मुकाबला ईश्वर से था…

बड़ों का बचपन

♦  अमृता प्रीतम  >  

amrita pritamक्या यह कयामत का दिन है?

ज़िंदगी के कई वे पल, जो वक्त की कोख से जन्मे और वक्त की कब्र में गिर गये, आज मेरे सामने खड़े हैं…

ये सब कब्रें कैसे खुल गयीं? और ये सब पल जीते-जागते कब्रों में से कैसे निकल आये?

यह ज़रूर कयामत का दिन है…

यह 1918 की कब्र में से निकला हुआ एक पल है- मेरे अस्तित्व से भी एक बरस पहले का. आज पहली बार देख रही हूं, पहले सिर्फ़ सुना था.

मेरे मां-बाप दोनों पंचखंड भसोड़ के स्कूल में पढ़ाते थे. वहां के मुखिया बाबू तेजासिंह की बेटियां उनके विद्यार्थियों में थीं. उन बच्चियों को एक दिन न जाने क्या सूझी, दोनों ने मिलकर गुरुद्वारे में कीर्तन किया, प्रार्थना की, और प्रार्थना के अंत में कह दिया, “दो जहानों के मालिक! हमारे मास्टरजी के घर एक बच्ची बख्श दो.”

भरी सभा में पिताजी ने प्रार्थना के ये शब्द सुने, तो उन्हें मेरी होने वाली मां पर गुस्सा आ गया. उन्होंने समझा कि उन बच्चियों ने उसकी रज़ामंदी से यह प्रार्थना की है, पर मां को कुछ मालूम नहीं था. उन्हीं बच्चियों ने ही बाद में बताया कि हम राज बीबी से पूछतीं, तो वह शायद पुत्र की कामना करतीं, पर वे अपने मास्टरजी के घर लड़की चाहती हैं, अपनी ही तरह एक लड़की.

यह पल अभी तक उसी तरह चुप है- कुदरत के भेद को होंठों में बंद करके हौले से मुस्कराता, पर कहता कुछ नहीं. उन बच्चियों ने यह प्रार्थना क्यों की? उनके किस विश्वास ने सुन ली? मुझे कुछ नहीं मालूम, पर यह सच है कि साल के अंदर राज बीबी ‘राज मां’ बन गयीं.

यह एक वह पल है…

जब घर में तो नहीं, पर रसोई में नानी का राज होता था. सबसे पहला विद्रोह मैंने उसके राज में किया था. देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बरतनों से हटाये हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे. ये गिलास सिर्फ़ तब परछत्ती से उतारे जाते थे जब पिताजी के मुसलमान दोस्त आते थे और उन्हें चाय या लस्सी पिलानी होती थी और उसके बाद मांज-धोकर फिर वहीं रख दिये जाते थे.

सो, उन तीन गिलासों के साथ मैं भी एक चौथे गिलास की तरह हिल-मिल गयी और हम चारों नानी से लड़ पड़े. वे गिलास भी बाकी बरतनों को नहीं छू सकते थे, मैंने भी ज़िद पकड़ ली कि मैं और किसी बरतन में न पानी पीऊंगी, न दूध-चाय. नानी उन गिलासों को खाली रख सकती थी, लेकिन मुझे भूखा या प्यासा नहीं रख सकती थी, सो बात पिताजी तक पहुंच गयी. पिताजी को इससे पहले पता नहीं था कि कुछ गिलास इस तरह अलग रखे जाते हैं. उन्हें मालूम हुआ, तो मेरा विद्रोह सफल हो गया. फिर न कोई बरतन हिंदू रहा, न मुसलमान.

उस पल न नानी जानती थी, न मैं, कि बड़े होकर ज़िंदगी के कई बरस जिससे मैं इश्क करूंगी वह उसी मज़हब का होगा, जिस मज़हब के लोगों के लिए घर के बरतन भी अलग रख दिये जाते थे. होनी का मुंह अभी देखा नहीं था, पर सोचती हूं, उस पल कौन जाने उसकी ही परछाईं थी, जो बचपन में देखी थी…

परछाइयां बहुत बड़ी हकीकत होती हैं.

चेहरे भी हकीकत होते हैं. पर कितनी देर? परछाइयां, जितनी देर तक आप चाहें… चाहें तो सारी उम्र. बरस आते हैं, गुज़र जाते हैं, रुकते नहीं, पर कई परछाइयां, जहां कभी रुकती हैं, वहीं रुकी रहती हैं…

यूं तो हर परछाईं किसी काया की परछाईं होती है, काया की मोहताज, पर कई परछाइयां ऐसी भी होती हैं, जो इस नियम के बाहर होती हैं, काया से भी स्वतंत्र.

और यूं भी होता है कि हर परछाईं न जाने कहां से, और किस काया से टूटकर तुम्हारे पास आ जाती है, और तुम उस परछाईं को लेकर दुनिया में घूमते रहते हो और खोजते रहते हो कि यह जिस काया से टूटी है वह कौन-सी है? …गलतफ़हमियों का क्या है? हो जाती हैं. तुम यह परछाईं गैरों के गले से लगाकर भी देखते हो, न जाने उसी के माप की हो! नहीं होती, न सही. तुम फिर उसे-अंधेरे-से को-पकड़कर वहां से चल देते हो…

मेरे पास भी एक परछाईं थी.

नाम से क्या होता है, उसका एक नाम भी रख लिया था- राजन! घर में एक नियम था कि सोने से पहले कीर्तन सोहिले का पाठ करना होता था, इसके सम्बंध में पिताजी का विश्वास था कि जैसे-जैसे इसे पढ़ते जाते हो तुम्हारे गिर्द एक किला बनता जाता है, और पाठ के समाप्त होते ही तुम सारी रात एक किले की सुरक्षा में रहते हो, और फिर सारी रात बाहर से किसी की मजाल नहीं होती कि वह उस किले में प्रवेश कर सके. तुम हर प्रकार की चिंता से मुक्त होकर सारी रात सो सकते हो.

यह पाठ सोते समय करना होता था. आंखें नींद से भरी होती थीं, इतनी कि नींद के गलबे में यह अधूरा भी रह सकता था. सो, इस सम्बंध में उनका कहना था कि अंतिम पंक्ति तक इसे पूरा करना ही है. अगर अंतिम पंक्तियां छूट जाएं, तो किलेबंदी में कोई कोर-कसर रह जाती है, इसलिए वह पूरी रक्षा नहीं कर सकता. सो अंतिम पंक्ति तक यह पाठ करना होता था.

बहुत बच्ची थी. चिंता हुई कि इस पाठ के बाद मेरे गिर्द किला बन जाएगा, तो फिर राजन मेरे सपने में किस तरह आएगा? मैं किले के अंदर होऊंगी, वह किले के बाहर रह जाएगा… सो, सोचा कि पाठ कंठस्थ है, अपनी चारपाई पर बैठकर धीरे-धीरे करना है, मैं याद से इसकी कुछ पंक्तियां छोड़ दिया करूंगी, किला पूरी तरह बंद नहीं होगा, और वह उस खुली जगह से होकर आ जाएगा…

पर पिताजी ने इस नियम का रूप बदल दिया. इसकी जगह सब अपनी-अपनी चारपाई पर बैठकर, अपना-अपना पाठ करें, उन्होंने यह नियम बना दिया कि मैं अपनी चारपाई पर बैठकर ऊंचे स्वर में पाठ करूंगी, और सब अपनी-अपनी चारपाई पर बैठे उसे सुनेंगे. यह शायद इसलिए की दूर के रिश्ते में एक लड़का और एक छोटी बच्ची पिताजी के पास ही रहते और पढ़ते थे, और उस छोटी बच्ची को यह पाठ याद नहीं होता था.

सो पाठ की कोई भी पंक्ति छोड़ी नहीं जा सकती थी. एक-दो बार छोड़ने की कोशिश की, पर पिताजी ने भूल की शोध करवाकर वे पंक्तियां भी पढ़वा दीं. फिर बहुत सोचकर यह युक्ति निकाली कि ‘कीर्तन सोहिले’ का पाठ करने से पहले मैं राजन को ध्यान करके उसे अपने पास बुला लिया करूं, ताकि वह किले की दीवारों के निर्माण होने से पहले ही किले के अंदर आ जाया करे.

कोई ग्यारह बरस की थी, जब अचानक एक दिन मां बीमार हो गयीं. बीमारी कोई मुश्किल से एक सप्ताह रही होगी, जब मैंने देखा कि मां की चारपाई के इर्द-गिर्द बैठे हुए सभी के मुंह घबराये हुए थे.

‘मेरी बिन्ना कहां है?’ कहते हैं, एक बार मेरी मां ने पूछा था और जब मेरी मां की सहेली प्रीतम कौर मेरा हाथ पकड़कर मुझे मां के पास ले गयीं तो मां को होश
नहीं था.

‘तू ईश्वर का नाम ले, री! कौन जाने उसके मन में दया आ जाए. बच्चों का कहा वह नहीं टालता…’ मेरी मां की सहेली, मेरी मौसी ने मुझसे कहा.

मां की चारपाई के पास खड़े हुए मेरे पैर पत्थर के हो गये. मुझे कई वर्षों से ईश्वर से ध्यान जोड़ना कठिन नहीं था. मैंने न जाने कितनी देर अपना ध्यान जोड़े रखा और ईश्वर से कहा- ‘मेरी मां को मत मारना.’

मां की चारपाई से अब मां की पीड़ा से कराहती हुई आवाज़ नहीं आ रही थी, पर इर्द-गिर्द बैठे हुए लोगों में एक खलबली-सी पड़ गयी थी. मुझे लगता रहा- ‘बेकार ही सब घबरा रहे हैं, अब मां को पीड़ा नहीं हो रही है. मैंने ईश्वर से अपनी बात कह दी है- वह बच्चों का कहा नहीं टालता.’

और फिर मां की चीखों की आवाज़ नहीं आयी, पर सारे घर की चीखें निकल गयीं. मेरी मां मर गयी थीं. उस दिन मेरे मन में रोष उबल पड़ा- ‘ईश्वर किसी की नहीं सुनता, बच्चों की भी नहीं.’

यह वह दिन था, जिसके बाद मैंने अपना वर्षों का नियम छोड़ दिया. पिताजी की आज्ञा बड़ी कठोर होती थी, पर मेरी ज़िद ने उनकी कठोरता से टक्कर ले ली-

‘ईश्वर कोई नहीं होता.’

‘ऐसे नहीं कहते.’

‘क्यों?’

‘वह नाराज हो जाता है.’

‘तो हो जाए, मैं जानती हूं ईश्वर कोई नहीं है.’

‘तू कैसे जानती है?’

‘अगर वह होता, तो मेरी बात न सुनता?’

‘तूने उससे क्या कहा था?’

‘मैंने उससे कहा था, मेरी मां को मत मारना.’

‘तूने उसे कभी देखा है? वह दिखाई थोड़े ही देता है?’

‘पर उसे सुनाई भी नहीं देता?’

पूजा-पाठ के लिए पिताजी की आज्ञा अपनी जगह पर अड़ी हुई थी, और मेरी ज़िद अपनी जगह. कभी उनका गुस्सा ही उबल पड़ता, और वह मुझे पालथी लगवाकर बिठा देते- ‘दस मिनट आंखें मींचकर ईश्वर का चिंतन कर!’

बाहर जब शारीरिक तौर पर मेरी बचकानी उम्र उनके पितृ-अधिकार से टक्कर न ले सकती, तब मैं आलथी-पालथी मारकर बैठ जाती, आंखें मींच लेती, पर अपनी हार को अपने मन का रोष बना लेती- ‘अब आंखें मींचकर अगर मैं ईश्वर का चिंतन न करूं, तो पिताजी मेरा क्या कर लेंगे? जिस ईश्वर ने मेरी वह बात नहीं सुनी, अब मैं उससे कोई बात नहीं करूंगी. उसके रूप का भी चिंतन नहीं करूंगी. अब मैं आंखें मींचकर अपने राजन का चिंतन करूंगी. वह मेरे साथ सपने में खेलता है, मेरे गीत सुनता है, वह कागज़ लेकर मेरी तसवीर बनाता है- बस, उसी का ध्यान करूंगी, उसी का.’

ये वे दिन थे, जिनके बाद मैंने कई दिन नहीं, कई महीने नहीं, कई बरस दो सपनों में गुज़ार दिये. रोज़ रात को मेरे पास आना इन सपनों का नियम बन गया. गर्मी जाये, जाड़ा जाये इन्होंने कभी नागा नहीं किया.

एक सपना था कि एक बहुत बड़ा किला है और लोग मुझे उसमें बंद कर देते हैं. बाहर पहरा होता है. भीतर कोई दरवाज़ा नहीं मिलता. मैं किले की दीवारों को उंगलियों से टटोलती रहती हूं, पर पत्थर की दीवारों का कोई हिस्सा भी नहीं पिघलता.

सारा किला टटोल-टटोलकर जब कोई दरवाज़ा नहीं मिलता, तो मैं सारा ज़ोर लगाकर उड़ने की कोशिश करने लगती हूं.

मेरी बांहों का इतना ज़ोर लगता है, इतना ज़ोर लगता है कि मेरी सांस चढ़ जाती है.

फिर मैं देखती हूं मेरे पैर धरती से ऊपर उठने लगते हैं. मैं ऊपर होती जाती हूं, और ऊपर, और फिर किले की दीवार से भी ऊपर हो जाती हूं.

सामने आसमान आ जाता है. ऊपर से मैं नीचे निगाह डालती हूं. किले का पहरा देने वाले घबराये हुए हैं, गुस्से में बांहें हिलाते हुए, पर मुझ तक किसी का हाथ नहीं पहुंच सकता.

और दूसरा सपना था कि लोगों की एक भीड़ मेरे पीछे है. मैं पैरों से पूरी ताकत लगाकर दौड़ती हूं. लोग मेरे पीछे दौड़ते हैं. फासला कम होता जाता है और मेरी घबराहट बढ़ती जाती है. मैं और ज़ोर से दौड़ती हूं, और ज़ोर से, और सामने दरिया आ जाता है.

मेरे पीछे आने वाले लोगों की भीड़ में खुशी बिखर जाती है- ‘अब आगे कहां जाएगी? आगे कोई रास्ता नहीं है, आगे दरिया बहता है…’

और मैं दरिया पर चलने लगती हूं. पानी बहता रहता है, पर जैसे उसमें धरती जैसा सहारा आ जाता है. धरती तो पैरों को सख्त लगती है. यह पानी नरम लगता है और मैं चलती जाती हूं.

सारी भीड़ किनारे पर रुक जाती है. कोई पानी में पैर नहीं डाल सकता. अगर कोई डालता है, तो डूब जाता है, और किनारे पर खड़े हुए लोग घूरकर देखते हैं, किचकिचियां भरते हैं, पर किसी का हाथ मुझ तक नहीं पहुंच पाता.

(आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ का एक अंश)

(जनवरी 2014)

 

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