वीर सक्सेना
पत्र तुम्हारा मिला, एक भी अक्षर नहीं लिखा,
समझ गया मैं, जीवन में कितना सूनापन है.
कितने अर्थ किये, लेकिन परिभाषा नहीं मिली
कुछ बातें ऐसी हैं जिनको भाषा नहीं मिली
कुछ प्रश्नों के भीतर ही, उनका उत्तर होता
कुछ संकेतों से सम्वेदन अधिक मुखर होता
देख रहा हूं मैं, तुमने सम्बोधन नहीं किया-
समझ गया, कुछ शब्दों के कहने पर बंधन है.
यह नीला सा पृष्ठ और दो आंसू की बूंदें
कितनी देर रहे होगे, तुम पलकों को मूंदे
इसको तुमने चार तहों में करके मोड़ दिया
जीवन के सारे दर्शन से, नाता जोड़ दिया
सम्बंधों का, कुछ भी तो संदर्भ नहीं इसमें-
पर अव्यक्त, अनुराग भरा, कितना अपनापन है.
मौन समर्पण में, आत्मा की तन्मयता होती,
वह उद्वेग रहित है, उसमें निश्छलता होती
मेरी है अनुभूति, जागरण हमको छलता है
अवचेतन में ही, अंतर का सत्य उभरता है
जो अपनी आकुलता को, आसक्ति कहा करते-
उनकी श्रद्धा अभिनय, उनका दर्द अपावन है.
(जनवरी 2016)