चित्रा मुद्गल
लेखिका, समाजसेविका और विभिन्न सरकारी और गैरसरकारी संस्थानों की सदस्या चित्रा मुद्गल ने कहानी, उपन्यास, बाल-साहित्य, और नाटक इन सभी विधाओं में लिखा और विभिन्न साहित्य अकादमियों के देशी-विदेशी सम्मान प्राप्त किये. उन्होंने विभिन्न भाषाओं के साहित्य का हिंदी में अनुवाद किया और उनके साहित्य का भी अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ. साथ ही उनकी कई कहानियां विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठय़क्रम में पढ़ाई जाती हैं.
अपनी कॉपी दिखाने का … साहस
पहली कहानी के साथ कई उलझनें जुड़ी हुई हैं.
मसलन लेखक की पहली कहानी किसे माना जाय. वह जो पहले पहल लिखी गयी है या वह जो पहले पहल परिपक्व रचना के रूप में किसी बड़ी या प्रतिष्ठित लघुपत्रिका या किसी राष्ट्रीय अखबार में प्रकाशित हुई है. लेखक स्वयं जिसे अपनी पहली कहानी मानता है और उसे ही पहली कहानी के रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहता है! इसमें कोई दो राय नहीं कि चेतना में विकसित होता कथा भ्रूण जब परिपक्व होकर कागज़ों पर शब्दों के चोले ग्रहण करता है- कहन, कौशल और शिल्प की तलाश में रचा बसा तो कहानी कमोबेश अपने मुकम्मल चेहरे के साथ पाठकों की अदालत में उपस्थित होती है. लेकिन क्या लेखक को अपनी पहली कहानी के संदर्भ में इस बात को लेकर सचेत रहना चाहिए कि उसी कहानी को पहली कहानी के रूप में स्वीकार करे जो उसके परिपक्व लेखन की परम्परा का अंश प्रतीत हो. आखिर पहली कहानी की खोज का उद्देश्य क्या है? लेखक की अभिव्यक्ति का उत्स भर जानना या मंतव्य यह भी होता है कि अपने समय के प्रति उसके सरोकारों की भूमिका तलाशी जाये. कि वे कौन-से मानसिक दबाव थे जिसने उसे कथा विधा में अभिव्यक्ति के लिए आकर्षित किया?
मेरी सखी मुमु(ममता कालिया)का कहना है – चितु, तुम्हें अपनी आरम्भिक दौर की अधकचरी कहानियों के मोह से बचना चाहिए. ठीक यही प्रतिक्रिया पहली कहानी के संदर्भ में स्वर्गीय निर्मल वर्मा की भी थी, लम्बी बात हुई थी हम दोनों के बीच. अवसर था सामयिक वार्ता के महेश के ब्याह का जो निर्मल वर्मा जी के ‘सह-विकास’ वाले घर के नीचे के प्रांगण में संपन्न हो रहा था. सभी मेहमान स्वर्गवासी किशन पटनायक की प्रतीक्षा कर रहे थे. बातचीत के बीच मैंने उनसे पहली कहानी के संदर्भ में उनके विचार जानने चाहे थे. लगातार अपने बचपन के संस्मरणों में घुमड़ते हुए अपनी बहन को याद करने वाले निर्मल जी ने कहा था- शुरूआत में मैंने कविताएं लिखीं, फिर कहानियां मगर मेरा मानना है उन चीज़ों को लेखक को रद्दी की टोकरी में डाल देना चाहिए जो उसकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचा सकती हैं.
इन दो दिग्गज कथाकारों से मैंने सयानी सीख ली और तय कर लिया कि स्कूल की वार्षिक पत्रिका के लिए लिखी गयी छोटी कहानी ‘डोमिन काकी’ तथा कॉलेज की एक कहानी प्रतियोगिता में पढ़ी गयी कहानी ‘दूर्वा’ जो बाद में शायद नवभारत टाइम्स में प्रकाशित भी हुई थी- आदि कहानियों को पहली कहानी के रूप में लेना बंद कर दूंगी. हालांकि ‘डोमिन काकी’ को संशोधित करके मैंने 2004 में प्रकाशित लघुकथा संकलन ‘बयान’ में संकलित किया है और सुखद आश्चर्य हुआ जब उसे केरल की 12वीं कक्षा की हिंदी पाठय़ पुस्तक में शामिल किये जाने की सूचना मुझे प्राप्त हुई जिसे एन.सी.ई.आर.टी. ने 2006 के लिए तैयार किया है. मेरा यह भी मानना है कि संगीत में पहला सुर बड़ी कठिनाई से लगता है. गहन निमग्नता और तप से ही उसे साधना पड़ता है. मगर न लगने वाला पहला सुर ही प्रेरित करता है सुर की तपस्या में लीन होने के लिए.
शायद इसी सोच के चलते मैं अपने दस वर्षीय पोते शाश्वत द्वारा लिखी गयी कविताओं, क्ले(मिट्टी) की बनी चिड़िया, चीनी ड्रेगन, कछुआ तथा उसके बनाए चित्रों को सहेजकर रख रही हूं… …मेरी तो किसी ने सहेज कर नहीं रखीं!
इस कसौटी पर कसने के उपरांत मुझे लगता है कि- मेरी पहली कहानी ‘सफेद सेनारा’ है जो बंबई (अब मुंबई) के प्रतिष्ठित अखबार नवभारत टाइम्स के 25 अक्टूबर 1965 के ‘रविवार्ता’ में पुरस्कृत होकर छपी थी. पूरे पृष्ठ पर अति सुंदर रेखाचित्र के साथ. वह कहानी मेरे पास आज भी सहेजी हुई है. उस समय नवभारत टाइम्स के संपादक थे महावीर अधिकारी एवं फ़ीचर संपादक थे यशवंत तेंदुलकर. पुरस्कार स्वरूप मुझे 25 रुपये का मनीऑर्डर मिला था. किसी विद्यार्थी के लिए यह अच्छी–खासी रकम थी उन दिनों. उस विद्यार्थी के लिए तो विशेष जो अपने पिता से जेब खर्च लेने से मना कर चुका हो. प्रसंगवश यह बताना चाहूंगी कि ‘सफेद सेनारा’ के अलावा भी नवभारत टाइम्स में मेरी अनेक कहानियां, नाटक, लेख, बाल रचनाएं, कविताएं आदि प्रकाशित हो चुकी हैं चित्रा ठाकुर के नाम से, जो आज अनुपलब्ध हैं. वरिष्ठ पत्रकार, कवि, संपादक विश्वनाथ सचदेव जो आज नवनीत डाइजेस्ट के भी संपादक हैं, जब नवभारत टाइम्स में स्थानीय संपादक हुआ करते थे तो उनके संपादकत्व में भी मेरी अनेक रचनाएं निरंतर प्रकाशित होती रही थीं. एक टेलीफ़ोन वार्ता के दौरान मैंने विश्वनाथ से उनके संपादन काल में प्रकाशित अपनी अनुपलब्ध रचनाओं को उपलब्ध कराने का आग्रह किया तो अपनी वही पुरानी अंजुरी भर चिल्लरोंवाली खनकती हंसी बिखेर कर कूटनीतिक अंदाज़ में हाथ खड़े कर दिये उन्होंने- मेरे भरोसे मत रहियेगा, बावजूद इसके… मुझे आपकी पहली कहानी चाहिए. जाने विश्वनाथ की हंसी क्यों नहीं बुढ़ाई. यहां तो हंसी के लहर मारते ही कंठ में बलगम की धांस आ धंसती है कि हंसी की खनक खुलती ही नहीं.
बहरहाल मैंने उम्मीद नही खोयी है. विश्वास है मुझे मेरी रचनात्मकता पर शोध करने वाला कोई-न-कोई विद्यार्थी किसी-न-किसी रोज़ कोलम्बसीय साहस अवश्य दिखायेगा, और मैं अपनी उन दुधमुही रचनाओं से मिल सकूंगी जिनकी कच्ची ईंटों की डग-डग चढ़ान ने मेरे अपरिपक्व रचनाकर को परिपक्वता कि दिशा में आगे बढ़ने की चुनौती से सन्नद्घ किया और आज सन्नद्ध किये हुए हैं…
‘सफेद सेनारा’ मैंने क्यों लिखी?
उसका आधार कथ्य कहां से अर्जित किया मैंने? प्रश्न यह भी खासा जटिल है. कुछ बातें होती हैं जिन्हें प्रकट करना आसान नहीं होता.
… उन दिनों नयी कहानी के दौर के बहुचर्चित लेखक और शीर्ष कथा-पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक रहे मोहन राकेश मेरे प्रिय लेखकों में से एक थे. आज भी ‘मलबे का मालिक’, मिस पॉल’ आदि उनकी कहानियां हिंदी साहित्य की धरोहर कहानियां हैं. उन्हीं वर्षों में उन्होंने सुंदरी तन्वंगी अमिता ओलक से ब्याह किया था. उन्हीं दिनों उनकी पत्नी सुशीला जी का कहीं मैंने वक्तव्य पढ़ा था किसी अन्य की लिखी हुई कोई टिप्पणी कि वह और बेटे, राकेश जी के इस व्यवहार से किस मानसिक यंत्रणा से गुज़र रहे हैं. सुशीला जी ने यह भी स्वीकार किया था कि वह जानती हैं कि राकेश जी जैसे लेखक को बांध कर रख पाना शायद उनके लिये संभव नहीं था. सुशीला जी की मानसिक यंत्रणा ने मुझे कहीं गहरे छुआ था. कई अनुत्तरित प्रश्नों से मुठभेड़ की थी मैंने. उनका लेखकीय प्रभामंडल भीतर कहीं दरका था. लेखकीय सरोकार क्या कागज़ पर उतरने भर तक ही सीमित होते हैं. दूसरों की पीड़ा को अपनी अभिव्यक्ति में उकेरनेवाला स्वयं को उत्पीड़क रूप के छद्म को क्यों नही अनुभव कर पाता?
राकेश के बिना जीवन की कल्पना न कर पाने वाली सुंदरी अमिता अब मेरी बहुत अच्छी दोस्त है. उषा(गांगुली) के चलते ही हम एक दूसरे के निकट आये थे हालांकि एक शहर में रहते हुए भी उससे मिलना उषा के दिल्ली आने पर ही संभव होता है, लेकिन जब भी हम तीनों मिलते हैं- पूरा दिन खाते-पीते मस्ती में गुज़ारते हैं. उषा ने राकेश जी का सुप्रसिद्ध नाटक ‘आधे-अधूरे’ का सफल मंचन किया था. अमिता की अब भी गहरी साध है कि उषा राकेश का कोई और नाटक भी मंचित करे.
एक मुलाकात में मैंने अमिता को बताया था. कभी राकेश पर मैंने एक कहानी लिखी थी- ‘सफेद सेनारा’ लिखने की तब शायद मुझे कोई तमीज़ नही थी! बुरा मानने के बजाये राकेशीय अंदाज़ में अमिता ने ज़ोरदार ठहाका मारते हुए कहा था- तमीज़ तो तुम्हें अब भी नहीं है लेकिन बात हमारे राकेश जी की है, वे थे ही ऐसे! बहुत लोगों ने उन पर कहानियां लिखी थीं. मन्नू ने भी एक कहानी लिखी है. तेरी कहानी से निश्चय ही बेहतर होगी…
मैं मानती हूं. ‘सफेद सेनारा’ को उस समय नवभारत टाइम्स के विशाल पाठक वर्ग का बहुत प्यार मिला. हो सकता है आज वह पाठकों को न रुचे. लेकिन ‘सफेद सेनारा’ को पढ़ते हुए विद् पाठक यह अवश्य खयाल रखें कि उसे एक विद्यार्थी ने लिखा था. वह विद्यार्थी साहस कर रहा है उन्हें अपनी कॉपी दिखाने का …
कहानी
सफेद सेनारा
आज आपको देखा था.
आपको !
आप मंच पर आये. आपके आते ही कानें को फाड़ डालने वाली तालियों की गड़गड़ाहट न जाने कितने क्षणों तक गूंजती रही थी. मालाओं से झुकी आपकी गर्दन जब ऊपर उठी तो सैकड़ों अधरों पर मानो चुप्पी का ताला पड़ गया. फुसफुसाहटें सन्नाटे में विलीन होकर रह गयीं. गूंजती रही तो सिर्फ आपकी आवाज़, जैसे किसी घाटी के सीने में झरने का गूंजता और धुनके बादलों में बदलता
स्वर ! जाने आपने क्या-क्या कहा. कुछ भी तो याद नहीं आ रहा. आत्मविस्मृत-सी मैं आपको सुन कम पायी, देखा अधिक. दो आंखों में सैकड़ों आंखें जो अंकुआ आयी थीं ! सच तो यह है कि वर्षों बाद आपको देखने के कारण अपनी यह अवस्था मुझे भी अस्वाभाविक नहीं लगी थी. हां! आपके कथन की कुछ आखिरी पंक्तियां न जाने ज्यों की त्यों क्यों याद हैं.
आपने कहा था- कुछ ऐसा…
‘मैं आपका हूं. लेखक अपने-आप में होता ही क्या है. सिवा रिसती एक अनुभूति के. ऐसी अनुभूति, जो अपने आसपास बिखरी करोड़ों-करोड़ों ज़िंदगी की तमाम अनुभूतियों के रिसाव को अपने भीतर समेटने और समेटकर उनकी पीड़ा को अपनी सांसें बनाने के लिए अभिशप्त है. जब तक लेखक जनमय नहीं होता, उसके संघर्षों में उसका विलय नहीं होता- वह लेखक नहीं होता. मैंने जो कुछ लिखा है, ऊभ-चूभ होती धार में आलिंगनबद्ध होते अंजुरी के जल-सा बहुत थोड़ा मेरा अपना है, शेष बहुत सारा आप सबका. जो कुछ मुझे आपसे मिलता है उस सब के लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूं, उन्हीं रिसते घावों ने मुझे अभिव्यक्ति की प्रेरणा दी है. शब्दों से मेरा नाता जोड़ा है. शब्दों की दुनिया ही अब मेरा डेरा है…’
पुनः करतल ध्वनि का ज्वार उमड़ा, जिसे विनम्र मुस्कराहट बिखेरते हुए हाथ जोड़कर आपने स्वीकार किया था.
कुर्सी पर बैठते हुए आपने कुर्ते के जेब से रूमाल निकालकर आंखों की कोरों से छुआया था. आंखों में पानी शेष है ? या लोगों को भ्रम देने का उपक्रम था यह
आपका ?
उपक्रम प्रभावी रहा. अभिभूत लोगों की भावाकुलता ठांठे मारने लगी. स्वाभाविक था. कागजों से बाहर लेखक को इस रूप में देखना और गहरे महसूस करना. कि इतना बड़ा सम्मान पाने के बावजूद इतना विनयी, सौजन्यशील, अहंकाररहित हो सकता है एक लेखक ? सभास्थल पर उपस्थित प्रत्येक ज़बान पर आपके ही मृदु स्वभाव की
चर्चा थी.
“जिसकी कलम दुनिया-भर की व्यथा अपनी सियाही में समेट लेती है, वह आखिर कैसा हो सकता है ? सच्चा साहित्यकार साधक इसे ही तो कहते हैं.”
सभास्थल के एक कोने में खड़े एक खादीधारी सज्जन जिन्हें मैं जानती हूं. राममोहन पाठकजी ने आपके सौम्य आकर्षक व्यक्तित्व पर अपनी टिप्पणी की- “साक्षात् देवपुरुष हैं, शरद बाबू !”
“किस कृति पर विद्यापीठ का यह पुरस्कार हासिल हुआ है शरदजी को ?” एक अन्य महाशय ने प्रश्न किया जो सभा में शुरू से लेकर आखिर तक उपस्थित रहने के बाद भी उस महान कृति से अनभिज्ञ थे और उनसे मैं भी अपरिचित.
राममोहन पाठकजी ने चौंककर घूरा उन्हें. बोले, “आप भी कमाल के आदमी हैं, भाई साहब. रामायण पूरी सुनने के बावजूद पूछते हैं राम कौन थे ?”
मन ही मन झुंझलाहट से भर उठे थे वे. फिर भी शिष्टतावश मुस्कराकर बोले थे, “खंडहरों का दर्द पर.”
“ओह ! क्या लिखा है शरद बाबू ने कि उपन्यास पढ़कर आंसू ही नहीं रुकते. किस जीवटता से उपन्यास का नायक नवीन पतिता त्री धारा को अंगीकार कर उसका उद्धार करता है समाज से बैर मोल लेकर कि बस, पूछो मत. साहस से भर देता है उसका यह क्रांतिकारी कदम ! एक हम हैं, अपने हृदयों में कैद चाहते तो है कि वैसा ही जियें जैसा मन चाहता है मगर सामाजिक नीति-अनीति के कायदे–कानून आगे बढ़ने से रोक देते हैं.”
एक शायर महाशय ने अत्यंत कवित्वपूर्ण शब्दों में उस महान कृति की प्रशंसा, कथ्य के धरातल का स्पर्श करके की-
“असल में आदर्श लेखक इसे कहते हैं, भाईजी. शरदजी, जो केवल विचारों में ही सुधारवादी नहीं हैं बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी उसे आचरित करने के पक्षधर रहे हैं और स्वयं आचरित भी करते हैं. आजकल के दोहरे मानदंडों वाले लेखकों की भांति नहीं हैं.” जो करते. कुछ हैं, लिखते कुछ हैं.”
राममोहन पाठक जी के मुख-द्वार से पुनः स्तुति-सरिता फूट निकली-
“मैंने तो सुना है भाई, शरदजी एक बाल-विधवा से ब्याह करने जा रहे हैं ?”
कोट-पतलूनधारी एक अन्य सज्जन ने बीच में टपककर कहा-
“सुना क्या, देखा नहीं आपने उस त्री को ? अरे, वहीच जो अभी उनके साथ मंच के दाहिनी ओर मिस्टर सिन्हा के साथ बैठी हुई थी सफेद साड़ी में ? मोतियों की चार लड़ी की माला गले में धारे !”
“अच्छा।़।़, वही थीं ? भई वाह ! आदमी हो तो ऐसा.”
शायरजी ने दाद दी, खुले दिल से.
मैंने यह सब सुना तो कानों में खौलते तेल की बूंदे उतरती चली गयीं. नहीं जानती, क्यों बगल में खड़ी मेरी प्रोफ़ेसर मित्र ने सहसा मेरी कोहनी छू ली. “शुभा, इतनी उदास क्यों हो रही हो ?”
“न, नहीं तो…” मैंने ज़बरन मुस्कराने की चेष्टा करते हुए उन्हें बहलाने की कोशिश की. चेहरा इतना क्यों बोलता है ?
“जानती हो तुम शरदजी को ?”
लगा, किसी ने अंतरमन के कपाट पर हल्के से दस्तक दे दी है. दस्तक को अनसुना किया मैंने.
“अभी जो देखा है उन्हें !”
“हूं.” वे अजीब ढंग से मुस्करायी थी.
आप सचमुच कितने महान हैं. ऐसा ही मैंने भी सोचा था ! ‘खंडहरों का दर्द’ पढ़कर. पढ़कर कितनी-कितनी रातें बरसती आंखों में भीगते-ठिठुरते बितायी थीं मैंने. सच कितना उपेक्षित होता है और फिर जो झूठ को सच बनाने की कला में माहिर हो उससे सच तिरस्कृत नहीं होगा तो किससे होगा ?
मैंने देखा था आपके करीब आपकी होने वाली धनाढ्य पत्नी हर्ष से विह्वल हो मंद-मंद मुस्करा रही थीं. आप जैसे ख्याति-प्राप्त व्यक्ति की अर्द्धांगिनी होने का सौभाग्य जो उन्हें प्राप्त होने वाला था ! कितनी भाग्यवान हैं वे ! लेकिन सोच रही थी कि उनकी देह पर इतने हीरे-मोती न दमक रहे होते तो क्या वे इतनी सौभाग्यशाली होतीं ? जिस चमचमाती गाड़ी से सभास्थल पर उतरे थे आप, वह भी तो उन्हीं की थी !
मंच पर से जब आप उतरे थे, बेशुमार छात्रों की भीड़ ने हस्ताक्षर पाने के लिए आपको घेर लिया था और आप उसी सहज मुस्कान के साथ उन्हें हस्ताक्षर दे रहे थे.
उस समय न जाने क्यों आपको एक बार बिल्कुल निकट से देख लेने की लालसा सहसा हृदय में प्रस्फुटित हुई थी, जिसे दबा नहीं पायी तो अपनी उन्हीं प्रोफ़ेसर मित्र के साथ निकट जाकर आपको देखा था.
सच ! आंख भर के देखा था. आप बिल्कुल वैसे ही लगे थे जैसे बरसों-बरस पहले हुआ करते थे. कभी आपकी आंखों में उतरते-झांकते महसूस किया था, आपकी गहरी भरी आंखों की आलोड़ित होती झील की तरलता को. झील ! जो मंद बयार के स्पर्श से उद्वेलित हो सिहरती आलोड़ित होने लगती है. मंद बयार बहाती नहीं, न तूफान पैदा करती है न भंवर ! सिर्फ आलोड़ित करती है ! उस क्षण मेरी छुअन बयार ही तो थी. आंच-भरी मंद बयार ! मैं आपके निकट पहुंचकर उसी पुरानी बयार में क्यों तब्दील हो उठी थीं ! उसी मंद बयार में ! जिसके अब कोई मायने नहीं हैं आपके लिए! मैंने स्वयं को दुत्कारा था. यह क्या पागलपन है. अर्थहीन. मैं ऐसी क्यों हो रही हूं ? होना नहीं चाहती थी मगर समझ नहीं पायी, यह कैसी विवशता है. अपने पर अपना नियंत्रण खोने की ? मैं जो आंधी-पानी के थपेड़ों से मज़बूत हुई स्वयं के लिए छाजन आप हूं ! आप छात्रों को हस्ताक्षर देने में मग्न थे. सोच भी नहीं सकते थे कि आप पर टिकी अनगिनत आंखों के बीच किसी और की भी आंखें टिकी हुई आपमें अपना विगत खोज रही हैं. पन्नों पर पन्ने पलट रही हैं. उस विगत की जो विश्वासघात से छलनी घुट-घुटकर जी रहा है. फिर लगा था, जिसकी यादें ही सांस हैं मेरी और जो मुझे उसके बिना ज़िंदा रखे हुए हैं और जिन यादों के डेरे ने मुझे कभी अकेला नहीं होने दिया, मुझे उनकी परवाह करनी चाहिए ! क्यों, क्यों इतनी दीन-हीन हो रही हूं ?….
याद है आपको ?
शायद नहीं. स्मृति में संजेये रखा जाये इतना महत्त्वपूर्ण वह सब कुछ था क्या ? यानी मैं ! आपकी ज़िंदगी में मेरा होना ? वैसे, यह भी उचित ही है कि विगत की स्मृतियों को अपना भविष्य बनाकर जीने के मूर्खता क्यों की जाये ? अपने ऊपर हंसी आती है मुझे. मैंने तो यादों में डूबकर आधी उम्र काट दी है. गणित मेरा हमेशा कमज़ोर जो रहा है.
अब अपनी बेवकूफ़ी पर पछतावा भी नहीं होता, पर आपकी होने वाली इन विधवा वाग्दत्ता के लिए चिंतित हूं मैं. कितना जानती हैं ये आपको. या इनकी समझ भी प्रेम की धुंध में डूब चुकी है. दया आती है मुझे इन पर- ठीक वैसे ही, जैसे आपको देर तक अपने कॉलेज के गेट के पास अपनी प्रतीक्षा में विकल खड़े हुए पाकर उपजती थी मन में.
याद है आपको ? कितने अनोखे ढंग से हमारा परिचय हुआ था ? उसके बाद जो एक शुरूआत हुई थी, उसकी लतर बेल ने अपनी कोंपलों को कैसे-कैसे पंखों से बुना था और कैसे उन पंखों को ऊंची-ऊंची उड़ानों के लिए ओर-छोर रहित आसमान के लिए तैयार
किया था.
अपनी एक कविता प्रकाशन हेतु आपके कार्यालय में लेकर गयी थी मैं, डाक से भेज सकती थी किंतु कार्यालय घर के बिल्कुल निकट ही तो था !
“ऊं हूं… यह कविता… कोई दम नहीं है. पत्रिका के स्तर की भी नहीं है. आपने तो निस्सीमजी की एक प्रसिद्ध कविता की नकल मात्र कर के रख दी है. दुःख है मुझे…” आपने कहा था.
सन्न-सी हो गयी थी मैं आपकी प्रतिक्रिया से. साहस कर बेबाक होने की कोशिश की थी.
“नहीं प्रकाशित करना है, तो साफ-साफ इंकार ही काफी होगा. यह नकल-वकल का आरोप क्यों लगा रहे हैं
आप ?”
“आप चाहें, तो अपनी अन्य रचनाएं मुझे दिखा सकती हैं, अनुकूल होने पर निश्चय ही प्रकाशित करने की कोशिश होगी.” कुछ पिघलकर आपने कहा था. भांप गये थे शायद कि इतनी कठोरता अनचाहे ही हो गयी है आपसे.
“कोई ज़रूरत नहीं है.” कह कर कागज़ को फाड़कर पैरों-तले पटकती हुई मैं बाहर निकल आयी थी. कविता के भीतर बनी हुई. उसी में घुमड़ती. शायद यह सच नहीं, शायद सच था. कविता की अवमानना छोटी होती है क्या ?
पीठ पीछे मैंने सुना था, आपका एक सहयोगी कटाक्ष कर रहा था, “यार, जिसे देखो वही कवि-कथाकार बनने पर आमादा है. तुकबंदी क्या कर ली स्वयं को महादेवी वर्मा समझने लगती हैं. पैरों की धमक तो देखिए, भूकंप हो रही है.”
उस दिन कसम खा ली थी कि अब कुछ भी नहीं लिखूंगी. कुछ कहने के लिए ही तो लिखना होता है. कहने से होगा भी क्या ? क्यों दुत्कार पाने के लिए जन्मे कविता और उसे जन्म दूं मैं ? तिरस्कार कविता का और वह भी उससे जो स्वयं इतना चर्चित
लेखक है !
इस घटना के बाद न जाने कितनी बार हम मिले थे. मिलने के बहाने खोजते और उन बहानों के बहाने मिलते. बहानों के संकोच एक-एक कर टूटने लगे और इम्तिहान के बाद जब मैंने आपको बताया था कि मैं अपनी बुआ के यहां शिमला जा रही हूं कुछ दिनों के लिए, पहाड़ अब तक नहीं देखे हैं मैंने तो आप कितने खुश हो उठे थे. झुंझलाहट हुई थी मुझे. विचित्र हैं आप भी. मेरे जाने के नाम पर इतने प्रसन्न हो रहे हैं ? अनमनाहट उदासी को लांघ आंखों में पनियाती कि तभी आपने यह कहकर सहसा चौंका दिया था कि संयोग से आप भी शिमला जा रहे हैं वहां अपना नया उपन्यास ‘कस्बों का शहर’ लिखने लगा था कि ज़िंदगी हर मोड़ पर सहृदय होकर हमारा स्वागत कर रही है. मैं बहुत खुश थी. बिना मांगे झोली में आ दुबकने वाले सपनों की खुशी से खुश! खुश तुम भी बहुत थें. जब भी तुम मुझे किताबें उपहार में देते तो सहज ही समझ में आ जाता कि तुम्हारी खुशी पींगे भर रही है. एक क्षण को यह भी महसूस हुआ कि खुशी को अपने साथ के साथ जोड़कर शायद मैं गलती कर कर रही हूं. लिखने के लिए मनचाही जगह और मनचाहा समय निकाल पाना भी तुम्हारे लिए खुशी का कारण हो सकता है! मगर मैंने यही सोचा कि कारणों में उलझकर मुझे अपनी खुशी को गौण नहीं करना चाहिए.
कुफ्री और नालदेडा की उन्नत पर्वत-शृंखलाओं, सघन और देवदारुओं की ढलानों पर कांपते सफेद सेनारा के छोटे-छोटे जंगली घास के फूल! ओस की बूंदों-से झिलमिलाते. ठंडी हवा की सहलाती दुलार से सिहराते. आपने कहा था, आपको घास के वे फूल बहुत भले लगते हैं. जब आप किसी चट्टान पर बैठकर लिखने में मग्न होते तो मैं ओस-से सफेद सेनारा चुनती और अंजुरी में भर आपकी कॉपी पर उड़ेल देती. ओस में भीग जाते आपके लिखे हुए पन्ने ! और फिर उन पन्नों पर इंद्रधनुष खिल आते… एक नहीं अनेक इंद्रधनुष, सतरंगे.
नीले-नीले अक्षरों के बीच सफेद सेनारा और सफेद सेनारा के बीच इंद्रधनुष ! “मैं तुम्हें कुछ इंद्रधनुष लौटाना चाहता हूं, शुभा!” आपने शरारत से भर कहा था.
“धत् !” मुझे झूठा गुस्सा आता था आपके ऊपर.
सांझ आरक्त होकर जब चोटियों के पीछे, क्षितिज पर सिमटने लगती थी तब हम देवदारुओं को थकाकर उठ खड़े होते थे और नीचे टैक्सी की ओर बढ़ने लगते थे. अजीब-सी उमंग से भरे हुए. जब हम अलग होने लगते थे तब आप अपनी अंजुरी में सहेजकर लिए हुए ढेर-से सफेद सेनारा मेरी केश-राशि के ऊपर उड़ेलकर कहते थे, “सेनारा।़।़।़”
मैं हल्के से सिर हिला देती, कुछ फूल झरकर नीचे बिखर जाते थे…
“ऊं हूं बेहद खराब हो तुम !”
“कितने ?” ठहरकर तुम मेरी आंखों में डूबकर पूछते.
ऐसे क्षणों में जवाब जाने कहां जाकर दुबक जाते ! मैं उन्हें ढूंढ़ती भी नहीं. ढूंढ़ना चाहती भी नहीं थी.
वापसी पर हम दोनों ने निश्चय किया था कि उन महकती सांसों को हम जीवन-भर के लिए भीतर बांध लेंगे अटूट
गठबंधन में !
‘कस्बों का शहर’ की सफलता पर हर्षित होकर आपने कहा था- “शुभा, हर पन्ने पर बिखरी हुई हृदयस्पर्शी सजीवता तुम्हारे अनुराग की अमर गंध है, जो मेरे सम्पूर्ण जीवन पर छा चुकी है. शुभा, भय लगता है कि कहीं तुमने अपना रास्ता अलग कर लिया तो ! लेखक बंधकर नौकरी कर नहीं सकता. लिखने से नौकरी को बैर है. अर्थ के स्थायित्व के बिना जीवन की गाड़ी खिंचती नहीं. तुम्हें सड़क पर आने के लिए कैसे मजबूर कर सकता हूं…
आज भी सब याद है, बिल्कुल उसी तरह. रास्ता मैंने नहीं, आपने ही अलग कर लिया. जब मैं निश्चय कर चुकी थी ! आपके संग मैं सड़क पर उतर सकती हूं. मैंने यह भी बताया था कि मैं आपके इंद्रधनुष की…
गंधहीन सफेद सेनारा कुचल दिये गये. उन पर कैसे पांव रख सके आप ? मैं स्तब्ध रह गयी थी. निरभ्र नीले आसमान ने स्वयं को धुएं से क्यों पाट लिया ! मैं उस धुएं के बीच खोये इंद्रधनुष को तलाशती रही बार-बार. लेकिन वह वहां होता तो मिलता ? पुरुष इतना कायर हो सकता है ! बहुत-सी कहानियां आपने कागज़ों पर पूरी की हैं, लेकिन यह कहानी मुझ पर क्यों लिखनी चाही थी ?
अखबार के उस दफ़्तर की नौकरी छोड़, आप उस इमारत को छोड़कर चले गये थे, जहां मैं आपको अपनी कविता के साथ पहली बार मिली थी, लेकिन उस इमारत के भीतर मेरी कविता क्यों छूटी हुई है ? जाने क्यों अब तक वहीं बैठी हुई है. इमारत नहीं पुंछती मेरे ज़ेहन से. शायद मैंने उसे पोंछना भी नहीं चाहा. शायद, पोंछने का नाटक-भर किया है और पोंछ देने के उस नाटक को अब तक जी रही हूं. मगर शायद मैं बोल रही हूं- आप कैसे सुन पायेंगे मेरे झूठ को ?
आपके एक मित्र ने बताया था कि आप बंबई चले गये हैं. आपको शायद मालूम न होगा, मरने के बजाय मैंने दुनिया से लड़ना अधिक मुनासिब समझा- हालांकि आपने कहा था ‘–मरो या सड़ो, मुझे इससे कोई
मतलब नहीं”
सचमुच आप जैसे महान लेखक के लिए दुनिया में उद्धार करने के लिए और भी बहुत से शापग्रस्त लोग हैं. मैं भी अपने घर से अलग होकर बंगलूर आ गयी थी- डी.पी. कॉलेज में हिंदी की लेक्चरर होकर. यह तो मुझे बाद में मालूम पड़ा कि आपकी पहली पत्नी आपके द्वारा उपेक्षित होकर गांव में अपने मां-बाप के घर उनकी सेवा-टहल में ज़िंदगी के बचे-खुचे दिन काट रही हैं. और वह भी सिर्फ इसलिए कि वे अनपढ़ थीं. इतने बड़े लेखक के साथ कोई अनपढ़ गुज़र कैसे कर सकती है ! मात्र चूल्हे–चौके वाली देहातिन उसे कब तक बांध सकती थी ?
इसलिए तो कहती हूं कि आपकी महानता पर वाह-वाह करने वाले लोगों पर मुझे अत्यधिक दया आती है. क्योंकि वे आपके दोहरे-तिहरे व्यक्तित्व के पैबंदों से अनभिज्ञ हैं. बल्कि यूं कहूं कि मुझे क्षोभ होता है.
आपकी शादी में ज़रूर आऊंगी. बंबई में ही जो हूं. बधाई देने के लिए तो लोग पराये के यहां भी चले जाते हैं, फिर आप तो कभी मेरे अपने थे. अब भी एक बार आंख-भर देख लेने की साध मिटी नहीं है… अब भी कहां पराये हुए हैं !
आपको देने के लिए उपहार भी निश्चित कर लिया है मैंने. जो कभी मुझे आपने सौंपा था वही… आपको शायद अनुमान न होगा.
‘मन्नू’ सात साल का हो गया है. मैंने उसे आपके बारे में बता दिया है. वह भी अपने महान पिता से मिलने को उत्सुक है.
सब कुछ तो खो चुकी हूं, और दूं ही क्या ? स्वीकार कर सकेंगे न आप !