♦ गोपालप्रसाद व्यास > संसद भवन. प्रधानमंत्री का कक्ष. तब नेहरूजी प्रधानमंत्री थे. मैं मिलने गया. मिलने क्या गया, अपनी पुस्तकें भेंट करने गया. संसद चल रही थी. बीच में ही वहां से उठकर नेहरूजी आये. उनकी दाहिनी ओर तत्कालीन…
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मेरे साहित्य की आदि-प्रेरणा
♦ गोपाल प्रसाद व्यास > संसार के अन्य शुभ कार्यों में चाहे प्रेरणा की ज़रूरत न महसूस होती हो, मगर यह जो कविता लिखने का महाकार्य है उसमें तो प्रेरणा का दौरा पड़ना वैसे ही आवश्यक है, जैसे मलेरिया-बुखार के…
हास्य का मनोविज्ञान
♦ जगन्नाथ प्रसाद मिश्र > मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो हंस सकता है. अन्य प्राणी हंस नहीं सकते. हास्य द्वारा आनंद-प्रकाश की क्षमता मनुष्य के प्रति विधाता की एक बहुत बड़ी देन है. इसीसे सृष्टि के आदिकाल से…
हम क्यों त्योहार विमुख हैं
♦ गोपाल चतुर्वेदी > किसी उत्सव प्रिय देश में त्योहार विमुख होना, बिना किसी कानूनी हिफाजत के कट्टर धार्मिक मुल्क में अल्पसंख्यक रहने जैसा है. लोग आपको इंसानी चेहरे-मोहरे के बावजूद कोई अजूबा समझें. हमें आश्चर्य है. कुछ पढ़े-लिखे…
अहिंसा की आग
♦ प्रदिप पंत > एक बालक ने अपने दादाजी से पूछा, “साधु-संन्यासी-बाबा लोग कहां रहते हैं?” दादाजी बूढ़े हो चुके थे. अपने ज़माने में खोये हुए बोले, “देह पर भभूत लगाये, ज़मीन पर त्रिशूल गाड़े, जटा-जूट धारी वे एकांत-शांत में,…