लेकिन मां हमेशा अपने परिवेश से बाहर ही खड़ी हमें समझाती और हमारे बात करने के ढंग, उच्चारण पर ध्यान देती रहती, हमारा व्याकरण सुधारती रहती और हमें यह महसूस कराती रहती कि हम खास हैं.
हम जैसे-जैसे और अधिक गरीबी के गर्त में उतरते चले गये, मैं अपनी अज्ञानता के चलते और बचपने में मां से कहता कि फिर से स्टेज पर जाना शुरू क्यों नहीं कर देती. मां मुस्कुराती और कहती कि वहां का जीवन नकली और झूठा है और कि इस तरह के जीवन में रहने से हम जल्दी ही ईश्वर को भूल जाते हैं. इसके बावजूद वह जब भी थियेटर की बात करती तो वह अपने आपको भूल जाती और उत्साह से भर उठती. यादों की गलियों में उतरने के बाद वह फिर से मौन के गहरे कूंए में उतर जाती और अपने सुई-धागे के काम में अपने आपको भुला देती. मैं भावुक हो जाता क्योंकि मैं जानता था कि हम अब उस शानो-शौकत वाली ज़िंदगी का हिस्सा नहीं रहे थे. तब मां मेरी तरफ देखती और मुझे अकेला पा कर मेरा हौसला बढ़ाती.
सर्दियां सिर पर थीं और सिडनी के कपड़े कम होते चले जा रहे थे. इसलिए मां ने अपने पुराने रेशमी जैकेट में से उसके लिए एक कोट सी दिया था. उस पर काली और लाल धारियों वाली बाहें थीं. कंधे पर प्लीट्स थी और मां ने पूरी कोशिश की थी कि उन्हें किसी तरह से दूर कर दे लेकिन वह उन्हें हटा नहीं पा रही थी. जब सिडनी से वह कोट पहनने के लिए कहा गया तो वह रो पड़ा था, “स्कूल के बच्चे मेरा ये कोट देखकर क्या कहेंगे?”
“इस बात की कौन परवाह करता है कि लोग क्या कहेंगे?” मां ने कहा था, “इसके अलावा, ये कितना खास किस्म का लग रहा है.” मां का समझाने-बुझाने का तरीका इतना शानदार था कि सिडनी आज दिन तक नहीं समझ पाया है कि वह मां के फुसलाने पर वह कोट पहनने को आखिर तैयार ही कैसे हो गया था. लेकिन उसने कोट पहना था. उस कोट की वजह से और मां के ऊंची हील के सैंडिलों को काट-छांट कर बनाये गये जूतों से सिडनी के स्कूल में कई झगड़े हुए. उसे सब लड़के छेड़ते, “जोसेफ और उसका रंग बिरंगा कोट.” और मैं, मां की पुरानी लाल लम्बी जुराबों में से काट-कूट कर बनायी गयी जुराबें (लगता जैसे उनमें प्लीटें डाली गयी हैं) पहन कर जाता तो बच्चे छेड़ते, “आ गये सर फ्रांसिस ड्रेक.”
इस भयावह हालात के चरम दिनों में मां को आधी सीसी सिर दर्द की शिकायत शुरू हुई. उसे मज़बूरन अपना सीने-पिरोने का काम छोड़ देना पड़ा. वह कई-कई दिन तक अंधेरे कमरे में सिर पर चाय की पत्तियों की पट्टियां बांधे पड़ी रहती. हमारा वक्त खराब चल रहा था और हम गिरजा- घरों की खैरात पर पल रहे थे, सूप की टिकटों के सहारे दिन काट रहे थे और मदद के लिए आये पार्सलों के सहारे जी रहे थे. इसके बावजूद, सिडनी स्कूल के घंटों के बीच अखबार बेचता, और बेशक उसका योगदान ऊंट के मुंह में जीरा ही होता, ये उस खैरात के सामान में कुछ तो जोड़ता ही था. लेकिन हर संकट में हमेशा कोई न कोई क्लाइमेक्स भी छुपा होता है. इस मामले में ये क्लाइमेक्स बहुत सुखद था.
एक दिन जब मां ठीक हो रही थी, चाय की पत्ती की पट्टी अभी भी उसके सिर पर बंधी थी, सिडनी उस अंधियारे कमरे में हांफता हुआ आया और अखबार बिस्तर पर फेंकता हुआ चिल्लाया, “मुझे एक बटुआ मिला है.” उसने बटुआ मां को दे दिया. जब मां ने बटुआ खोला तो उसने देखा, उसमें चांदी और सोने के सिक्के भरे हुए थे. मां ने तुरंत उसे बंद कर दिया और उत्तेजना से वापिस अपने बिस्तर पर ढह गयी.
सिडनी अखबार बेचने के लिए बसों में चढ़ता रहता था. उसने बस के ऊपरी तल्ले पर एक खाली सीट पर बटुआ पड़ा हुआ देखा. उसने तुरंत अपने अखबार उस सीट के ऊपर गिरा दिये और फिर अखबारों के साथ पर्स भी उठा लिया और तेजी से बस से उतर कर भागा. एक बड़े से होर्डिंग के पीछे, एक खाली जगह पर उसने बटुआ खोल कर देखा तो उसमें चांदी और तांबे के सिक्कों का ढेर पाया. उसने बताया कि उसका दिल बल्लियों उछल रहा था और और वह बिना पैसे गिने ही घर की तरफ भागता चला आया.
जब मां की हालत कुछ सुधरी तो उसने बटुए का सारा सामान बिस्तर पर उलट दिया. लेकिन बटुआ अभी भी भारी था. उसके बीच में भी एक जेब थी. मां ने उस जेब को खोला और देखा कि उसके अंदर सोने के सात सिक्के छुपे हुए थे. हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था. ईश्वर का लाख-लाख शुक्र कि बटुए पर कोई पता नहीं था. इसलिए मां की झिझक थोड़ी कम हो गयी थी. हालांकि उस बटुए के मालिक के दुर्भाग्य के प्रति थोड़ा-सा अफसोस जताया गया था. अलबत्ता, मां के विश्वास ने तुरंत ही इसे हवा दे दी कि ईश्वर ने इसे हमारे लिए एक वरदान के रूप में ऊपर से भेजा है.
मां की बीमारी शारीरिक थी अथवा मनोवैज्ञानिक, मैं नहीं जानता. लेकिन वह एक हफ्ते के भीतर ही ठीक हो गयी. जैसे ही वह ठीक हुई, हम छुट्टी मनाने के लिए समुद्र के दक्षिण तट पर चले गये. तब मां ने हमें ऊपर से नीचे तक नये कपड़े पहनाये थे.
पहली बार समुद्र को देख कर मैं तो जैसे पागल हो गया था. जब मैं उस पहाड़ी गली में तपती दोपहरी में समुद्र के पास पहुंचा तो ठगा-सा रह गया. हम तीनों ने अपने जूते उतारे और पानी में छप-छप करते रहे. मेरे तलुओं और मेरे टखनों को गुदगुदाता समुद्र का गुनगुना पानी और मेरे पैरों के तले से सरकती नम, नरम और भुरभुरी रेत… मेरे आनंद का ठिकाना नहीं था.
वह दिन भी क्या दिन था. केसरी रंग का समुद्र तट, उसकी गुलाबी और नीली डोलचियां और उस पर लकड़ी के बेलचे. उसके सतरंगी तम्बू और छतरियां, लहरों पर इतराती कश्तियां, और ऊपर तट पर एक तरह करवट ले कर आराम फरमाती कश्तियां जिनमें समुद्री सेवार की गंध रची-बसी थी और वे तट. इन सबकी यादें अभी भी मेरे मन में चरम उत्तेजना से भरी हुई लगती हैं.
1957 में मैं दोबारा साउथ एंड तट पर गया और उस संकरी पहाड़ी गली को खोजने का निष्फल प्रयास करता रहा जिससे मैंने समुद्र को पहली बार देखा था, लेकिन अब वहां उसका कोई नामो-निशान नहीं था. शहर के आखिरी सिरे पर वहां जो कुछ था, पुराने मछुआरों के गांव के अवशेष ही दीख रहे थे जिसमें पुराने ढब की दुकानें नज़र आ रही थीं. इसमें अतीत की धुंधली-सी सरसराहट छुपी हुई थी. शायद यह समुद्री सेवार की और टार की महक थी.
बालू घड़ी में भरी रेत की तरह हमारा खज़ाना चुक गया. मुश्किल समय एक बार फिर हमारे सामने मुंह बाये खड़ा था. मां ने दूसरा रोज़गार ढूंढ़ने की कोशिश की लेकिन कामकाज कहीं था ही नहीं. किस्तों की अदायगी का वक्त हो चुका था. नतीजा यही हुआ कि मां की सिलाई मशीन उठवा ली गयी. पिता की तरफ से जो हर हफ्ते दस शिलिंग की राशि आती थी, वह भी पूरी तरह से बंद हो गयी. अब अभावों की एक दुनिया हमारे सामने थी.
हताशा के ऐसे वक्त में मां ने दूसरा वकील करने की सोची. वकील ने जब देखा कि इसमें से मुश्किल से ही वह फीस भर निकाल पायेगा, तो उसने मां को सलाह दी कि उसे लैम्बेथ के दफ्तर के प्राधिकारियों की मदद लेनी चाहिए ताकि अपने और अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए पिता पर मदद के लिए दबाव डाला जा सके. मां कुछ सोचती रही.
और कोई उपाय नहीं था. उसके सिर पर दो बच्चों को पालने का बोझ था. उसका खुद का स्वास्थ्य खराब था. इसलिए उसने तय किया कि हम तीनों लैम्बेथ के यतीम खाने (वर्कहाउस) में भरती हो जायें.
हालांकि हम यतीम खाने यानी वर्कहाउस में जाने की जिल्लत के बारे में जानते थे लेकिन जब मां ने हमें वहां के बारे में बताया तो सिडनी और मैंने सोचा कि वहां रहने में कुछ तो रोमांच होगा ही और कम से कम इस दमघोंटू कमरे में रहने से तो छुटकारा मिलेगा. लेकिन उस तकलीफ से भरे दिन, मैं तबतक इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि क्या होने जा रहा है जब तक हम सचमुच यतीम खाने के गेट तक पहुंच नहीं गये. तब जा कर उसकी दुखदायी दुविधा का हमें पता चला. वहां जाते ही हमें अलग कर दिया गया. मां महिलाओं वाले वार्ड की तरफ ले जाई गयी और हम दोनों को बच्चों वाले वार्ड में भेज दिया गया.
(सूरज प्रकाश द्वारा अनूदित चार्ली चैप्लिन की
आत्मकथा का एक अंश)