♦ सुखबीर द्वारा संकलित
प्रसिद्ध दार्शनिक देकार्त से एक बार किसी ने दुर्व्यवहार किया, मगर देकार्त ने उसे कुछ न कहा. इस पर एक मित्र कहने लगे- ‘तुम्हें उससे बदला लेना चाहिये था, उसका सलूक बहुत बुरा था.’
वे नर्मी से बोले- ‘जब कोई मुझसे बुरा व्यवहार करता है, तो मैं अपनी आत्मा को इस ऊंचाई पर ले जाता हूं, जहां कोई दुर्व्यवहार उसे छू नहीं सकता.’
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अमेरिकी सेनापति ग्रांट एक बार कहीं टहलते-टहलते सिगार पी रहे थे. मगर उस स्थान पर धुम्रपान करने की मनाही थी. वहां पहरे पर तैनात नीग्रो चौकीदार ने उनके पास जाकर कहा- ‘जनाब, आप यहां सिगार नहीं पी सकते.’
‘क्यों?’ ग्रांट ने पूछा.
‘यहां सिगार पीना मना है.’
‘तो क्या तुम्हारा आदेश है कि मैं सिगार न पीऊं?’
‘जी!’ पहरेदार ने नम्रतापूर्वक, परंतु दृढ़ता से कहा.
‘बहुत अच्छा हुक्म है.’ कहकर ग्रांट ने तुरंत सिगार फेंक दिया. बेंज़ामिन फ्रैंकलिन के निवृत्त होने पर टामस ज़ेफरसन उनकी जगह फ्रांस में अमरीकी राजूदत बनाये गये. जब वे फ्रांसीसी प्रधानमंत्री से मिले, तो प्रधानमंत्री ने कहा- ‘तो आप श्री फैंकलिन का स्थान लेने आये हैं?’ जेफरसन ने तुरंत उनकी बात काटी- ‘उनका स्थान कौन ले सकता है. मैं तो उनका उत्तराधिकारी मात्र बनकर आया हूं.’
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पोप पायस नौंवे वैटिकन की गैलरियों में घूम रहे थे. उन्होंने देखा कि कुछ दूरी पर एक अंग्रेज़ युवक मंत्रमुग्ध होकर महान चित्रकार राफेल के चित्रों को देख रहा है.
पोप उसके निकट गये और बोले- ‘तुम कलाकार लगते हो बेटा.’
अंग्रेज़ युवक ने बताया कि वह चित्रकला सीखने के लिए रोम आया है, मगर उसके पास इतने पैसे नहीं हैं कि चित्रकला की अकादमी में भरती हो सके.
‘पैसों का प्रबंध हो जायेगा. तुम चिंता न करो.’ पोप ने आश्वासन दिया.
‘लेकिन मैं तो प्रोटेस्टैंट धर्म को मानने वाला हूं, मैं कैथोलिक नहीं हूं.’
पोप मुस्कराये- ‘तो क्या हुआ बेटे, तुम्हें दाखिला मिल जायेगा.’
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अलर्बट श्वाइत्जर 1949 में अमरीका गये, तो एक दिन स्ट्रासबर्ग के संडे स्कूल के एक पुराने विद्यार्थी ने एक रेस्तरां में नाश्ते के लिए उन्हें बुलाया.
इसी अवसर के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया केक लाकर रखा गया. बहुत कीमती केक था, देखने में भी बहुत सुंदर.
जब श्वाइत्जर से केक काटने की प्रार्थना की गयी, उन्होंने छुरी हाथ में ली और वहां उस्थित व्यक्तियों को गिना. नौ व्यक्ति थे. लेकिन श्वाइत्जर ने केक के दस टुकड़े काटे फिर उपस्थितियों की हैरानी दूर करने के लिए बोले- ‘दसवां टुकड़ा उस युवती के लिए है, जिसने इतने करीने से लाकर प्लेट में रखकर वेट्रेस की ओर बढ़ा दिया.’
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जनरल आइजनहोवर द्वितीय विश्वयुद्ध में किसी मोर्चे का निरीक्षण करने गये. वहां का मेज़र जनरल उनके संग था बारिश का दिन था और चारों ओर कीचड़ था. आइजन होवर ने विशेष रूप से निर्मित छोटे से मंच पर खड़े होकर सैनिकों को सम्बोधित करके कुछ शब्द कहे. मगर जब वे मंच से उतरने लगे, उनका पांव फिसल गया और वे कीचड़ में गिर पड़े. इस पर सैनिक खिलखिलाकर हंस पड़े.
मेजर जनरल ने आइजनहोवर को सहारा देकर खड़ा किया, और सैनिकों की अशिष्टता के लिए क्षमा मांगी.
‘इसमें क्षमा मांगने की क्या बात है,’ आइजनहोवर ने बड़े सहज भाव से कहा- ‘मेरे भाषण की अपेक्षा, मेरे फिसलने से उनका ज़्यादा मनोरंजन हुआ होगा.’
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प्येर मोंत्यू प्रसिद्ध संगीतकार थे. एक बार किसी शहर में वे अपनी पत्नी के संग एक होटल में कमरा लेने पहुंचे. स्वागत कर्त्री (रिसेप्शनिस्ट) बोली- ‘अफसोस, कोई कमरा खाली नहीं.’
पास खड़े हुए व्यक्ति ने रिसेप्शनिस्ट को बयाता कि वे कौन हैं. रिसेप्शनिस्ट चौंक पड़ी और बहुत ही विनम्र स्वर में बोली- ‘माफ कीजियेगा, मैं आपको साधारण व्यक्ति समझ बैठी. अभी प्रबंध किये देती हूं.’
मगर मोंत्यू गंभीरता से बोले- ‘मदाम, हर आदमी साधारण आदमी ही है. अलविदा.’ और वे होटल में से बाहर हो गये.
जब सन 1925 में जार्ज बर्नार्ड शा को नोबेल पुस्कार देने की घोषणा की गयी, तो शा ने पुरस्कार तो स्वीकार कर लिया, किंतु पुरस्कार की रकम लेने से इन्कार कर दिया. उन्होंने सफाई दी- ‘अब मेरे पास गुज़ारे लायक काफी धन है. इनाम की रकम स्वीडन के गरीब लेखकों को दे दी जाये.’
( फरवरी 1971 )