♦ रांगेय राघव > पिया चली फगनौटी कैसी गंध उमंग भरी ढफ पर बजते नये बोल, ज्यों मचकीं नयी फरी। चंदा की रुपहली ज्योति है रस से भींग गयी कोयल की मदभरी तान है टीसें सींच गयी। दूर-दूर…
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धुंध के पार
♦ संतोष श्रीवास्तव > बांस का गट्ठर ज़मीन पर पटक बापू खटिया पर बैठ पसीना पोंछने लगे. रेवली पानी का लोटा भर लायी. अंदर से माई ने हांक लगायी “रोटी तैयार है… खा लो तो चूल्हा समेटूं… ढेर काम करने…
दो कविताएं : सुधा अरोड़ा
♦ सुधा अरोड़ा > हर स्त्री एक जलता हुआ सवाल होती है एक स्त्री जब एक त्री भर नहीं रह जाती एक जलता हुआ सवाल बन जाती है ऐसे सवाल को कौन गले लगाना चाहता है सवालों से कतरा कर निकल जाते…
दुनिया का खेला
♦ अनुपम मिश्र > मैं उनसे कभी मिल नहीं पाया था. सभा गोष्ठियों में दूर से ही देखता था उन्हें. अपरिचय की एक दीवार थी. यह कोई ऊंची तो नहीं थी पर शायद मेरा अपना संकोच रोके रहा आगे बढ़…
फागुन की धूप सरीखे धर्मवीर इलाहाबादी
♦ पुष्पा भारती > होली शब्द के उच्चारण मात्र से मन बचपन की यादों से जुड़ जाता है तब घर-घर में होली जलाई जाती, ढेर सारे पकवान बनते. सालभर की दुश्मनियां होली में होम करके दूसरे दिन सुबह से सारे…