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कुट्टिचातन – नवनीत हिंदी https://www.navneethindi.com समय... साहित्य... संस्कृति... Thu, 30 Apr 2015 10:03:44 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8 https://www.navneethindi.com/wp-content/uploads/2022/05/cropped-navneet-logo1-32x32.png कुट्टिचातन – नवनीत हिंदी https://www.navneethindi.com 32 32 कुछ वर्गवाद https://www.navneethindi.com/?p=1749 https://www.navneethindi.com/?p=1749#respond Tue, 21 Apr 2015 11:07:14 +0000 http://www.navneethindi.com/?p=1749 Read more →

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वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, मनीषियों और वी. पी. से माल भेजने वालों सभी ने अपने-अपने ढंग से मानव-जाति का वर्गीकरण किया और अपने-अपने स्थान पर, अपनी-अपनी सीमाओं के अंदर, उनके बनाये हुए वर्ग सार्थक भी हो सकते हैं. विज्ञान और दर्शन में हमारी पहुंच उतनी ही है कि बस किसी से पूछा गया कि ‘कुछ लोग बिना हाथ-पैर हिलाये डूब सकते हैं, हम डूबने से पहले ज़रा हाथ पैर मार लेंगे.’ और जहां तक वी. पी. माल का प्रश्न है, हमने वी. पी. छुड़ाये-ही-छुड़ाये है और एक आध तो ऐसा भी छूट गया है कि उमसें से माल ही नहीं निकला! फिर भी हमने मोटे तौर पर मानव-जाति को दो वर्गों में बांटने का जो भारी आविष्कार किया है, वह इतना भारी है कि उसका गुरुत्व हमीं पहचानते हैं.

साधारणतया मानव दो प्रकार के होते हैं- कुकुर-मानव और बिलार-मानव. कहीं आप इन पशु-विशेषणों से समझें कि हम व्यंग्य कर रहे हैं- तो याद दिला दें कि प्राचीन सामुद्रिक ने पुरुष-नारी को जिन चार-चार श्रेणियों में बांटा, वे आठों पशु-श्रेणियां ही थीं तो व्यंग्य तो हर बात में है ही और हमारा अभिप्राय यह है कि मानवों  में मूलतः दो प्रवृत्तियां पायी जाती हैं- कुछ को कुत्ते अच्छे लगते हैं, कुछ को बिल्लियां. हमें स्वयं देनों अच्छे लगते हैं, पर यह निर्णय करने का कभी मौका नहीं मिला कि यह पसंद आवर्तित होती रहती है, या कभी दोनों एक साथ भी और एक जितने अच्छे लगते हैं! यह जिज्ञासा अब भी बनी है, क्योंकि कभी अगर हमने इसकी पड़ताल करने का प्रयत्न किया भी, तो शोध के साधनों ने योग नहीं दिया-कभी कुत्ते ने बिल्ली का खदेड़ दिया, तो कभी बिल्ली ही कुत्ते पर ऐसी खिसियाकर झपटी कि कुत्ता दुम की लंगोटी लगाता हुआ भाग गया और फिर कभी दिखा नहीं- जैसे नकली साधू जिस मुहल्ले में उनकी पोल खुल जाए वहां फिर कभी नहीं आते!

वैसे अनुमान तो यही है कि दोनों एक साथ शायद ही किसी को अच्छे लगते हैं. समकालीन मुहावरे में कहें कि लोग या तो कुकुरवादी होते हैं, या बिलारवादी. सुना है कि अंग्रेज़ लोग कुत्ते भी बहुत पालते हैं और बिल्लियां तो इतनी की इंगलिस्तान में हर तीन परिवारों पर दो बिल्लियों की पड़त आती है- पर अंग्रेज़ तो समझौतावादी जाति है, इसलिए उसका दृष्टांत काम नहीं देता!

दोनों मतवादियों के कुछ लक्षण विशिष्ट होते हैं. हमारे एक विश्लेषणपटु मित्र का दावा है कि पुरानी कहावत को बदलकर यह कहना चाहिए कि ‘हमें बता दो कि किसी का कुत्ता (या बिल्ली) कैसा (या कैसी) है, और हम बता देंगे कि वह आदमी कैसा है!’

साधारणतया बिलारवादी अंतर्मुखी होते हैं. वे चिंताशील बहुत होते हैं, पर अपने-हमारे विचारों की चर्चा कम करते हैं, और अपनी गतिविधि में हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकते. उनमें संदेह करने की शक्ति कम हो, ऐसा नहीं, पर वे प्रदर्शन कम करते हैं. कुछ उनमें सत्तालोलुप भी होते हैं, और सत्ता की साधना में कड़ी से कड़ी तपस्या कर सकते हैं. पर साधारणतया उनका सहज संयमित जीवन उनके स्वस्थ आत्मानुशासन का ही परिणाम होता है.

और कुकुरवादी? बहिर्मुखी और प्रगल्भ, संवेदनशील और अपनी संवेदनाओं का अत्यंत प्रदर्शन करने वाले, सीधे-सादे, अल्प-संतोषी प्राणी होते हैं. बातों से उन्हें प्रेम होता है, कभी कुछ अच्छी बात कह जाते हैं. तो उससे स्वयं इतने प्रभावित हो जाते हैं कि बार-बार दुहराते हैं. आपने देखा कि कुत्ता भी फेंकी हुई गेंद या लकड़ी उठाकर ले आता है तो उसे मालिक के पास रखकर किस अदा से उसके लिए प्रशंसा की मांग करता है? दाद न मिलने से यह अत्यंत अप्रतिभ हो जाता है.

आप कहीं समझें कि हम कुत्ते के स्वभाव का मानव पर आरोप कर रहे हैं, और यह वैसी ही बात हुई कि चुकंदर खाने से रक्त बढ़ता है, या कि तोते की जीभ खाने से आदमी बहुत बोलने लगता है. लेकिन यह बात हमारा आविष्कार नहीं है स्वयं कुकुरवादी कुत्ते और मनुष्य के गुणों की तुलना किया करते हैं- और निर्णय भी कुत्ते के पक्ष में दिया करते हैं. ऐसी एक उक्ति प्रसिद्ध हैः ‘जितना अधिक मैं मानवों को जानता हूं, उतना ही मैं कुत्तों से प्रेम करता हूं.’ बात गहरी मालूम होती है, और बहरहाल कहने का ढंग तो चमत्कारपूर्ण है ही- कुकुरवादी इससे कितने प्रसन्न होते हैं, क्या ठिकाना. और बहुत से लोग जो कुत्तों से न मालूम स्नेह करते हैं या नहीं पर मानव-द्वेषी ज़रूर हैं, इस वाक्य को प्रमाण-वाक्य मानकर चलते हैं- इसके बाद मानव के पक्ष में सोचने को कुछ उनके पास रह ही नहीं जाता!

हमें सदैव यह लगा है कि इस कथन की कुछ पड़ताल करनी चाहिए. पहला प्रश्न तो यह है कि जब आप कहते हैं कि आदमी की निस्बत में आपको कुत्ता अधिक प्रिय जान पड़ता है, तब ‘आदमी’ वर्ग में क्या आप अपने को भी गिन लेते हैं, या कि विचारक की तटस्थता की ओट लेकर अपने को छोड़ देते हैं? अगर ऐसा है तो जनाब, आप आत्म-प्रबंधक हैं, और आदमी से कुत्ते को अच्छा बताने का आपका यह स्टंट केवल इसलिए है कि आप अपने को दोनों से अच्छा मानते रह सकें- आपकी बात केवल प्रच्छन्न आत्मश्लाघा है.

और अगर ऐसा नहीं है, आप अपने को अलग नहीं रख रहे हैं, और ‘मानव को जानने’ से अभिप्राय स्वयं अपने को जानने से ही है- यानी अगर आप यह कहना चाहते हैं कि जितना आप अपने को जानते हैं. उतना ही आप कुत्ते को अधिक प्रिय समझते हैं, तो यह आत्मावसाद विनय तो हो सकता है, पर प्रश्न यह रह जाता है कि आप तो कुत्तों से प्रेम करते हैं पर क्या कुत्ते भी आपसे प्रेम करते हैं? और यहां आकर हम पाते हैं कि यह फिर आत्म-समर्थन का ही एक रूप है. हर आदमी मूलतः अपने को मजनूं मानता है, मुहब्बत के नाम पर मिट जाने वाला! जो मनुष्य को अपना प्यार नहीं दे सकते वे इसी पर इतराते हैं कि हम कुत्ते से इतनी मुहब्बत करते हैं.

वास्तव में मनुष्य है बड़ा अहम्मन्य प्राणी, और कुत्ते की स्वामिभक्ति का जो इतना बड़ा घटाटोप उसने खड़ा किया है, वह वास्तव में उसका अहम्मन्यता का ही प्रतिबिम्ब है. स्वामिभक्ति अर्थात मेरे प्रति भक्ति! कर्तव्यनिष्ठा, अर्थात मेरे प्रति निष्ठा. अगर उसके अहं की पुष्टि उसके निकट इतना महत्त्व न रखती होती, तो क्या वह इस बात की अनदेखी कर सकता कि बुनियादी मूल्यों में स्वामिभक्ति से कहीं अधिक महत्त्व स्वातंत्र्य प्रेम का है? दया के दो टुकड़ों पर निरंतर दुम हिलाते पीछे फिरने वाला कुत्ता महान है, स्वामिभक्त है, क्योंकि दुत्कारने पर भी लौट आता है और तलुए चाटता है और बरसों आपके इशारों पर हां-हजूर करने वाला तोता दुष्ट है, नाशकरा है, क्योंकि कभी भी मौका पाकर उड़ जाता है और फिर आपकी ओर कानी आंख नहीं देखता! क्यों साहब, आप ही क्या दुनिया के केंद्र हैं कि आपके प्रति लगाव ही जीव मात्र के धर्म की कसौटी हो जाए? कुत्ते की दासत्व-स्वीकृति को आप आदर्श मानें, बिल्ली की निस्संगता को अकृतज्ञा, और तोते के स्वाधीनता-प्रेम को इतना हेय समझें कि विश्वासघाती को आप कहें तोताचश्म- कैसा अंधेर है.

हम तो तोते की निष्ठा को चालक की निष्ठा से कम नहीं मानते. तोते को बंदी रखिए, खिलाइए-पिलाइए, जैसा आप बोलाएंगे बोलेगा. एक दिन पिंजरे से निकल जाने दीजिए, बस फरंट हो जाएगा. फिर कहां का रोटी-चूरमा और कहां का मिट्ठूपन. सुखद से सुखद दासत्व भी जिसके स्वातंत्र्य-निष्ठा है, नहीं तो थोड़ी-बहुत लपक-झपक तो सांकल पर बंधा पालतू कुत्ता भी कर लेता है.

और तोते की निष्ठा और भी स्पष्ट होकर हमारे सामने आती है जब हम देखते हैं कि तोता एक ओर अपना सोने का पिंजरा छोड़कर जाता है, दूसरी ओर निश्चित मृत्यु के मुख में जाता है- क्योंकि जो एक बार बंदी जीवन में रह चुका है, उसे फिर तोता-समुदाय स्वीकार नहीं करता, मार ही डालता है. यह जानते हुए कि एक बार दास बनकर रह चुकने के अपराध पर निश्चय ही मृत्यु-दण्ड मिलेगा, तोता सोने की कीलों के मोह में न पड़कर स्वातंत्र्य का ही वरण करता है- क्या यही धर्म नहीं है? स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः?

वास्तव में मानव की अधिकतर मान्यताएं- मूल्यों के सम्बंध में उसकी अवधारणाएं- वार्गिक चिंतन का परिणाम होती हैं- चिंतन का नहीं तो भावनाओं का कह लीजिए. कुछ तो यह मानव की सहज दुर्बलता है कि कोटियों-श्रेणियों में सोचता है, कुछ इधर इसको मार्क्सीय विचारधारा ने दार्शनिक प्रामाणिकता दे दी है. यह प्रायः मान लिया जाता है कि ऐसा वर्गगत चिंतन एक सीमा नहीं, एक विशेषता है. फलतः ऐसे संकीर्ण चिंतन की प्रवृत्ति और उसका अभ्यास बढ़ता जाता है. यहां तक कि उस चिंतन का आरोप हम पशुओं पर भी करते हैं. पशु-जगत में जातिवाद और जाति-पांतिवाद का नहीं तो और क्या कारण हो सकता है? जैसे सामंत ‘अभिजात’ होते हैं- अंग्रेज़ी मुहावरे के अनुसार उनका रक्त नीला होता है- उसी प्रकार नस्ली अलसासी (अल्सेशियन) भी अभिजात होता है और शहर की गलियों में भटकने वाले वर्णसंकर की अपेक्षा ‘उच्च’ कुलीन. आप कहेंगे कि यह अभिजातवाद तो डॉक्टर मलान का जातिवाद है, मार्क्स का वर्गवाद तो नहीं. और आप ठीक ही कहेंगे जहां तक अलसासी और अज्ञातकुल गली के कुत्तों की तुलना का प्रश्न है. लेकिन जाति-पांति मूलतः तो कर्मगति वर्गीकरण का ही जड़ीभूत रूप है न? यही तो मार्क्सवाद भी मानता है कि कहार-कुरमी का स्तर इसलिए  छोटा माना गया कि ये कमकर थे, और क्षत्रिय-ब्राह्मण इसलिए ऊंचे रहे कि ये सम्पन्न और नकारे थे?

वर्गों का आधार श्रम-सम्बंध है, यानी मालिक-चाकर के, काम देने और लेने के सम्बंध, यही मानकर हम चलें तो कुत्ते-बिल्लियों के मामले में हम और भी दिलचस्प परिणामों पर पहुंचते हैं.

हमारे जैसे नाई-टहलुए, नौकर-चाकर, भंगी-भिश्ती, साईस-खिदमतगार होते हैं- और हां, कुत्ते-बिल्ली आदि पालतू जानवर भी होते हैं. उसी प्रकार अगर जैसा कि हमने कहा, शुद्ध श्रम-सम्बंधों के आधार पर वर्ग-विभाजन करते हुए देखें तो, इन पालतू जानवरों के भी होते हैं. हम क्योंकि मानवों की भाषा बोलते हैं, और भाषा सामूहिक अहं की अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम होने के नाते जिसकी भाषा होती है, उसकी नैतिक मान्यताओं और भावनामूल्य आग्रहों से बंधी होती है; इसलिए हमें इन सम्बंधों पर कुत्ते या बिल्ली की दृष्टि से विचार करने में कठिनाई होना स्वाभाविक ही है. नहीं तो यह कहकर बताने की आवश्यकता न होती कि अच्छे खानदानी कुत्ते-बिल्ली के भी इसी प्रकार चाकर-टहलुए होते हैं. सामंतों के पीठ मर्द होते थे तो बिल्लियों के भी कर्णकण्डूयक होते हैं और राजा के पीछे-पीछे उसका पल्ला उठाये चलने वाला कोई कंचुली होता है तो कुत्ते के पीछे-पीछे उसकी सांकल संभाले चलने वाला भी कोई होता ही है. रानी का दामन पकड़कर चलना बड़े गौरव की बात समझी जाती है; कुत्तों की कल सम्भाले जो लोग पार्क-बगीचों में घूमते नज़र आते हैं कोई उनकी मुद्रा पर ध्यान दे तो यही समझने लगेगी कि वही मुख्य है और कुत्ता गौण. यह भी तो इसीलिए है कि देखने वाले भी मानव हैं और वर्ग-चेतना के कारण एक कुत्ते का पिछलगुआ दूसरे कुत्ते के पिछलगुए को ही पहले देखता है, स्वयं कुत्ते को नहीं! हमारे ही निकट तो इस बात का महत्त्व होता है कि एक कुत्ते की सांकल पर कल्लू बेरा है और दूसरे की सांकल पर कल्लू बेरे के सामने जो कुत्ता हो वह कुक्कुर राजवंशी अलसायी या ग्रेट डेन हो, और डिप्टी साहब के आगे निरा भुच्चर. स्वयं कुत्तों को इससे कोई मतलब नहीं होता, पार्क में कुत्ता-कुतिया अपने सजातीय को ही पहले देखते हैं, उन्हीं से दुआ-सलाम करते हैं या गाली-गुफ्तार! उनके जंजीर बरदार उनके निकट कोई महत्त्व नहीं रखते.

इसीलिए हम मार्क्सवादियों के कायल हैं. उन्होंने यह बात स्पष्ट करके रख दी है कि असल में शब्दों का कोई अपना अर्थ नहीं होता, अर्थ केवल एक आरोप है, जो वर्ग-चेतना से अनुशासित होता है और मुख्यतया भावाग्रही होता है. जैसे हमारे सामाजिक सम्बंध हों, वैसा ही अर्थ हमें भाषा देती है- या हम भाषा को देते हैं, भाषा से निकालते हैं. शब्दार्थ-सम्बंधी उनकी यह स्थापना इतनी महत्त्वपूर्ण है कि इसका एक नया विज्ञान बन गया है- ‘सिमैण्टिक्स; इसका हिंदी पर्याय हम ‘शब्दार्थ-विज्ञान’ बताते; पर अर्थ तो अब स्थिर रहा नहीं, द्वंद्व-सिद्धांत के अधीन चलनशील हो गया; इसलिए कहें ‘शब्द बीज विज्ञान.’ हर शब्द एक बीज है और विज्ञान से पहले तो यह था कि जिसका बीज हो वही फल होगा, जो आप बोएंगे वही आपको फलेगा, पर अब विज्ञान की बदौलत यह हुआ है कि बोवे सेंहुड़ काटै ऊख. यह तो बुर्जुआ विज्ञान का मताग्रह था कि एक जीवन में पाये हुए संस्कार वंश-परम्परा में नहीं आ जाते- लाइसेंको ने वह बदल दिया है.

अब देखिए न; हम कहते हैं, ‘धोबी का कुत्ता घर का न घाट का.’ कहने-कहने में हम इस बात की उपेक्षा कर गये कि हमारी बात ही हमारी भावना का खंडन कर रही है- भावना हम यह जगाना चाहते हैं कि कुत्ता धोबी का है. जब वह धोबी का है, तब उसे इससे क्या कि वह घर का है या घाट का? वह तो धोबी का है ही और ज़रा कहावत गढ़ने वाले आदमी-बच्चे से यह पूछा जाए कि कुत्ते का धोबी आखिर कहां का है, घर का कि घाट का? असल में चिड़ी-बल्ले की चिड़िया की तरह इधर-उधर मारा-मारा तो वह फिरता है, लेकिन क्योंकि वह भी श्रम-कर इंसान है, इसलिए हमने उसके अनाथत्व का आरोप कर दिया बिचारे कुत्ते पर, जो और जो कुछ हो या न हो, सम्बंधकारक से अनुशासित अवश्य है!

जी नहीं हम बहके नहीं! यह तो वर्ग-गत चिंतन का परिणाम ही है! क्योंकि एक बार बांटकर देखने चले तो फिर बांटने का अंत नहीं. जिसे दो में बांटा जा सकता है उसे चार में भी बांटा जा सकता है, क्योंकि   प्रत्येक भाग को फिर दो में बांटा जा सकता है. विश्लेषण-बुद्धि की यही मर्यादा है. हम बहुत दिनों तक स्वयं विश्लेषणवादी नहीं तो वैसे वादियों के कायल ज़रूर रहे, पर अंत में समझ में आ गया कि प्याज को बहुत छीलने से हाथ कुछ नहीं आता, परत-पर-परत उतारते समय हम शून्य तक ही पहुंचते हैं. तब से हम समन्वयवादी हो गये हैं. परत-पर-परत चढ़ना ही ठीक मानने लगे हैं और तब से तो हम चारों खाने चित्त पड़े हैं जब से एक समन्वयवादी ने हमें यह बताते हुए, कि असल में भेद केवल बुद्धि-भेद है, वैसे सब कुछ एक है, यह दृष्टांत दिया कि विश्लेषणवादी अंग्रेज़ कहते हैं ‘फाइटिंग लाइक कैट्स एण्ड डाग्स’- कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ना; पर कुत्ते-बिल्ली दो नहीं हैं, मूलतः एक हैः जिस आधार पर वे टिके हैं (यानी उनकी दुम) वह एक ही है- दुम दोनों की कभी सीधी नहीं होती!

(अज्ञेयजी कृट्टिचातन के नाम से व्यंग्य लिखा करते थे.)

(मार्च 2014)

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मार्च 2014 https://www.navneethindi.com/?p=557 https://www.navneethindi.com/?p=557#respond Fri, 22 Aug 2014 11:25:53 +0000 http://www.navneethindi.com/?p=557 Read more →

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March 2014 Cover - 1-4 FNLजब हम कोई व्यंग्य पढ़ते हैं या सुनते हैं तो अनायास चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. हो सकता है इसीलिए व्यंग्य को हास्य से जोड़ दिया गया हो, और इसीलिए यह मान लिया गया हो कि व्यंग्य हास्य का मुखौटा लगाकर ही प्रकट हो. लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि व्यंग्य हास्य की उत्पत्ति करे ही. छोटे से केले के छिलके पर किसी मोटे व्यक्ति को फिसलता देखकर हंसी आना भले ही अशिष्टता हो, पर हंसी आ जाती है. इस हंसी के साथ व्यंग्य कहीं नहीं जुड़ा. लेकिन जब छोटे और बड़े के इस रिश्ते को फिसलन के उस दर्पण में देखा जाता है, जो किसी ने यह दिखाने के लिए सामने रखा है कि ‘बड़े’ की गर्वोक्ति वस्तुतः कितनी छोटी है, तब स्थिति भी बदल जाती है और उसका अर्थ भी. विसंगतियों को सामने लाने, उन्हें सही ‘ाoम’ में रखने और ऐसा करके किसी सुधार की ओर इशारा करने की प्रक्रिया की व्यंग्यकार की दृष्टि से स्थितियों को देखना कहा जा सकता है. यह देखकर भी चेहरे पर मुस्कान तो आ सकती है, पर भीतर मन में खुशी नहीं, एक पीड़ा जनमती है. हो वस्तुतः व्यंग्य विसंगतियों के खिलाफ़ एक संघर्ष है, पर इस संघर्ष की विशेषता यह है कि इससे कटुता नहीं जनमती, एक प्रकार की करुणा का भाव जगता है. इस करुणा में आक्रोश भी है और विकृतियों से उबरने की एक सात्विक कोशिश भी.

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