स्मरण
कथाकार रवींद्र कालिया की ज़िंदगी अपने आप में एक भरी-पूरी कहानी जैसे ही रही. उनका न रहना एक संवेदनशील कहानी के खो जाने जैसा ही है. वह अद्भुत किस्सागो थे. वह जाते-जाते तक जैसे कहानी सुनाते रहे, हम हुंकारी भरते रह गये और हमारे समय का एक बड़ा कथाकार खामोश हो गया. उन्हें जानना अपने समय को ही जानने जैसा रहा है. उनकी कालजयी कहानी ‘नौ साल छोटी पत्नी’ हिंदी की नयी कहानी का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ है. दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन के साथ रवींद्र कालिया का एक कथाकार चतुष्टय बनता था. जालंधर से दिल्ली, दिल्ली से बम्बई, बम्बई से इलाहाबाद, इलाहाबाद से कोलकाता, कोलकाता से फिर दिल्ली, जीवनपर्यंत वह साहित्यिक पत्रकारिता की अलख जगाते यायावरी करते रहे, कहानी की कीर्ति ध्वजा फहराते रहे. इस लिहाज से उन्हें हिंदी कहानी का राहुल सांकृत्यायन भी कहा जा सकता है.
जिस भी सभा-गोष्ठी में वह होते थे, एक त्यौहार-सा साकार हो उठता था. मेरे सामने कथापत्रिका ‘सारिका’ का उपन्यास सम्राट अमृतलाल नागर के साक्षात्कार वाला वह पृष्ठ खुला हुआ है, जिसपर साप्रदायिकता विरोध पर लिखे, दो खण्डों में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘खुदा सही सलामत है’ की उन्होंने मुक्तकंठ से चर्चा की है, नागर जी कहते हैं, ऐसा अद्भुत कथारस और भाषा का ऐसा खिलंदड़ापन तो रवींद्र कालिया के अन्य किसी समकालीन के पास है ही नहीं. कालिया अपने लिखे को रेशा-रेशा एन्जॉय करते हैं, साथ ही अपने सरोकारों की डोर भी ढीली नहीं पड़ने देते. साप्रदायिकता की आंख में आंख डालकर ‘खुदा सही सलामत है’ में कालिया ने अपने समय से गुफ़्तगू की है.
एक लम्बा समय इलाहाबाद स्थित मेंहदौरी कॉलोनी में उन्होंने जिया. इस तरह वह मेरे अन्यतम पड़ोसी, बड़े भाई जैसे रहे. पिछवाड़े रसूलाबाद घाट पर गंगा तक टहलने सुबह-शाम कई वर्षों तक उनके साथ जाने का अवसर मिलता रहा. उनके भीतर हर वक्त एक कहानी सांस लेती होती थी. साहित्यिक तीर्थ इलाहाबाद तो पूरी तरह से उनमें विन्यस्त हो चुका था. उन्होंने लेखक की दीन-हीन और निरीह प्राणी की इमेज को बखूबी तोड़ा, बल्कि उसे अपने सम्पादन काल में एक स्टार की तरह प्रस्तुत किया. अखिलेश हों या बद्रीनारायण, धीरेंद्र अस्थाना हों या बोधिसत्व, इन सभी की रचनात्मकता को पहले पहल कालिया जी ने पहचाना था. वह नये और पुराने के बीच कसे ‘रवींद्र सेतु’ जैसे ही लगते थे. वह भारतीय भाषा परिषद में ‘वागर्थ’ के सम्पादक रहे हों या फिर भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक के रूप में ‘नया ज्ञानोदय’ के सम्पादक रहे हों, हमेशा नयी रचनाशीलता को रेखांकित करते रहे. वह कहानी के गुरु के रूप में मोहन राकेश और सम्पादन के गुरु के रूप में धर्मवीर भारती को अपना आदर्श मानते रहे.
इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र ‘गंगा जमुना’ को भी उन्होंने बुलंदियों पर पहुंचाया था.
उनके संस्मरणों की किताब ‘गालिब छुटी शराब’ तो उनका एक और अन्य शिखर पड़ाव है. उसके फ्लैप पर तमाम बड़े साहित्यकारों के कमेंट्स के साथ, मुझ जैसे नये लेखक के एक शरारती कमेंट को भी उन्होंने स्थान दिया था. हिंदी में ऐसा शरारती गद्य अन्यत्र दुर्लभ है. जीवन से भरे, ऐसे मार्मिक संस्मरण को पढ़ते हुए पाठक ठठा-ठठाकर हंसने लगता है और कभी उसकी आंखें छलछला उठती हैं. अपने पर प्रहार करना, बेबाकी से बात कहना, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की आत्मकथा ‘अपनी खबर’ में मिलता है या फिर ‘गालिब छुटी शराब’ में. बच्चन जी की आत्मकथा का दुस्साहसिक चेहरा भी इस संस्मरण में झलक जाता है. इस संस्मरण के ‘हंस’ में धारावाहिक प्रकाशन के क्रम में एक बार राजेंद्र यादव से उनके कार्यालय में भेंट हुई थी, बड़े मज़े से सिगार पीते हुए कह रहे थे- ‘कालिया के संस्मरणों ने तो हंस का सर्कुलेशन ही बढ़ा दिया है, लोग फोटो कॉपी से भी काम चला रहे हैं.’
साहित्य की दुनिया में ऐसी ‘कलरफुल पर्सनाल्टी’ मुश्किल से देखने को मिलती है, रवींद्र कालिया इसके जीवंत अपवाद थे.
फरवरी 2016