सीखी किससे है?’ जवाब दिया- ‘संत कबीर से.’ पूछनेवाला उसका मुंह तकने लगा और बोला- ‘उर्दू का कबीर से क्या वास्ता?’ इंतज़ार हुसेन ने ढीठ बनकर जवाब दिया कि ‘कबीर उर्दू का सबसे बड़ा शायर है.”
ज़िक्र आया तो यह बात भी सुन लीजिए. जब पाकिस्तान में गालिब की 200वीं बरसी मनाने का सवाल आया तो वहां के कुछ लोगों ने यह आवाज़ उठायी कि पाकिस्तान से क्या सम्बंध. वह तो हिंदुस्तानी शायर है.
प्रश्न सिर्फ यह नहीं कि हम कैसे प्रभावित होते हैं, बल्कि यह है कि जो हमारा समाज है, जिस संस्कृति में हम परवरिश पाते हैं, उसके अंदर रहते हुए हम किस प्रकार अपने साहित्य का सृजन करते हैं और इस साहित्य से दूसरी भाषाओं से किस तरह के रिश्ते बनते या बिगड़ते हैं. प्रश्न यह है कि इस समाज और संस्कृति और इन भाषाओं से हमारे सर्जनात्मक सम्बंध क्या हैं. हैं भी या नहीं! यदि हैं तो किस प्रकार के हैं. हर दौर में कोई न कोई प्रभावी प्रवृत्ति पनपती है. लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब भाषाएं एक ही भूखंड की उपज हों. जैसा कि हिंदी और उर्दू. लेकिन राजनीतिक कारणों से भाषाएं अस्मिता का प्रश्न बन जाती हैं. उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा है लेकिन वह वहां किसी भी हिस्से में बोली नहीं जाती.
हम बड़े ही नाजुक दौर से गुज़र रहे हैं. ऐसे दौर में भाषाएं अस्मिता की समस्या बन गयी हैं. एक राजनेता की बात याद है कि ‘उर्दू बहैसियत एक सांस्कृतिक बिरसे के मुस्लिम अस्मिता का प्रश्न बन गयी है.’ यदि हम तकनीकी तौर पर बात करें तो उर्दू उत्तरी भारत के अधिकतर मुसलमानों की ज़बान है. वह ज़बान जो उनकी मज़हबी ज़रूरतों को पूरा करती है. वे महसूस करते हैं कि यह ज़बान उनकी मज़हबी और तहज़ीबी पहचान बन गयी है.
तो इस दौर में संयुक्त संस्कृति का क्या होगा? जब मैं इस विषय पर बुद्धिजीवियों को इतिहास के उद्धरण देते हुए सुनता हूं तो मुझे परेशानी होती है कि भारत विभाजन के साथ ही पैराड़ाइम शिफ्ट हो गया है. समाज में विभाजन (स्वतंत्रता) के बाद जितने परिवर्तन हो रहे हैं उनके बारे में कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. लेकिन परिवर्तन की प्रक्रिया तथा प्रकृति को पहचान कर उसकी दिशा और रफ्तार का अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है. इन सम्भावनाओं को समझ कर ही हम परिवर्तन की प्रक्रिया में सर्जनात्मक हस्तक्षेप कर सकते हैं.
आल्विन टाफलर ने अपनी पुस्तक ‘द थर्ड वेव’ में लिखा हैः ‘हमारे जीवन में एक नयी सभ्यता का उदय हो रहा है. दृष्टिहीन लोग हर जगह इसके आगमन को रोकने का प्रयत्न कर रहे हैं. यह नयी सभ्यता अपने साथ नये पारिवारिक सम्बंध, कामकाज के नये तौर-तरीके, प्यार और जीने के नये अंदाज़, नयी वैज्ञानिक व्यवस्था, नये राजनीतिक संघर्ष और इन सबसे बढ़कर एक नयी बदली हुई चेतना ला रही है.’ नयी सभ्यता का उदय हमारे जीवन की सबसे अधिक विस्फोटक सच्चाई है.
मैंने अपनी बात इंतज़ार हुसेन के उद्धरण से शुरू की थी और अंत भी उन्हीं के उपन्यास ‘आगे समंदर है’ के एक उद्धरण पर करना चाहता हूं. ‘एक वक्त ऐसा होता है कि हम कश्तियां बनाते हैं और एक वक्त ऐसा होता है कि हम कश्तियां जलाते हैं. लेकिन एक समंदर बिफरा हुआ है हमारे अंदर, उसकी तरफ हम ज्यादा ध्यान नहीं देते.’ कुछ इस किसम की बात है कि साहित्य और संस्कृति में अब कोई कश्तियां नहीं बनाता. शायद हमने अपने अंदर बिफरे हुए समंदर को पहचानना बंद कर दिया है. मैं नहीं जानता कि यह वक्त कश्तियां बनाने का है या जलाने का. लेकिन यह जानता हूं कि यह वक्त अपने अंदर और बाहर बिफरते हुए समंदर पर पुल बांधने का ज़रूर है.’
(मार्च 2014)
]]>जब हम कोई व्यंग्य पढ़ते हैं या सुनते हैं तो अनायास चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. हो सकता है इसीलिए व्यंग्य को हास्य से जोड़ दिया गया हो, और इसीलिए यह मान लिया गया हो कि व्यंग्य हास्य का मुखौटा लगाकर ही प्रकट हो. लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि व्यंग्य हास्य की उत्पत्ति करे ही. छोटे से केले के छिलके पर किसी मोटे व्यक्ति को फिसलता देखकर हंसी आना भले ही अशिष्टता हो, पर हंसी आ जाती है. इस हंसी के साथ व्यंग्य कहीं नहीं जुड़ा. लेकिन जब छोटे और बड़े के इस रिश्ते को फिसलन के उस दर्पण में देखा जाता है, जो किसी ने यह दिखाने के लिए सामने रखा है कि ‘बड़े’ की गर्वोक्ति वस्तुतः कितनी छोटी है, तब स्थिति भी बदल जाती है और उसका अर्थ भी. विसंगतियों को सामने लाने, उन्हें सही ‘ाoम’ में रखने और ऐसा करके किसी सुधार की ओर इशारा करने की प्रक्रिया की व्यंग्यकार की दृष्टि से स्थितियों को देखना कहा जा सकता है. यह देखकर भी चेहरे पर मुस्कान तो आ सकती है, पर भीतर मन में खुशी नहीं, एक पीड़ा जनमती है. हो वस्तुतः व्यंग्य विसंगतियों के खिलाफ़ एक संघर्ष है, पर इस संघर्ष की विशेषता यह है कि इससे कटुता नहीं जनमती, एक प्रकार की करुणा का भाव जगता है. इस करुणा में आक्रोश भी है और विकृतियों से उबरने की एक सात्विक कोशिश भी.
कुलपति उवाच
ईश्वर का अस्तित्व
के. एम. मुनशी
शब्द-यात्रा
‘आराम’ किस भाषा के नसीब में?
आनंद गहलोत
पहली सीढ़ी
जीवन का अधिकार, कर्तव्य
पाल इल्यार
आवरण-कथा
सम्पादकीय
इसलिए व्यंग्य…
ज्ञान चतुर्वेदी
मनुष्य के बौद्धिक विकास का शंखनाद
प्रेम जनमेजय
उज्ज्वल भोर की आंखों का अश्रुपूरित कोर
गौतम सान्याल
साहित्य में साहित्य का विरोध
यज्ञ शर्मा
ताकि लेखन साहित्य न बन जाये
शरद जोशी
धारावाहिक आत्मकथा
सीधी चढ़ान (चौदहवीं किस्त)
कनैयालाल माणिकलाल मुनशी
व्यंग्य
कुत्तागीरी
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जंगल में रब्बर शेर
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स्नोबाल की खुराफातें
जॉर्ज ऑरवेल
मुर्गियां
शंकर पुणतांबेकर
आंगन में बैंगन
हरिशंकर परसाई
कुछ वर्गवाद
कुट्टिचातन
स्वागत एक परम श्रद्धेय आदरणीय का
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हम क्यों त्योहार विमुख हैं
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