ज़रा यूं समझें बचपन को

 मस्तराम कपूर  >   

एक बार चिल्ड्रेंस बुक ट्रस्ट के संस्थापक शंकर पिल्लै से मिलने और उनसे बालसाहित्य पर बातचीत करने का अवसर मिला था. उन दिनों में बाल साहित्य पर अनुसंधान कर रहा था. चूंकि बाल साहित्य से मेरे लेखकीय जीवन का प्रारम्भ हुआ, बच्चे के मनोसंसार को जानने-समझने की इच्छा मेरे मन में हमेशा बनी रही. बच्चों के लिए लिखी गयी मेरी अधिकांश कहानियां बचपन की मेरी यादों पर रची गयी थीं. बाद की कुछ कहानियां घर के बच्चों और उनके संगी-साथियों के व्यवहार के अध्ययन से बनी थीं. शुरू-शुरू में मैं नहीं जानता था कि बच्चों की कहानी क्या होती है, क्यों लिखी जाती है या उसका शात्र क्या होता है. लेकिन पहली ही कहानी ‘मां को न बताना’ पर ‘मनमोहन’ (माया प्रेस की बाल पत्रिका) के सम्पादक सत्यव्रत ने जो टिप्पणी दी, उसने मुझे भरोसा दिलाया कि मैं बच्चों के लिए अच्छी कहानियां लिख सकता हूं और उन्होंने ‘मनमोहन’ के लिए हर महीने एक कहानी लिखने का आग्रह किया. फिर चार-पांच कहानियां छपने के बाद सत्यव्रत जी ने शुभकामना भेजी कि मैं हिंदी का एंडरसन बनूं. मैंने तब हैंस क्रिश्चियन एंडरसन का नाम भी नहीं सुना था. बाद में उस लेखक की कहानियां पढ़ीं तो लगा सत्यव्रत जी ने मेरे भीतर जो सम्भावनाएं देखीं, वे मेरी क्षमता से बाहर हैं. फिर एलेक्जेंडर मिलन की कहानियां और उनके बाल साहित्य से सम्बंधित लेख पढ़े. उन्होंने एक लेख में कहा था कि बच्चे की कहानी या तो अपने बचपन की स्मृतियों से निकलती है, या बच्चों के व्यवहार के सूक्ष्म अध्ययन से या फिर वयस्क दुनिया के अति गम्भीर प्रयासों को अति हास्यास्पद प्रयासों के रूप में देखने की क्षमता से. उन्होंने यह भी कहा कि बच्चों की पुस्तकें बच्चों के लिए नहीं, लेखक को अपने लिए लिखनी चाहिए. इस लेखक से न केवल मुझे अपनी बाल साहित्य की यात्रा का अनुमोदन मिला, बल्कि आगे के लिए नयी दृष्टि भी मिली.

शंकर पिल्लै पं. जवाहरलाल नेहरू के मित्र थे. उनकी सरकार की उदार सहायता से ही चिल्ड्रेंस बुक ट्रस्ट की स्थापना हुई थी. इस संस्था की कल्पना शुरू में स्वायत्त सरकारी संस्था के रूप में की गयी थी, किंतु बाद में इसे निजी संस्था बना दिया गया और इस बात से खिन्न हो कर सरकार को नेशनल बुक ट्रस्ट के अंतर्गत नेहरू पुस्तकालय योजना शुरू करनी पड़ी. इस संस्था ने भी बाल साहित्य सम्बंधी अपनी दृष्टि में चिल्ड्रेंस बुक ट्रस्ट का अनुसरण किया. तात्पर्य यह कि शंकर पिल्लै को भारत में बाल साहित्य का ‘ट्रेंडसेटर’ कहा जा सकता है. इस तथ्य को सामने रखकर ही मैं शंकर पिल्लै से बातचीत करने के लिए बहुत उत्सुक था.

लेखक की बच्चों के प्रति क्या दृष्टि होनी चाहिए, इस प्रश्न के उत्तर में शंकर पिल्लै ने कहा- “बच्चों को भरपूर प्यार दो.” बात लम्बी चली लेकिन उनकी बातों का सार यही था. बच्चे को समझने की ज़रूर उसके अधिकारों के प्रति संवेदनशील होने की ज़रूरत, उसके साथ बराबरी का सम्बंध स्थापित करने की ज़रूरत, उसके मन के भीतर ही भीतर घुमड़ रही आकांक्षाओं, आशंकाओं और भीतियों को जानने की ज़रूरत. यह सब कुछ नहीं, केवल भरपूर प्यार करने की ज़रूरत. कुल मिलाकर पं. जवाहरलाल नेहरू की तरह शंकर पिल्लै की भी बच्चों के प्रति भावुकतापूर्ण दृष्टि थी. राजनीति के ट्रेंडसेटर नेहरू और बाल साहित्य के ट्रेंडसेटर शंकर की इस दृष्टि के कारण ही बाल शिक्षा और बाल साहित्य पर भावुकता हावी रही और गम्भीर चिंतन-विश्लेषण के लिए अनुकूल स्थितियां नहीं बनीं.

बाल साहित्य पर शोध प्रबंध लिखने के लिए भी मुझे आकस्मिक स्थितियों में प्रवृत्त होना पड़ा. मन में इच्छा तो थी लेकिन दो-तीन विश्वविद्यालयों ने यह कहकर मेरा प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिया था कि बाल साहित्य शोध करने लायक विषय नहीं है.

इन अनुभवों से गुजरने के बाद मेरे मन में यह विचार उत्तरोत्तर दृढ़ होता गया कि हमारे देश में बाल शिक्षा और बाल साहित्य के लिए अनुकूल स्थितियां बन ही नहीं सकतीं. हमारे समाज का गठन ही कुछ ऐसा है कि हम बच्चे के स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व को नहीं मान सकते. बच्चे कल के लिए उपयोगी हैं, लेकिन आज वह कुछ नहीं हैं. वह आगे चलकर बहुत अच्छा नागरिक बनेगा, महान नेता बनेगा, देश पर प्राण न्यौछावर करनेवाला शहीद बनेगा, उच्च कोटि का वैज्ञानिक-इंजीनियर बनेगा, लेकिन आज वह क्या है, उसकी क्या ज़रूरतें हैं, क्या अधिकार हैं, इसे जानने-समझने और मान्यता देने की हमने ज़रूरत नहीं समझी. इसीलिए हमारे बाल साहित्य और बाल शिक्षा का प्रयास बच्चे को जल्दी से जल्दी बचपन से धकेल कर वयस्क बना देने का होता है और इस प्रयास में हम वयस्क बच्चों को अनगढ़ जानकारी तथा फूहड़ नैतिकता के उपदेशों से आक्रांत करते हैं. यह बच्चों के प्रति एक प्रकार से अत्याचार है. स्कूल यातना शिविर बन गये हैं जहां बच्चों के गले में विदेशी भाषा में अनगढ़ जानकारी ठूंसी जाती है. बाल साहित्य में बच्चों को बुद्धिमान बनाने और उन्हें अच्छी-अच्छी नैतिक बातें सिखाने का दम्भ ही दिखाई देता है. इसलिए हम वयस्क भी न तो बुद्धिमान होते हैं और न उनके आचरण नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं. बच्चे पर कृपा करने के भाव से ही अधिकांश बाल साहित्य लिखा जाता है.

मुझे लगता है कि हजारों साल से हमारे मन में मानव-जीवन के सम्बंध में जो कल्पना रही, उसके कारण ही हम बच्चों के स्वतंत्र अस्तित्व को समझ पाने में असमर्थ हैं. पूर्वजन्म और परजन्म की अनंत शृंखलावाली जीवन की कल्पना या तो भूतोन्मुखी है या भविष्योन्मुखी. वह वर्तमान को नहीं देखती. इस दृष्टि के अनुसार या तो बच्चा पूर्वजन्म के कर्मों का फल है या अगले जन्म के लिए कच्चा माल. वह जो कुछ है और जो कुछ होनेवाला है, वह पहले से ही तय है. इसके लिए कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, उसे मात्र धक्का देकर आगे करने की ज़रूरत है. बच्चा जब पैदा होता है तो वह खाली घड़े की तरह होता है जिसमें हर क्षण कुछ न कुछ भरते रहने की ज़रूरत होती है. यह दृष्टि इस बात को स्वीकार नहीं करती कि बच्चा मानव चेतना है और स्वतंत्रता, समता और बंधुता उसका स्वभाव है. जन्म के साथ ही बच्चा इन जन्मजात अधिकारों को जीने लगता है. हमारा फर्ज बनता है  कि हम इन अधिकारों को जीने में बच्चे की मदद करें, उसके रास्ते की बाधाओं को दूर करें. इसके विपरीत हम उसकी इन सहज प्रवृत्तियों को ही कुचलने लगते हैं और उस पर अपनी मान्यताएं (जिन पर हम खुद अमल नहीं करते) लादते हैं. मेरे लिए यह विषादजनक स्थिति है.

एक बार मुझे चंडीगढ़ में एक संगोष्ठी में बुलाया गया. संगोष्ठी का विषय था ‘मानव मूल्यों की पहचान.’ उत्साही संयोजकों ने, जो विश्वविद्यालय से संम्बद्ध थे, बताया कि उन्होंने 83 मानव मूल्यों की पहचान कर ली है और लगभग चार सौ मूल्यों को खोजने का लक्ष्य रखा गया है.

संगोष्ठी में सबसे अधिक चर्चा मूल्यों की परिभाषा पर हुई, जिसका निष्कर्ष था कि बच्चे में जो-जो अच्छे गुण भरे जाने चाहिए, वे सब मानव मूल्य हैं. एक विद्वान ने मूल्यों और गुणों (वर्च्यू) को अलग-अलग करने का आग्रह किया. एक ग्रुप ने मूल्यों को सहज धर्म (प्रापर्टी) के साथ जोड़ा और कहा जैसे गन्ने का धर्म मिठास और बर्फ का धर्म ठंडक, वैसे ही आदमी का धर्म मूल्य. इस ग्रुप ने चर्चा में खोजे गये मूल्यों को गिनाना शुरू किया तो पाया गया कि उनमें सत्य साईं बाबा की शांति-साधना (सुशांति या प्रशांति) और निर्मला देवी की कुंडलिनी साधना से ले कर प्याज-लहसुन न खाने और हर मंगल-शनि को हनुमान मंदिर जाने तक सभी ‘अच्छी’ बातें थीं.  एक सेवा-निवृत्त सेना-अधिकारी, जो एक गुप की अध्यक्षता कर रहे थे, सेना पी.आर. की तरह बोले कि सेना व्यक्ति में मूल्यों को भरनेवाला सबसे अच्छा संस्थान है. शायद वे जानते नहीं थे कि दिमाग को ठस बना कर सर्कस के जानवरों की तरह आज्ञाएं माननेवाला अनुशासन सैनिक संगठनों और उनकी नकल पर बने आर.एस.एस. जैसे संगठनों के लिए तो उपयोगी है, लेकिन लोकतांत्रिक जीवन में वह एक बीमारी है.

बच्चे के साथ जिनका, जिस रूप में भी सम्बंध पड़ता है, उन्हें बच्चे के मनोजगत को समझने की ज़रूरत पड़ती है. बच्चा क्या सोचता है, किस चीज़ के प्रति कैसी प्रतिक्रिया करता है, किस चीज़ को पसंद करता है, किस चीज़ की उसे आवश्यकता है, इत्यादि बातें ऐसी हैं जिन्हें हम बच्चों के साथ रहकर उनका बारीकी से अध्ययन कर और उनके साथ तादात्म्य सम्बंध स्थापित करके भी कर सकते हैं. तादात्म्य सम्बंध स्थापित करना सबसे कठिन होता है. यह बच्चों के साथ बराबरी और मित्रता का सम्बंध बनाने से ही सम्भव है. हम बच्चे को अपने से छोटा अथवा अपने को बच्चे से अधिक बुद्धिमान मानकर चलेंगे तो यह सम्बंध कदापि नहीं बन सकता. इन सब कामों के लिए हमें मनोविज्ञान की डिग्री हासिल करने की आवश्यकता नहीं होती. लेकिन यदि हम मानसिक जगत की कुछ मूलभूत बातों को जान लें, तो हमारा काम आसान हो सकता है.

यह मानसिक जगत क्या है? हमारे प्राचीन शात्रों में इसे अंतःकरण या सूक्ष्म शरीर कहा गया है. अंतःकरण में मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार ये चार तत्त्व बताये गये हैं. मन इंद्रियों का राजा है. ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियां शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध के पांच प्रकार के प्रभाव, संवेदन या बिम्ब बाह्य जगत से ग्रहण करती हैं और इनका ग्रहण किया जाना मन की स्थिरता-अस्थिरता, स्वस्थता-अस्वस्थता पर निर्भर करता है. ये प्रभाव स्मृति के रूप में जहां संचित रहते हैं उसे चित्त कहा जाता है. मन चंचल और सतत जागरूक है. वह हमेशा कोई न कोई काम करता रहता है. सृजन, निर्माण उसका स्वभाव है. जब हम निद्रा में होते हैं और बाह्य जगत से इंद्रियों द्वारा हमारा सम्बंध टूट जाता है, तब भी मन कुछ न कुछ काम करता रहता है. ऐसी स्थिति में वह चित्त में संचित प्रभावों, बिम्बों अथवा चित्तवृत्तियों में जोड़-तोड़ करके एक नये संसार का निर्माण करता रहता है. यह निर्माण हमारे स्वप्न हैं. जाग्रत अवस्था में मन को संचित बिम्बों (चित्तवृत्तियों) में निरंतर जोड़-तोड़ करने का काम करते रहना पड़ता है. जीवन की नित्य प्रति की समस्याओं से निपटने के लिए कुछ काम करने पड़ते हैं और काम करने के लिए मन को निर्णय लेना पड़ता है. निर्णय, जो सृजन की बुनियाद होता है, अपने चित्त में संचित प्रभावों, बिम्बों या चित्तवृत्तियों के विश्लेषण-संश्लेषण द्वारा लिया जाता है.

मानसिक जगत के क्रिया-कलापों का लगभग यही वर्णन आधुनिक मनोविज्ञान में मिलता है. उसकी शब्दावली भिन्न है, किंतु प्रक्रिया में कोई विशेष अंतर नहीं है. बच्चा इस संसार में आंखें खोलता है. अपने आस-पास के जगत के बिम्बों और प्रभावों को ग्रहण करने लगता है. उसके मनोजगत का निर्माण करनेवाले मुख्यतया दो प्रकार के प्रभाव जन्म से ही उसे मिलने लगते हैं. दो-ढाई वर्ष की अवस्था में बच्चा सृजन करने लगता है. जब संवेदनों और सीखे गये ज्ञान को बच्चा बुद्धि की कसौटी पर परखता है तो सृजन होने लगता है. संवेदनों में वह जिसे ठीक पाता है, उसे भविष्य के उपयोग के लिए सुरक्षित रख लेता है, शेष को वह अस्वीकृत कर देता है. इसी प्रकार सीखे गये ज्ञान को भी वह परखता है और जिसे ठीक पाता है उसे सुरक्षित रखकर शेष को भुला देता है.

यदि बच्चा अपने कच्चे ज्ञान को चेतन मन से नहीं परख पायेगा, तो उसके व्यक्तित्व पर बचपन की भीतियां, असुरक्षाएं, दुर्बलताएं आदि हावी रहेंगी. यदि वह माता-पिता आदि से प्राप्त ज्ञान को बिना तर्क की कसौटी पर कसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेगा तो उसका व्यक्तित्व कुछ पूर्व निश्चित नियम-कायदों के अनुसार दबा हुआ मशीनी व्यक्तित्व बनेगा जिसमें जिज्ञासा, उत्सुकता, उत्साह, प्रेम, संवेदना आदि उदात्त भाव दब जायेंगे और जीवन के तमाम आकर्षण उसके लिए समाप्त हो जायेंगे. ये दोनों स्थितियां कुछ गगज्यादा प्रकट होने पर भयानक मानसिक रोगों का कारण बनती हैं और जीवन को नष्टप्राय कर देती हैं. जीवन की मूल प्रवृत्तियों के निर्माण से इस प्रक्रिया का बहुत महत्त्व होता है. मूल प्रवृत्तियों से तात्पर्य है वह अपने जीवन के प्रति और दूसरों के जीवन के प्रति या अपनी  दुनिया के प्रति क्या रवैया बनाता है.

बच्चे की प्रवृत्तियों का निर्माण साढ़े पांच या छह वर्ष से पहले-पहले हो चुकता है. उसके बाद उन प्रवृत्तियों में यत्किंचित हेर-फेर तो हो सकता है, किंतु मूल प्रवृत्तियों में बड़ा परिवर्तन नहीं होता.

बाल साहित्य के संदर्भ में इन सारी बातों की चर्चा करने का मेरा प्रयोजन यह है कि साहित्य और कलाओं का मुख्य काम उस प्रक्रिया को तीव्र करना है जिससे बच्चा अपने संवेदनों और सीखे ज्ञान को परखता है. जीवन में जब भी उसे कुछ काम करना होता है, वह अपने अहं से प्रेरित होता है और अपने लिए निर्णय करता है. वह निर्णय वह अपने संवेदनों और सीखे ज्ञान के विश्लेषण के बाद ही कर सकता है. लेखक उसके संवेदनों और सीखे ज्ञान को इस प्रकार उसके समक्ष प्रस्तुत करता है कि वह उसका विश्लेषण करने और उन्हें परखने की कला को सीखने लगता है. बाल साहित्य ही नहीं, सभी प्रकार के साहित्य का प्रमुख काम यह है कि वह ऐसी बात कहे जिसे अधिकांश पाठक कहना तो चाहते हैं, लेकिन कह नहीं पाते, या जिससे पाठक को लगे कि लेखक उसके मन की बात कह रहा है.

स्कूल-पूर्व की अवस्था के बालक में भाषा ज्ञान का त्वरित विकास होता है, जिसके कारण वह शब्दों की ध्वनि, संगीत, लय आदि की ओर आकृष्ट होता है. बेतुकी कल्पना (नान्सेंस) उसका प्रिय साहित्य होता है.

प्राथमिक स्कूल की अवस्था का बालक घर, परिवार, सम्बंधियों, खिलौनों और घरेलू पशुओं की दुविधा से निकल कर नयी दुनिया में प्रवेश करता है. नयी दुनिया से सशंकित होने के कारण वह कुछ समय तक शिशु बना रहना चाहता है, अतः कुछ समय तक वह स्कूल-पूर्व की अवस्था के साहित्य में ही रस लेता रहता है. फिर धीरे-धीरे जब वह नयी दुनिया के साथ अपने को ‘एडजस्ट’ करने लगता है, तो उसके समक्ष कई उलझनें खड़ी होती हैं. घर की दुनिया के लाड़-प्यार की जगह उसे क्रूरता और निष्ठुरता से भी साक्षात्कार करना पड़ता है और इसलिए उसे अपनी भीतर ही एक दृष्टि-केंद्र बनाने की आवश्यकता पड़ती है. अहंकेंद्रिता को छोड़ कर वह समाज-केंद्रित होने लगता है. नयी दुनिया की असुरक्षित स्थिति से बचने के लिए वह पलायन का साहित्य (परी कथाएं, लोह कथाएं आदि) पढ़ना चाहता है. नयी दुनिया को समझने के लिए उसे यथार्थ कहानियों की ज़रूरत पड़ती है. अपने भीतर शक्ति और साहस जुटाने के लिए उसे रहस्य रोमांच की कहानियों और वीर नायकों की कहानियों की ज़रूरत पड़ती है. काल्पनिक दुनिया से निकल कर यथार्थ दुनिया में अपने को एडजस्ट करने के लिए उसे सांसारिक बुद्धि, व्यावहारिक ज्ञान और नीति-नियमों की भी आवश्यकता पड़ती है. इसलिए पंचतंत्र, ईसप आदि की नीति कथाओं की अपील भी अधिकतर इस वयोवर्ग में होती है.

माध्यमिक स्कूल की अवस्था का बालक वयस्कों के नियंत्रण से पूरी तरह आज़ाद होना चाहता है. घर के सगे-सम्बंधियों की अपेक्षा बाहर के मित्रों, साथियों की दुनिया उसे अधिक लुभावनी लगती है. यह टोली भावना (गैंग स्पिरिट) इस वय की प्रमुख विशेषता है. उसमें असाधारण शक्ति और साहस का स्फुरण होता है. वह सैकड़ों काम करना चाहता है, हजारों बातें सीखना चाहता है. उसकी इच्छाओं और आकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं होती. उसे लगता है कि अब वह बच्चा नहीं रहा है, वह बड़ा हो गया है और इसलिए बच्चा कहे जाने पर नाराज़ भी होता है. उसमें असीम सहनशक्ति आ जाती है और गीत तथा एक्शन उसके जीवन का संगीत बन जाता है. साहसिक कार्यों के प्रति रुझान इस अवस्था की विशेषता है अतः इस अवस्था के साहित्य में साहसिक कथाएं, दुर्गम प्रदेशों की यात्राएं, शिकार, युद्ध, जान-जोखिम की कहानियां उसे प्रिय लगती हैं. ‘प्यारे बच्चो’ आदि के सम्बोधनों से वह चिढ़ता है. वह पूरी तरह समाज-केंद्रित हो जाता है.

हाई स्कूल की अवस्था का बालक किशोरावस्था का बालक होता है. यह अत्यधिक उलझन की अवस्था होती है. शारीरिक विकास इतनी तेज़ी से होता है कि वह अपने को एकाएक बड़ों के समकक्ष पाता है, जबकि माता-पिता अभी उसे बच्चा ही समझते हैं. यौन-भावना का स्फुरण (विशेषतया) उसकी मानसिक उलझनों को और भी बढ़ा देता है. वह अपने लिए जीवन के मूल्यों की खोज करने लगता है. विश्व की समस्याओं में रुचि लेने लगता है. समाज में और विश्व में अपने लिए कोई स्थान बनाने की चिंता उसे सताने लगती है. यह अवस्था बचपन और वयस्कता के बीच झूलता हुआ पुल है. कभी बच्चा अपने को इस छोर पर, कभी अचानक उस छोर पर पाता है. इस अवस्था के बालक छलांग मार कर वयस्क साहित्य पर उतर आते हैं. बच्चों के लिए लिखी गयी पुस्तकें उन्हें बचकाना लगती हैं, किंतु साथ ही बड़ों के साहित्य के आस्वादन की उनमें क्षमता नहीं होती, इसलिए उनके लिए एक विशेष प्रकार के साहित्य की आवश्यकता होती है. चूंकि यौन-भावना का विकास इस वय का प्रमुख पहलू है अतः उन्हें प्रेम कथाओं की भी आवश्यकता पड़ती है. 

किशोरावस्था विद्रोह और असंतोष की अवस्था होती है. यह विद्रोह भावना नितांत स्वाभाविक और सकारात्मक होती है. इससे डरने की या इसकी भर्त्सना करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए. यह दो पीढ़ियों के संघर्ष की द्योतक है, जो शाश्वत सत्य है. बड़ों की कथनी-करनी का अंतर इसका प्रमुख कारण है. किशोर एक ऐसी दुनिया से निकला हुआ बालक है, जहां हर चीज़ कुछ सरल-स्पष्ट नियमों से चालित होती है. यह दुनिया है परीकथा, लोककथा, नीतिकथा और धार्मिक कथाओं की आदर्श दुनिया जिसके नियम स्पष्ट हैं, जैसे चोरी करना बुरा है, झूठ बोलना पाप है, सत्य की जीत होती है, मेहनत और ईमानदारी में सफलता है. वास्तविक दुनिया जो बड़ों की दुनिया होती है इसके ठीक विपरीत होती है. किशोर सहसा जब इस दुनिया के सम्पर्क में आता है तो उसकी मान्यताओं को बड़ा झटका लगता है और वह स्वभावतः असंतोष और विद्रोह की भावना से भर जाता है. इसके अतिरिक्त किशोरावस्था की देहरी पर वह अपने सामने जिस विशाल जीवन को देखता है, उसे बदलने और अधिक सुंदर बनाने के लिए वह व्यग्र होता है, जबकि वयस्क पीढ़ी यथास्थिति को बनाये रखना चाहती है. उनका विद्रोह सकारात्मक होता है, क्योंकि वह समाज के गतिशील बनाये रखने में सहायक होता है.

बाल साहित्य के संदर्भ में जब मैं पहले शाश्वत प्रश्न ‘क्यों’ के आमने-सामने अपने को पाता हूं तो मन में दो सवाल उठते हैं. एक अपने संदर्भ में और एक पाठक अर्थात बच्चे के संदर्भ में. मैं क्यों लिखूं और बच्चा क्यों पढ़े? जहां तक मेरे लिखने की बात है, मेरे मन में कभी भी यह विचार नहीं आया कि मैं बच्चे पर किसी तरह का एहसान करता हूं, उस पर कृपा करता हूं या उसके भविष्य को सुंदर बनाने के लिए लिखता हूं. मैं अपने लिए, अपनी गरज से, अपने स्वार्थ के लिए लिखता हूं.

अब रहा सवाल कि बच्चा साहित्य क्यों पढ़े? इसका उत्तर भी वही है कि ज़िंदगी के अधूरेपन को भरने के लिए बच्चे को विविध प्रकार के साहित्य की आवश्यकता होती है. बच्चा महसूस करता है, सोचता भी है, लेकिन पर्याप्त सृजन नहीं कर सकता. यह बात सिर्फ बच्चे पर ही लागू नहीं होती, अधिकांश बड़े लोग भी पर्याप्त सृजन नहीं कर सकते. लेकिन उन्हें भी और हर बच्चे को इसकी आवश्यकता होती है, क्योंकि इसके बिना जीवन अधूरा लगता है. उन्हें परोक्ष सृजन के द्वारा अपनी इस आवश्यकता को पूरा करना पड़ता है. यह परोक्ष सृजन (वाइकेरियस क्रियेटिव प्लेज़र) उसे साहित्य और कलाओं से मिलता है.

यहां फिर सवाल उठता है कि सृजन है क्या बला? यह कौन-सी चीज़ है जिसके बिना मनुष्य की ज़िंदगी अधूरी रह जाती है? जब हम अपने एहसास को अपनी सोच की परिस्थितियों के संदर्भ में जांचते-परखते हैं और निर्णय लेते हैं तो वह हमारा अनुभव बनता है. संवेदन और ज्ञान का अनुभव बनना ही सृजन है. इसमें संश्लेषण, विश्लेषण और निर्णय की क्रियाएं हैं.

मैंने ऊपर ‘पर्याप्त सृजन’ शब्दों का प्रयोग किया है. मेरा कहना है कि सृजन की क्रिया में प्रवृत्ति तो सभी जीवों का स्वभाव है, किंतु इनकी अपनी सीमाएं हैं. चींटी जब अपनी जान का खतरा महसूस करके डंक मारती है, केंचुआ जब अपने को असुरक्षित महसूस कर अपनी कुंडली में छिपने की कोशिश करता है, नाग जब खतरा देख कर फन उठाता है, तो यह सब इन जीवों की सृजनात्मक क्रियाएं ही होती हैं. इनका काम इतने में चल जाता है. मनुष्य को बड़े पैमाने पर सृजन की आवश्यकता होती है.

सृजन करते तो सब हैं लेकिन उसका क्षेत्र सीमित होता है. उधर जीवन असीम होता है. हम एक शहर के मोहल्ले या गांव की सीमा में जीते हैं, लेकिन विश्व बहुत बड़ा है, ब्रह्मांड का तो कहना ही क्या. और मनुष्य का मन, शरीर या भूगोल की सीमा में बंधकर नहीं रहना चाहता, वह विश्व को ही नहीं, ब्रह्मांड को भी लांघना चाहता है. इसलिए उसे असंख्य अनुभवों की ज़रूरत होती है. ये अनुभव प्राप्त किये बिना उसे अपना जीवन अधूरा लगता है. साहित्य से उसकी यह ज़रूरत पूरी होती है.

यहीं हमारा दूसरा शाश्वत प्रश्न सामने आता है कि बच्चों को क्या दें? बाल साहित्य कैसा हो?

मैं बाल साहित्य के विषयों की किसी सीमा को नहीं मानता. मेरी मान्यता है कि बच्चे के किसी भी तरह के साहित्य पर कोई पाबंदी नहीं लगनी चाहिए? परी कथाओं, नीति कथाओं आदि का परम्परागत साहित्य हमारे सदियों से संचित सांस्कृतिक मूल्यों से ओत-प्रोत है. उसमें सब कुछ बच्चे के लिए उपयोगी ही है, यह मैं नहीं कहता. उसमें विवेक से छानबीन करनी होगी. लेकिन सिर्फ इसलिए इस साहित्य पर पाबंदी नहीं लगानी चाहिए कि आज का बच्चा विज्ञान के युग का बच्चा है. विज्ञान आदमी नहीं गढ़ता, वह सिर्फ मशीन बनाता है. आदमी सदियों के अनुभवों से विकसित होता है. इसलिए जो हमारी सांस्कृतिक धरोहर है उससे बच्चे को अलग करना बुद्धिमानी नहीं है. हां, बच्चे को इन परम्परागत कथाओं तक ही सीमित रखना भी उतनी बड़ी गलती है. ज्ञान-विज्ञान की उनकी भूख कहानी की भूख से कम नहीं होती. वह विज्ञान की परिस्थितियों में जीता है और अपनी परिस्थितियों से अवगत होना तथा उसके साथ अपना समायोजन करना यह उनके जीवन की एक बहुत बड़ी समस्या है. इसके लिए बड़ी मात्रा में ज्ञान-विज्ञान के साहित्य की आवश्यकता है.

अंतिम प्रश्न ‘कैसे’ का सम्बंध शिल्प से है. यह कौशल है जिसे साहित्य की पुस्तकों से अथवा सिद्ध लेखकों के सान्निध्य से अर्जित करना पड़ता है. किंतु यहां एक सावधानी की ज़रूरत होती है. अगर हम बच्चे के प्रति ही दृष्टिकोण नहीं अपनाते तो हमारा लेखन गलत ढर्रे पर चला जायेगा.

अक्सर शिक्षित लोग भी बच्चे को मिट्टी का ढेला, कच्चे लोहे का पिंड समझते हैं जिसे ठोक-पीट कर किसी उपयोगी वस्तु में बदला जाना है. जो लोग यह कहते हैं कि बच्चा कल का कर्णधार या ऐसी ही कोई चीज़ है, उनके लिए बच्चा आज कुछ नहीं होता. ये उसके वयस्क जीवन को ही महत्त्व देते हैं, उसके बचपन का उनके लिए कोई महत्त्व नहीं होता. यह नितांत स्वार्थ की दृष्टि है. बच्चे का हर क्षण कीमती है, उसके लिए इस क्षण का बहुत महत्त्व है. बच्चे को जल्दी-से-जल्दी नेहरू, गांधी, आइंस्टीन या अन्य कोई उपयोगी वयस्क बना डालने के प्रयास में जब कोई लेखक बाल साहित्य लिखता है तो वह बच्चों पर अत्याचार ही होता है.

(सम्पादित)

(जनवरी 2014)

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