बड़ों का बचपन
♦ चार्ल्स डार्विन >
एक जर्मन सम्पादक ने मुझे लिखा कि मैं मन और व्यक्तित्व के विकास के बारे में लिखूं. इसमें आत्मकथा का भी थोड़ा-सा पुट रहे. मैं इस विचार से ही रोमांचित हो गया. शायद यह मेरी संतानों या उनकी भी संतानों के कुछ काम आ जाए. मुझे पता है जब मैंने अपने दादाजी की आत्मकथा पढ़ी थी तो मुझे कैसा लगा था. उन्होंने जो सोचा और जो किया, तथा वे जो कुछ करते थे, वह सब पढ़ा तो लेकिन ये सब बहुत संक्षिप्त और नीरस-सा था. मैंने अपने बारे में जो कुछ लिखा है, वह इस तरह से लिखा है जैसे मैं नहीं बल्कि परलोक में मेरी आत्मा मेरे जीवन और कृत्यों को देख देख कर लिख रही हो. मुझे इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं आयी. अब तो जीवन बस ढलान की ओर बढ़ रहा है. लेखन शैली पर मैंने कोई ध्यान नहीं दिया है.
मेरा जन्म 12 फरवरी 1809 को शूजबेरी में हुआ था. मुझे सबसे पहली याद उस समय की है, जब मैं चार बरस से कुछ महीने गगज्यादा की उम्र का था. हम लोग समुद्र तट पर सैर-सपाटे के लिए गये थे. कुछ घटनाएं और स्थान अभी भी मेरे मन पर धुंधली-सी याद के रूप में हैं.
मैं अभी आठ बरस से कुछ ही बड़ा था कि जुलाई 1817 में मेरी मां चल बसीं, और बड़ी अजीब बात है कि उनकी मृत्यु शैय्या, काले शनील से बने उनके गाउन, बड़े ही जतन से सहेजी सिलाई-कढ़ाई की उनकी मेज के अलावा उनके बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं.
उसी साल बसंत ऋतु में मुझे शूजबेरी के एक डे स्कूल में दाखिल करा दिया गया. उसमें मैं एक बरस तक रहा. लोग-बाग मुझे बताते थे कि छोटी बहन कैथरीन के मुकाबले मैं पढ़ाई-लिखाई में एकदम फिसड्डी था जबकि मैं तो मानता हूं कि मैं काफी शरारती भी था.
इस स्कूल में जाने के समय तक प्राकृतिक इतिहास, और खास कर विभिन्न प्रकार की चीज़ों के संग्रह में मेरी रुचि बढ़ चुकी थी. मैं पौधों के नाम जानने की कोशिश करता, और शंख, बिल्लौरी पत्थर, सिक्के और धातुओं के टुकड़े बटोरता फिरता रहता. संग्रह करने का यह जुनून किसी भी व्यक्ति को सलीकेदार प्रकृतिवादी या कलापारखी ही नहीं, उसे कंजूस भी बनाता है. जो भी हो, यह जुनून मुझमें था, और यह सिर्फ मुझमें ही था, क्योंकि मेरे किसी भी भाई या बहन में इस तरह की रुचि नहीं थी.
इसी बीच एक छोटी-सी घटना मेरे ज़ेहन पर पुख्ता लकीर छोड़ गयी. मेरा विचार है कि यह मेरे ज़ेहन को बार बार परेशान भी कर देती थी. यह तो साफ़ ही था कि मैं अपने छुटपन में पौधों की विविधता में रुचि लेता था. मैंने अपने एक हम उम्र बच्चे (मैं यह पक्का कह सकता हूं कि यह लेहटान था, जो आगे चलकर प्रसिद्ध शिलावल्क विज्ञानी और वनस्पतिशात्री बना) को बताया कि मैं बहुपुष्पक और बसंत गुलाब को किसी खास रंग के पानी से सींचूंगा तो अलग ही किस्म के फूल लगेंगे. हालांकि यह बहुत बड़ी डींग हांकना था, लेकिन मैंने कभी इसके लिए कोशिश नहीं की थी. मैं यह मानने में संकोच नहीं करूंगा कि मैं बचपन में अलग ही तरह की कपोल कल्पनाएं किया करता था, और ये सब महज एक उत्सुकता बनाये रखने के लिए करता था.
ऐसे ही एक बार मैंने अपने पिताजी के बाग में बेशकीमती फल बटोरे और झाड़ियों में छुपा दिये, और फिर हांफता हुआ घर पहुंच गया और यह खबर फैली दी कि चुराये हुए फलों का एक ढेर मुझे झाड़ियों में मिला है.
मैं जब पहली बार स्कूल गया तो शायद बुद्धू किस्म का रहा होऊंगा. गारनेट नाम का एक लड़का एक दिन मुझे केक की दुकान पर ले गया. वहां उसने बिना पैसे दिये ही केक खरीदे, क्योंकि दुकानदार उसे जानता था. दुकान के बाहर निकलने के बाद मैंने उससे पूछा कि तुमने दुकानदार को पैसे क्यों नहीं दिये, तो वह फौरन बोला- इसलिए कि मेरे एक रिश्तेदार ने इस शहर को बहुत बड़ी रकम दान में दी थी, और यह शर्त रखी थी कि उनके पुराने हैट को पहनकर जो भी आये और किसी भी दुकान पर जाकर एक खास तरह से अपने सिर पर घुमाये तो इस शहर के उस दुकानदार को बिना पैसे मांगे सामान देना होगा.’ इसके बाद उसने अपना हैट घुमाकर मुझे बताया. उसके बाद वह दूसरी दुकान में गया, वहां भी उसकी पहचान थी, उस दुकान में उसने कोई छोटा-सा सामान लिया, अपने हैट को उसी तरह से घुमाया और बिना पैसे दिये ही सामान लेकर बाहर आ गया. जब हम बाहर निकल आये तो वह बोला, ‘देखो अब अगर तुम खुद केक वाले की दुकान में जाना चाहते हो तो मैं अपना हैट दे सकता हूं, और अगर तुम इसे सही ढंग से सिर पर हिलाओगे तो जो कुछ चाहोगे, बिना दाम दिये ले सकोगे.’ इस दयानतदारी को मैंने फौरन मान लिया और दुकान में जाकर कुछ केक लिये, उस पुराने हैट को वैसे ही हिलाया जैसे बताया गया था, और ज्यों ही बाहर निकलने को हुआ, तो दुकानदार पैसे मांगते हुए मेरी तरफ लपका. मैंने केक को वहीं फेंका और जान बचाने के लिए सिर पर पैर रखकर भागा. जब मैं अपने धूर्त दोस्त गारनेट के पास पहुंचा तो उसे हंसते देखकर मैं चकित रह गया.
मैं अपने बचाव में कह सकता हूं कि यह बाल सुलभ शरारत थी, लेकिन इस बात को शरारत मान लेने की सोच मेरी अपनी नहीं थी, बल्कि मेरी बहनों की हिदायतों और नसीहतों से मुझमें इस तरह की सोच पैदा हुई थी. मुझे संदेह है कि मानवता कोई प्राकृतिक या जन्मजात गुण हो सकती है. मुझे अंडे बटोरने का शौक था, लेकिन किसी भी चिड़िया के घोंसले से मैं एक बार में एक ही अंडा उठाता था, लेकिन एक बार मैं सारे ही अंडे उठा लाया, इसलिए नहीं कि वे बेशकीमती थे, बल्कि महज अपनी बहादुरी जताने के लिए.
मुझे बंसी लेकर मछली मारने का बड़ा शौक था. किसी नदी या तालाब के किनारे में घंटों बैठा रह सकता था और पानी की कलकल सुनता रहता था. मायेर में मुझे बताया गया कि अगर पानी में नमक डाल दिया जाए तो केंचुए मर जाते हैं, और उस दिन से मैंने कभी भी ज़िंदा केंचुआ बंसी की कंटिया में नहीं लगाया. हालांकि, इससे परेशानी यह हुई कि मछलियां कम
oंफंसती थीं.
एक घटना मुझे याद है. तब मैं शायद डे स्कूल में जाता था. अपने घर के पास ही में मैंने बड़ी ही निर्दयता से एक पिल्ले को पीटा. इसलिए नहीं कि वह किसी को नुकसान पहुंचा रहा था बल्कि इसलिए कि मैं अपनी ताकत आजमा रहा था, लेकिन शायद मैंने उसे बहुत ज़ोर से नहीं मारा था, क्योंकि वह पिल्ला ज़रा-भी किंकियाया नहीं था. यह घटना मेरे दिलो दिमाग पर बोझ-सी बनी रही, क्योंकि वह जगह मुझे अभी भी याद है, जहां मैंने यह गुनाह किया था. उसके बाद तो जब मैंने कुत्तों से प्यार करना शुरू कर दिया तो यह बोझ शायद और भी बढ़ता गया, और उसके बाद काफी समय तक यह एक जुनून की तरह रहा. लगता है कि कुते भी इस बात को जान गये थे क्योंकि कुत्ते भी अपने मालिक को छोड़ मुझे गगज्यादा चाहने लगते थे.
मि. केस के डे स्कूल में जाने के दौरान हुई एक घटना और भी है जो मुझे अब तक याद है, और वह है एक ड्रैगन सिपाही को दफनाने का मौका. अभी तक वह मंज़र मेरी आंखों के सामने है कि कैसे घोड़े पर उस सिपाही के बूट रख दिये गये थे और कारबाइन को काठी से लटका दिया गया था, फिर कब्र पर गोलियां चलायी गयीं. भीतर उस समय जैसे किसी सोये हुए कवि की आत्मा जाग उठी थी. इतना प्रभाव पड़ा उस दृश्य का.
सन् 1818 की ग्रीष्म ऋतु में मेरा दाखिला डॉ. बटलर के प्रसिद्ध स्कूल में करा दिया गया. यह स्कूल शूजबेरी में था और सन् 1825 तक सात साल मैंने वही गुज़ारे. जब यह स्कूल मैंने छोड़ा तो मेरी उम्र सोलह बरस की थी. इस स्कूल में पढ़ाई के दौरान मैंने सही मायनों में स्कूली बच्चे का जीवन बिताया. यह स्कूल हमारे घर से बमुश्किल आधा मील दूर रहा होगा, इसलिए मैं हाजिरी के बीच खाली समय और रात में ताले बंद होने से पहले स्कूल और घर के कई चक्कर लगा लेता था. मैं समझता हूं कि घर के प्रति जुड़ाव और रुचि को बरकरार रखने में यह काफी मददगार रहा.
स्कूल के शुरूआती दिनों के बारे में मुझे याद है कि मुझे समय पर पहुंचने के लिए काफी तेज़ दौड़ना पड़ता था, और तेज़ धावक होने के कारण मैं अक्सर सफल ही होता था. लेकिन जब भी मुझे संदेह होता था तो अधीरता से ईश्वर से प्रार्थना करने लगता था, और मुझे याद है कि अपनी कामयाबी का श्रेय मैं हमेशा ईश्वर को देता था, अपने तेज़ दौड़ने को नहीं, और हैरान होता था कि प्रभु ने मेरी कितनी मदद की है.
मैंने कई बार अपने पिता और दीदी को यह कहते सुना कि जब मैं काफी छोटा था तो संन्यासियों की तरह डग भरता था, लेकिन मुझे ऐसा कुछ याद नहीं आता है. कई बार मैं अपने आप में खो जाता था. ऐसे ही एक बार स्कूल से लौटते समय शहर की पुरानी चहारदीवारी पर चहलकदमी करता हुआ आ रहा था. चहारदीवारी को लोगों के चलने लायक तो बना दिया गया था, लेकिन अभी एक तरफ मुंडेर नहीं बनायी गयी थी. अचानक ही मेरा पैर फिसला और मैं सात आठ फुट की ऊंचाई से नीचे आ गिरा. इस दौरान मुझे एक विचित्र-सा अनुभव हुआ. अचानक और अप्रत्याशित रूप से गिरने और नीचे पहुंचने में बहुत ही थोड़ा समय लगा था, लेकिन इस थोड़े-से समय के बीच ही मेरे दिमाग में इतने विचार कौंध गये कि मैं चकित रह गया, जबकि मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक विचार के लिए काफी समय लगता है, पर मुझे तो अलग ही अनुभव हुआ था, और मेरा ये अनुभव उनसे बिलकुल ही अलग था.
(अनुवाद और प्रस्तुति – सूरज प्रकाश)
(जनवरी 2014)