लघु–कथा
साहब अपनी पत्नी पर झल्ला रहे थे. वे कह रहे थे, ‘मैडम, जल्दी करिए. सुलेमान ड्राइवर कब से आकर बैठा हुआ है. क्या हमें मंदिर नहीं जाना? क्या हम आरती के बाद जाएंगे?’
पत्नी अपने काम में लगी रही और उसने कोई जवाब नहीं दिया.
तभी साहब को खयाल आया कि आज तो रमजान की आखिरी नमाज़ है और उसका वक्त भी हो चला है. वे फौरन बाहर निकले और सुलेमान से कहा, ‘तुम गाड़ी लेकर फौरन मस्जिद चले जाओ. हम मंदिर बाद में जायेंगे.’
सुलेमान ने कहा, ‘साहब, पहले मंदिर ही चलते हैं. मैं मस्जिद बाद में चला जाऊंगा.’
मगर साहब नहीं माने. उन्होंने सुलेमान को प्यार से डांटते हुए कहा, ‘आज तुम्हारी आखिरी नमाज़ है. जाओ, पहले उसे अदा कर आओ.’
सुलेमान गाड़ी लेकर चला गया. मगर जल्दी ही लौट आया. साहब ने पूछा, ‘क्या तुम मस्जिद नहीं गये?’
‘साहब, पास वाली मस्जिद में ही नमाज़ पढ़ आया. अब जल्दी मंदिर चलिए. आरती शुरू हो रही होगी,’ सुलेमान ने कहा.
इस बीच साहब की पत्नी तैयार हो चुकी थी. सभी गाड़ी में बैठकर मंदिर की तरफ चल पड़े. साहब और उनकी पत्नी खुश थे कि सुलेमान ने उनकी आरती का बड़ा खयाल रखा. उधर सुलेमान भी बड़ा प्रसन्न था कि साहब की मदद से आज आखिरी नमाज़ अदा हो गयी.
मार्च 2016