जी ! मैं बचपन बोलता हूं…

 रमेश थानवी   >  

जी… हलो, हलो… जी मैं बचपन बोलता हूं. आपके घर से ही बोल रहा हूं. उन तमाम लोगों से बोलता हूं जो 25 के पार हो गये हैं, 55 के पार हो गये हैं या 75 के करीब पहुंच गये हैं. मैं उन लोगों से बोलता हूं जो खुद अपना बचपन भुला बैठे हैं, जिनको याद नहीं कि वे भी कभी बच्चे थे. मगर मैं बोलता हूं कि मैं तो अभी बच्चा हूं. मेरा बचपन मेरे पास सुरक्षित है. मेरी हंसी, मेरी खुशी, मेरी रुलाई मेरी तुतलाहट, मेरी ज़िद मेरी उछल-कूद, मेरी तोड़-फोड़ और मेरी अनंत जिज्ञासा- सब कुछ अभी मेरा अपना है. मैं आज भी इस दुनिया के हर सच को खुद उघाड़ कर अन्वेषित करना चाहता हूं. मेरा खोजा सच मेरा सच होता है. मैं उसे मानता हूं. जानता हूं. क्योंकि मेरा सच किसी पोथी-पतरे का सच नहीं होता.

आपको याद होगा. सबको याद होगा. मैंने एक बार एक कहानी में एक राजा को नंगा देखा था. अपनी आंखों से देखा था. तब आप सब लोग राजा के बेशकीमती वत्रों की तारीफ करते नहीं थक रहे थे. तब मैंने ही कहा था कि राजा नंगा है. आज भी जब आप सब लोग सच कहने से डरते हैं, आंखों देखे सच को भी कहने से डरते हैं, तब मैं ही कहता हूं- ‘पापा कह रहे हैं कि वे घर में नहीं हैं.’ मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि मैं बचपन हूं. 

मैं बोलता हूं कि मैं कभी किसी से नहीं डरता. अभय अथवा निडरता मेरा जन्मजात स्वभाव है. मैं अंधेरों से नहीं डरता. भूत-प्रेत से नहीं डरता- वे तो मेरी कहानियों में रोज लुका-छिपी खेलते रहते हैं. मैं अच्छे बुरे समय से नहीं डरता. घड़ियां तो मेरी कहानियों में जब-तब हड़ताल कर बैठती हैं. राजा रानी से रूठी घड़ियां जब किसी के चलाये नहीं चलतीं तब मुझे ही बुलाया जाता है. ‘बाल समय रवि भक्ष लियो तब तीनों ही लोक भयो अंधियारो’ की बात आपको याद होगी. यह बचपन ही था जब हनुमान जी ने सूरज को लपक कर मुंह में रख लिया था. जी हां, ऐसा ही होता ही बचपन का अभय. मगर मैं बोलता हूं कि भयभीत करना आप लोगों का काम हैं. बड़े लोगों का काम. आप हमें डराते हैं. धमकाते हैं. मारते-पीटते हैं और होता यह है कि एक दिन मैं बड़ा होता होता डरपोक बन जाता हूं. आप बनाते हैं मुझे डरपोक.

जी, मैं बचपन बोलता हूं. बोलता हूं कि  मैं ऊंची-ऊंची दीवारें देखते-देखते फांद लेता हूं. किसी भी ऊंचाई से छलांग लगा लेता हूं. अपने गांव के बड़े से बड़े तालाब को आर-पार पार कर लेता हूं. कभी कोई डर नहीं. मगर जब से आपने डर से घबरा कर कहा था- ‘अरे! तू गिर जायेगा, अरे! तू डूब जायेगा’- बस तब से ही मैं सदा आधा गिरा हूं. आधा डूबा हूं. अब डरा डरा-सा, सहमा सहमा-सा रहने लगा हूं.

मैं बोलता हूं कि मेहरबानी करके अब आने वाले बचपन को कभी डराना नहीं. डरपोक मत बनाना. भीरू मत बनाना. धर्म-भीरू भी मत बनाना. धर्म की कभी बात ही मत करना बचपन से. आज मैं आपके कान में एक बात कहना चाहता हूं कि बचपन स्वयं एक धर्म होता है. आपके चलाये तमाम धर्मों से बड़ा धर्म है, क्योंकि वह सच देखता है और सच कहने का साहस रखता है. यह नचिकेता का बचपन ही था जो नौ वर्ष की उम्र में यमराज से जा भिड़ा था. नचिकेता ने यमराज को भी सच बताने को मजबूर कर दिया था.

जो सच हजारों बरसों से किसी सोने के पात्र में ढका रखा था उसे एक नौ साल का बालक यमराज से छीन लाया था. इसलिए कि सच बचपन का जीवन-साथी है.

जी, मैं बचपन बोलता हूं और आपसे कहता हूं कि अब आज कम से कम अपने बचपन को याद कर लीजिए. थोड़ा-सा बचपन लौटा लाइए. थोड़े सरल हो जाइए, थोड़ा सहज हो जाइए, थोड़े निडर हो जाइए. हर वक्त ऐसे डरे रहने से क्या होगा कि ‘कल क्या होगा?’ थोड़ी निश्छलता अपने स्वभाव में भर लीजिए. हर संशय से अपने को मुक्त कर लीजिए- बस सिर्फ प्यार कीजिए. प्रेम दीजिए और प्रेम पाइए. मैं सच कहता हूं, बचपन अगर बड़ों के संसार में लौट आये तो दुनिया के कई सारे दुख दूर हो जायेंगे.

एक बात पूछनी है आपसे- मेरे हिस्से के किस्से कहानियां कहां गये? हमारे हिस्से की लोरियां कहां गयीं. यह क्या हुआ कि आज कोई माता-पिता नन्हें मुन्ने बालकों को सुलाने के लिए और प्यारी निंदिया को बुलाने के लिए अपने पोते पोती, बेटे बेटी या नाती नातिन को लोरी नहीं सुनाता. कहां गयी लोरियां? परियों की कथाओं, लोक कथाओं और लोरियों की बात को पल भर को छोड़ भी दें तो मैं पूछता हूं कि मेरे हिस्से की हवा कहां है? आकाश कहां है? नदियां, झरने, तालाब और समंदर कहां है? पर्वत कहां है? बालू रेत के सुनहरे टीले कहां हैं? शहरों में और ऊंचे घरों में रहने वाला बचपन आज कुदरत की संगत से वंचित है. यह अच्छा नहीं है. बहुत बुरी बात है.

एक बात बताऊं आपको- पूरे यूरोप के बड़े-बड़े शहरों के बच्चे एक नयी बीमारी से ग्रस्त हो गये हैं. इस बीमारी को नाम दिया गया है एन. डी. एस. अर्थात- नेचर डेफीसिएंसी सिंड्रोम. सच यह हैं कि बचपन कुदरत के करीब रहना चाहता है. इस करीबी के बिना वह बीमार हो जाता है, जी नहीं सकता. मगर आप हैं कि इस सच को सच नहीं मानते. जी, मैं आपके समाज में ठगा-सा खड़ा हूं. हतप्रभ-सा. देख रहा हूं कि बचपन आज बोझ बन गया है. बालक का आना जहां उत्सव हुआ करता था वहां वह एक घटना मात्र हो गया है. बचपन के साथ जुड़ा वह उल्लास और उत्सव कहां गया. मैं पूछना चाहता हूं, क्यों बन गया है बोझ बचपन? लग रहा है जैसे अभावों में जीने के लिए शापित है यह. लेकिन क्यों? लग यह भी रहा है, जैसे खतरे में है बचपन. लेकिन क्यों?

और भी बहुत सारे सवाल हैं. बालकों के खिलौने, शाला में खेलने के मैदान, घर में बालक के लिए अलग स्थान, घर में बालकों लिए और माता पिता के लिए पुस्तकें, बालकों की शिक्षा, अभिभावकों की शिक्षा दृष्टि और बालक के तथाकथित भविष्य या कैरियर से जुड़े कई सवाल. आज बचपन का तकाजा है कि समाज में उसे पूरा सम्मानजक स्थान मिले, सच्ची और ऐसी तालीम मिले कि उसकी चाहत की दिशा में उसको सीखने के सभी अवसर मिल सकें. सीखने की बात आ गयी- तो मैं आपको बता देना चाहता हूं कि बचपन में हार-जीत के लिए कोई जगह नहीं है. बालक न तो किसी को हराना चाहता है और न किसी से जीतना चाहता है. वह न पास होना चाहता है और न फेल होना चाहता है. स्पर्धा को, प्रतिस्पर्धा को और प्रतियोगिता बचपन को स्वभाव से ही गवारा नहीं है मगर आपने तालीम का जाल जंजाल कुछ ऐसा फैलाया है कि बचपन का दम घुट रहा है. तोता रटंत उसे कभी अच्छी नहीं लगती वह हंसते-खेलते सीखना चाहता है. वह आमोद चाहता है. प्रमोद चाहता है. सिर्फ सीखना चाहता है. इस जगत को जानना चाहता है. सबके साथ चलते हुए, सबको साथ ले कर सीखना चाहता है. अकेले आगे बढ़ना बचपन को भाता नहीं, सुहाता नहीं.

जी हां मैं बचपन ही आपको यह सब बता रहा हूं.बचपन लबालब प्यार चाहता है, दिखावा नहीं. बालक हर तरह की कारा से मुक्ति चाहता है. आज़ादी चाहता है. थक गये आप सुनते-सुनते? नहीं, थके नहीं होंगे, आपके पास फुर्सत नहीं है बचपन की बात सुनने की, उससे जुड़ने की. एक बात बताऊं, बचपन से जुड़ेंगे तो आप भी बचपन-सा बन जाएंगे. भोला-भाला. सच्चा. अच्छा. ज़रा सोचिए कितना मज़ा आएगा जब आपको लगेगा आप वह बन गये हैं जो आपको होना चाहिए! अच्छा, अब रखता हूं. 

(जनवरी 2014)

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