बचपन के दिन भी क्या दिन थे  

 मनमोहन सरल   >

अभी स्कूल में ही था कि अक्सर सुनने को मिलता, ‘बचपना छोड़ो, अब तुम बड़े हो गये हो.’ कभी बाबूजी तो कभी मम्मी और दूसरे बड़े भी. कभी कोई कहता, ‘क्या बच्चों जैसी बातें कर रहे हो?’ जब-जब यह सुनता, तब-तब मन में सवाल पैदा होता कि यह ‘बचपना’ और ‘बच्चों जैसी’ क्या होता है.

समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों के दरवाज़े खटखटाए और इतिहास के पन्ने पलटे. किसी ने बताया कि बचपन प्राकृतिक घटना है तो किसी ने इसे सामाजिक रचना बताया. इतिहासकार फिलिप एरीज़ ने कहा कि बचपन कोई स्वाभाविक घटना नहीं, बल्कि समाज का क्रियेशन है. फ्रांस के पैगेत के सिद्धान्त में इसके दो चरण बताये गये हैं- प्रीऑपरेशनल और कंक्रीट ऑपरेशनल. जबकि विकास के नज़रिये से देखें तो इसे चार चरणों में बांटा गया है और इसे शैशवकाल से वयःसंधि तक माना गया है. मासूमियत और बाल-सुलभ जिज्ञासा बचपन की खासियतें बतायी जाती रही हैं.

पहला चरण ः शेशव, जन्म से आरम्भ होता है पहला चरण, जिसमें बच्चा गिरते-पड़ते चलना सीखता है. उम्र 3 साल कही जाती है पर अब तो दो वर्ष का होते ही बच्चे को प्ले स्कूल में डाल दिया जाता है. आजकल गगज्यादातर माता-पिता दोनों ही काम करते हैं, या दोनों में कोई बच्चे की जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहता है.  

दूसरा चरण – प्रारंभिक बचपन, इसे खेल-कूद का समय कहा जाता है। यह आम तौर पर 7-8 साल की उम्र का समय होता है. इस अवधि में बच्चा खेल-खेल में अपने आप बहुत कुछ सीखता है. अपने अभिभावकों पर निर्भर न रहकर धीरे-धीरे स्वयं अपने काम करना शुरू कर देता है. दूसरों को देख कर और तरह-तरह के नये-नये प्रयोग करके अनुभव एकत्र करता है. इसी उम्र में उसमें भावनात्मक लगाव पैदा होता है. वक्त के साथ इस चरण की कालावधि और स्वभाव में बहुत बदलाव आते जा रहे हैं. खेल-कूद से बच्चे में ज्ञान आता है, वह शारीरिक रूप से स्वस्थ होता है और शक्ति अर्जित करता है. भावनात्मक सुदृढ़ता के लिए भी खेलों को ज़रूरी माना जाता है. पर अब कम्प्यूटर, विडियो गेम, टी.वी. या आई-फोन आ जाने के बाद बच्चा घर से बाहर जाना ही नहीं चाहता और इस तरह मेल-मिलाप के अभाव की वजह से उसमें परस्पर आत्मीयता और आपसी सामंजस्य का विकास थम गया है. दूसरे, इधर बच्चों पर या उनसे जुड़ी आपराधिक घटनाओं की वजह से अभिभावकों ने स्वयं बच्चों के बाहर जा कर खेलने पर रोक लगा दी है. पहले वह कम उम्र में ही बाहरी दुनिया के संपर्क में आ जाता था और समूह में काम करना भी सीखता था. अब वह खुद अलग-थलग पड़ता जा रहा है.

तीसरा चरण – 7 या 8 साल की उम्र से आरम्भ होता है. इसे प्रायमरी स्कूल एज भी कह सकते हैं. यह कालखंड वयःसंधि तक रहता है. बच्चे को सामाजिक और मानसिक रूप से विकास का अवसर मिलता है. वह नये-नये मित्र बनाता है. नया ज्ञान पाता है और कौशल सीखता है. वह अधिक स्वतंत्र बनता है और उसके निजी व्यक्तित्व का भी स्वरूप बनता है.

चौथा चरण – किशोरावस्था. उस अवधि में बच्चे में शारीरिक, मानसिक और व्यवहारगत परिवर्तन आता  है. इसे ही टीन एज कहा जाता है. इस उम्र की कालावधि के बारे में अलग-अलग देशों और संस्कृतियों में अंतर है. अमेरिकी या पश्चिम का बच्चा जल्दी ही किशोरों जैसा व्यवहार करने लगता है. परिवारगत वैभिन्न्य भी इस बदलाव के लिए ज़िम्मेदार होता है. परिवेश और संगी-साथी भी इसमें परिवर्तन के लिए जवाबदेह हेते हैं.

बचपन के इस चौथे चरण को लेकर हमेशा से विवाद होता रहा है. हमारे यहां भी किशोर और बाल-अपराध की उम्र को लेकर विवाद मचा हुआ है. खासकर इसी चरण की उम्र-सीमा क्या हो, यह प्राय सभी देशों में बहस का मुद्दा बना हुआ है.

मासूमियत और चपलता के अलावा बचपन का एक दुखद पहलू भी है. और वह है बाल-श्रम. यह बीमारी हमारे देश की नहीं, वरन् विश्वव्यापी है. इतिहास को खंगालें तो इसकी शुरूआत विक्टोरिया के ज़माने में ही हो गयी था, जब यूरोप में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ. तमाम तरह के कानून बनने के बावजूद आज भी हमें जगह-जगह ‘बच्चे बिना बचपन के’ मिल जाते हैं.

समकालीन समय में एक बड़ा परिवर्तन ‘किंडर कल्चर’ की वजह से आया. किंडर कल्चर के जनक किंचलो और स्टीनबर्ग जिन्होंने बचपन के नये युग में इस कल्चर से प्रवेश किया और इसे ‘नया बचपन’ नाम दिया. इसी का परिणाम है किंडरगार्टन विधि की शिक्षा, जिसने खासकर, एलीट वर्ग के बच्चों के विकास के लिए बड़ा काम किया है. अब तो यह  प्रणाली झोंपड़पट्टी के बच्चों तक जा पहुंची है, जो एक अच्छा  संकेत है.

बचपन को ज्ञान तथा बुद्धि से समृद्ध बनाने के लिए विश्व भर में युगों से प्रयास  होते रहे हैं. हमारे यहां  सदियों पहले ‘हितोपदेश’. ‘मित्रलाभ’ और ‘पंचतंत्र’ की छोटी-छोटी कथाओं द्वारा बच्चों को ज्ञानसुलभ जानकारी रोचक ढंग से दी गयी है. ‘जातक कथाएं’, ‘बैताल पचीसी’, ‘तेनालीराम की कहानियां’,  ‘अकबर-बीरबल के किस्से’ आदि कितना ही बाल-साहित्य बरसों पहले लिखा जाता रहा. इसी तरह एलिस इन वंडरलैंड, ईसप की कहानियां या हेंस एंडरसन की परीकथाएं या रेड राइडिंगहुड जैसे अनेक नाम हैं, जो वर्षों से बच्चों में ज्ञान बांट रहे हैं. इसी तरह विभिन्न अंचलों में प्रचलित लोककथाएं भी यही काम कर रही हैं. केवल भारत का लोक साहित्य ही नहीं, विश्व भर में प्रत्येक अंचल और देश में भी ऐसी लोक कथाओं का विपुल भंडार है, जो बचपन को युगों से समृद्ध करता आ रहा है. जैसा कि इंग्लिश दार्शनिक जॉन लोके ने कहा है कि बालक कोरे कागज़ की तरह होता है, जब वह पैदा होता है. इसलिए यह माता-पिता, अभिभावकों और समाज का कर्त्तव्य है कि उसमें उचित और सही ज्ञान भरें. यही जिम्मेदारी बाल साहित्य के लेखक संभाल रहे हैं.

बचपन खुशहाली, लचीलेपन, आश्चर्य और जिज्ञासा का मिश्रण होता है. यह ज़िम्मेदारी सबकी है कि वह तमाम तरह की चिंताओं और जिम्मेदारियों से मुक्त रहे, उसे सीखने, खेलने, दूसरों से मेल-मिलाप करने के अवसर मिलें. और आज हमारी विडम्बना यह है कि खुशहाली, लचीलेपन और जिज्ञासा के इस मिश्रण को टुकड़ा-टुकड़ा धूप का सुख भोगने के लिए वर्गों में बंटा आज का बचपन कहीं तथाकथित ज्ञान के बोझ से दबा जा रहा है और कहीं एक आपराधिक उपेक्षा का शिकार हो
रहा है.

सात्विक भोलापन, बचपन का एक गुण होना चाहिए आज हमारा समाज और व्यवस्था दोनों इस कोशिश में लगे रहते हैं कि बचपन इस गुण से वंचित ही रहे. जाने-अनजाने इस प्राकृतिक घटना को ऐसी सामाजिक रचना में परिवर्तित किया जा रहा है जिस पर समाज के तथाकथित बड़ों का सोच और समझ हावी है.

‘बचपन’ को ‘बड़ा’ बनाने की यह कोशिश जीवन को उस नैसर्गिक सुख से वंचित कर रही है जो ‘बचपने’ और बच्चों जैसी बातों से जुड़ा हुआ है. काश, हम इस बचपने को बचा पायें.

(जनवरी 2014)

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